मोक्षदा रसोई में पहुँची और दोपहर के भोजन की तैयारी में जुट गई,चूल्हें में आग सुलगाते हुए उसने झुमकी काकी से कहा....
काकी!तनिक कटहल तो काट देना।।
बिटिया! बस अभी काटे देती हूँ,झुमकी काकी बोली।
फिर मोक्षदा वहीं रसोई के बाहर के आँगन में एक कोने पर रखे सिलबट्टे पर मसाला पीसने लगी,कुछ देर में मसाला पिस गया तो वो मसाला उठाकर रसोई में पहुँची और चूल्हे पर लोहे की कढ़ाई चढ़ाकर कटहल की सब्जी बनाने लगी,फिर उसने कुछ कच्चों आमों को चूल्हे के भीतर भूनने को डाल दिए और आटा गूँथने लगी,कुछ ही देर में सारा भोजन तैयार हो गया और मोक्षदा ने झुमकी काकी से अमरेन्द्र और सत्यकाम को बुलाने को कहा....
तब अमरेन्द्र तो आ गया लेकिन सत्या नहीं आया,तब अमरेन्द्र बोला....
आज सत्यकाम बाबू भोजन नहीं करेगें,कहते हैं कि सुबह नाश्ता कुछ ज्यादा हो गया था।।
अमरेन्द्र की बात सुनकर फिर मोक्षदा ने कुछ नहीं पूछा,वो ये जान चुकी थी सत्यकाम उस पर नाराज है इसलिए खाना नहीं खा रहा है।।
मोक्षदा ने अमरेन्द्र और झुमकी काकी को खाना खिलाया लेकिन उसने भी दोपहर का खाना नहीं खाया और रसोई की सफाई करके वो अपने कमरें में आ गई फिर चादर पर कसीदाकारी करने लगी,इसी तरह कुछ और कामों को निपटाते निपटाते शाम हो आई और फिर मोक्षदा शाम के कामों को निपटाने के लिए अपने कमरें से बाहर निकली,रसोई में पहुँची और चूल्हा सुलगाकर चाय चढ़ा दी,फिर पीछे वाले आँगन में जाकर गाय और उसके बछड़े को दाना पानी देकर दूध दोहने लगी,वो काम तो कर रही थी लेकिन उसका मन नहीं लग रहा था,वो सत्यकाम से बात करकें दोपहर के व्यवहार के लिए माँफी माँगना चाहती थी,लेकिन उसे सत्या आस-पास नहीं दिख रहा था,शायद वो ज्यादा ही गुस्से में था इसलिए मोक्षदा के आस पास नहीं फटक रहा था,मोक्षदा यही सोच ही रही थी कि तभी सत्यकाम आँगन में आकर मोक्षदा से बोला.....
जी! मैं रात का खाना नहीं खाऊँगा,इसलिए मेरे लिए खाना मत बनाइएगा।।
क्यों? दोपहर की बात से अभी तक नाराज हो,मोक्षदा ने पूछा।।
जी!नहीं! भला आपसे कैसी नाराजगी ?सत्यकाम बोला।।
तो फिर खाना क्यों नहीं खाओगे? मोक्षदा ने पूछा।।
बस,ऐसे ही पेट ठीक नहीं है,सत्यकाम बोला।।
सच में पेट ठीक नहीं है या फिर और कोई बात है,मोक्षदा बोली।।
हाँ! सच में देवी जी! पेट ठीक नहीं है,लगता है सुबह का नाश्ता ज्यादा हो गया था और इतना कहकर सत्यकाम जाने लगा,उसे जाता देखकर मोक्षदा बोली.....
सुनो....रूको जरा!
जी! कहिए! सत्यकाम ने मुड़कर पूछा।।
फिर मोक्षदा सत्यकाम के पास आई और बोली.....
मुझे माँफ कर दो,मैनें तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया,क्या करूँ मुझसे गलती हो गई?तुमसे ना जाने क्या क्या कह गई?
और इतना कहते कहते मोक्षदा की आँखों से पाश्चाताप के आँसू भी टपकने लगे.....
मोक्षदा की आँखों में आँसू देखकर सत्यकाम उसके करीब गया और अपने हाथों से मोक्षदा के आँसू पोछते हुए बोला.....
इन आँसुओं को यूँ जाया मत कीजिए,ये बेसकीमती मोती हैं,मुझे मालूम हैं कि आप भीतर से बहुत परेशान हैं,शायद आपको ऐसे दोस्त या साथी की जरूरत है जो आपके मन के भावों को पढ़ सकें,जो आपके भीतर चल रहे भावनाओं के तूफान को रोक सकें,आपके मन की पीड़ा को महसूस कर सके,आपका दर्द बाँट सकें,आपको हँसा सकें,आपके हृदय में भरे हुए गुबार को निकाल सके,आपको हमदर्दी और अपनेपन की जरूरत है,आप जब तक ऐसा साथी तलाश नहीं कर लेतीं तब तक आपका व्यवहार यूँ ही चिढ़चिढ़ा बना रहेगा,आपको खुश रहना सीखना होगा।।
तुम बनोगें मेरे ऐसे साथी,मोक्षदा बोली।।
मैं....कैसें? सत्यकाम चकित था।।
हाँ! बोलो!मुझे हँसना सिखाओगे,मेरी उलझनों को सुलझाओगे,मेरे मन की पीड़ा को महसूस करोगें....बोलो...मेरे दोस्त बनोगें,मोक्षदा ने पूछा।।
जी! मैं इस काबिल नहीं,सत्यकाम बोला।।
तुम फिर मेरे सामने क्यों बड़ी बड़ी बातें करते हो,तुम भी तो एक मर्द ही हो,इस समाज का एक ऐसा मर्द जिसने सदैव से औरत को केवल पाँव की जूती के अलावा और कुछ नहीं समझा, अरे....जाओ....जाओ.... ये सान्त्वना देने वाले वाक्य तुम और किसी से जाकर कहो,मोक्षदा गुस्से से लाल होकर बोली।।
इतना सुनते ही फिर सत्यकाम कुछ भी नहीं बोला और चुपचाप बाहर चला गया,मोक्षदा जहाँ खड़ी थी वहीं पर खड़ी रही,उसे सत्यकाम से ऐसे शुष्क व्यवहार की आशा कतई नहीं थी।।
रात हुई मोक्षदा ने गैर मन से भोजन पकाया,अमरेन्द्र और झुमकी काकी को वो भोजन खिलाकर स्वयं बिना खाए ही छत पर ताजी हवा लेने चली गई,उसने देखा कि गर्म हवा से पेड़ो के पत्ते डोल रहे थें,छत पर बहुत अँधेरा भी था और शायद उसकी जिन्दगी में भी,कुछ सोचते सोचते उसे अपने हालात पर रोना आ गया,तभी पीछे से उसके काँधे पर किसी ने हाथ रखा और पूछा....
बिना खाएं ही छत पर आ गईं.....वो आवाज़ सत्या की थी।।
तुम जो वहाँ से बिना कुछ कहें चले गए थे,मेरा मन खराब हो गया तुम्हारे व्यवहार से,मोक्षदा बोली।।
मैं आपकी बातों का जवाब देकर आपके मन को और भी कष्ट नहीं पहुँचाना चाहता था,सत्यकाम बोला।।
लेकिन तुम्हारे उस शुष्क व्यवहार ने मुझे भीतर तक तोड़ दिया,मोक्षदा बोली।।
मैं इसके लिए आपसे माँफी चाहता हूँ,सत्यकाम बोला।।
ये...आप...आप क्या लगा रखा है? तुम मुझे तुम भी तो कह सकते हो,मोक्षदा बोली।।
मुझे यही सही लगता है,सत्यकाम बोला।।
और पता है मुझे क्या सही लगता है?मोक्षदा बोली।।
हाँ! कहिए ना! सत्यकाम बोला।।
मुझे तुम सही लगते हो,शायद मैं तुम्हें चाहने लगी हूँ सत्यकाम! तुम्हें देखकर मन में सोई हुई उमंग जाग उठी है दोबारा दुल्हन बनने की,रंगीन कपड़ें पहनने की,जब तुमने कहा कि मैं खुले बालों में अच्छी लगती हूँ तो मन में कई सोई हुई आशाओं ने अँगड़ाई ले ली,मेरे मरूस्थलीय हृदय में बरखा हो गई,वर्षों से सोए हुए इस अन्तर्मन ने आँखें खोल लीं,
सत्यकाम!बन जाओ ना मेरे सुख दुःख के साथी,थाम ना लो मेरी इन सूनी कलाइयों को और पहना दो ना इनमें रंग-बिरंगी चूड़ियाँ,मैं भी देखना चाहती हूँ कि लाल चूनर ओढ़कर मैं कैसी दिखती हूँ?और इतना कहते कहते मोक्षदा सत्यकाम के सीने से लग गई।।
सत्यकाम अब दुविधा में पड़ चुका था,उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो मोक्षदा के सवालों का क्या जवाब दें,उसने कुछ देर तक कुछ सोचा और फिर बोला......
जी! शायद आप अपने आपे में नहीं हैं,इसलिए ऐसा कह रहीं हैं?
अच्छा! मैं आपे में नहीं हूँ,जब मैं तुलसीचौरे के पास पूजा कर रही थी तो तुम भी तो मुझे छुपछुप कर देख रहे थे,इसका मैं क्या मतलब समझूँ?मोक्षदा बोली।।
आप अच्छी लग रही थीं,इसलिए देख रहा था,सत्यकाम बोला।।
कोई अच्छा तभी लगने लगता है जब हम उसे चाहने लगते हैं,मोक्षदा बोली।।
आप गलत अर्थ निकाल रहीं हैं,सत्यकाम बोला।।
मैं गलत अर्थ नहीं निकाल रही हूँ,तुम भी मुझे पसंद करते हो,लेकिन ये कहने से क्यों डरते हो? मोक्षदा चीखी।।
नहीं !ऐसा कभी नहीं होगा,मैं अपने मित्र को दगा नहीं दे सकता,सत्यकाम बोला।।
दगा....कैसा ...दगा,मोक्षदा ने पूछा।।
अमरेन्द्र जी ने मुझे काम दिया,सिर छुपाने को छत दी,आसरा दिया और मैं उन्हीं से दगाबाज़ी कर जाऊँ,धूमिल कर दूँ उनकी छवि को,ऐसा पाप मैं कभी भी नहीं करूँगा,मैं समाज में कोई भी ऐसा उदाहरण पेश नहीं करूँगा जिससे लोंग अन्जान लोगों को अपने घर में आसरा देने से डरने लगें,सत्यकाम बोला।।
तो तुम मुझे नहीं चाहते,मोक्षदा ने गुस्से से पूछा।।
नहीं! बिल्कुल नहीं! सत्यकाम बोला।।
मत ठुकराओ मेरी प्रीत को,मत तोड़ो मेरा प्रेमभरा हृदय,जिन्दगी भर मैं तुम्हारी दासी बनकर रहूँगी,मोक्षदा गिड़गिड़ाई।।
ये मुमकिन नहीं,सत्यकाम बोला।।
लेकिन क्यों?मोक्षदा ने पूछा।।
क्योंकि हम दोनों की राहें अलग अलग हैं,मैं आपके वंश को कलंकित नहीं कर सकता,आपके भाई पर लाँक्षन लगता हुआ नहीं देख सकता,सत्यकाम बोला।।
तो क्या जीवन भर मैं यूँ ही अपनी सूनी माँग लेकर फिरती रहूँगी,?मोक्षदा ने पूछा।।
नहीं! आपकी जिन्दगी में अवश्य बहार आएगी,मेरा आपसे वादा है,सत्यकाम बोला।।
तुम्हारे कहने से सब ठीक हो जाएगा,क्यों पागल बनाते हो सत्यकाम बाबू! मोक्षदा बोली।।
पागल नहीं बनाता मैं,मैं अवश्य ही आपका दूसरा ब्याह करवाकर रहूँगा,आपके लिए ऐसा साथी ढ़ूढ़कर लाऊँगा जो जीवनभर आपका साथ निभा सकें,सत्यकाम बोला।।
तो तुम्हीं क्यों नहीं बन जाते मेरे जीवनसाथी? मोक्षदा ने पूछा।।
मैं ये नहीं कर सकता,मैं अपने मित्र के साथ नमकहरामी नहीं कर सकता,समाज में उनकी प्रतिष्ठा है....मान-मर्यादा है और मैं आपका हाथ थामकर उनकी प्रतिष्ठा पर बट्टा लगा दूँ,सत्यकाम बोला।।
और मेरा क्या? मैं जो अपने मन-मंदिर में तुम्हारी मूरत सजा बैठी हूँ,मोक्षदा बोली।।
एक खण्डित मूरत को अपने मन-मंदिर में स्थान मत दीजिए,मैं इस योग्य नहीं,समाज से बहिष्कृत व्यक्ति भला आपको समाज में कैसें स्थान दिलवा सकता है? सत्यकाम बोला।।
तुम और समाज से बहिष्कृत,मोक्षदा बोली।।
जी!हाँ! मैं आपके योग्य नहीं,सत्यकाम बोला।।
लेकिन मैं ऐसा नहीं समझती,क्योंकि तुम पहले ऐसे इन्सान हो जिसने मेरे हृदय को टटोला है,मेरे भीतर उठ रहे तूफान को रोकने का प्रयत्न किया है,मोक्षदा बोली।।
शायद इसलिए आपको समझ सका क्योकिं मैं भी तो हालातों का मारा हूँ,सत्यकाम बोला।।
जब हमारी मनोदशा एक जैसी है तो हमें एक हो जाना चाहिए,मोक्षदा बोली।।
बिल्कुल नहीं! आप उस भाई को धोखा नहीं दे सकतीं जिसने आपकी भलाई के बारें ही सोचकर अभी तक ब्याह नहीं किया,जो अपनी जवानी सिर्फ़ इसलिए गँवा रहा है कि उसकी बहन को तकलीफ़ ना हो,वो भी तो किसी स्त्री का संग पाने को ललायित होगा,उसकी गृहस्थी बिना पत्नी के अधूरी है,लेकिन वो तो स्वार्थी नहीं बना,केवल आपके बारें में सोचकर उसने ये कदम नहीं उठाया और आज आप प्रेम के प्रति वशीभूत होकर उसे धोखा देने का प्रयास कर रहीं हैं,सत्यकाम बोला।।
ये मैने कभी सोचा ही नहीं,मोक्षदा बोली।।
तो फिर सोचकर देखिए,सत्यकाम बोला।।
तुम शायद सही कहते हो,मोक्षदा बोली।।
तो फिर नीचे जाइए और कुछ खाकर ये सोचकर देखिएगा कि आप कितनी बड़ी भूल करने जा रहीं थीं और फिर इतना कहकर सत्यकाम नीचें चला गया और मोक्षदा छत पर खड़ी होकर उसे जाते हुए देखती रही.....
फिर सत्यकाम अपन बिस्तर पर आकर लेट गया और मन में सोचने लगा....
माँफ करना मोक्षदा! मैं भी तुम्हें चाहने लगा हूँ,मुझे पहली ही नज़र में तुमसे प्यार हो गया था लेकिन मैं अमरेन्द्र को धोखा नहीं दे सकता,मैनें तुमसे झूठ कहा.....
जब तुम थोड़ी देर पहले छत पर मेरे हृदय से लगी तो मैं स्वयं को सम्भाल नहीं पा रहा था,मैं भी तुम्हें अपने मन मंदिर में सजा चुका हूँ लेकिन मैं तुमसे ब्याह नहीं कर सकता.....
और ये सोचते सोचते सत्या की दोनों आँखों की कोरों से आँसू टपकने लगें...
क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....