Rasbi kee chitthee Kinzan ke naam - 15 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 15

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रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 15

अब ये बात बहुत पीछे छूट गई कि मैं तुझे जान पर खेलकर नायग्रा झरना पार करने से रोक पाऊंगी। मैं हार गई थी।
तू अपनी नाव पर किसी रसायन का लेप लगवाने के लिए न्यूयॉर्क जाकर आया था। हडसन में तेरे काफ़िले को हज़ारों लोगों ने देख कर तुझे सलामती की दुआएं भी दे डाली थीं। लोगों का जोश और तेरा जुनून देख कर तेरे इरादे की खबर मीडिया ने भी छापी थी। इसे पढ़कर ब्राज़ीलियन पप्पी की मालकिन की भांति और भी कई लोगों ने तरह- तरह से धन से तेरी मदद कर डाली थी। अब तू ख़र्च के धन के लिए मेरा मोहताज बिल्कुल नहीं था। मेरी ये आख़िरी उम्मीद भी गर्त में चली गई थी कि तू मुझ पर तरस खाकर मेरी बात सुनेगा।
किसी ने तेरे नाम पर स्विमिंग पूल बनाने का ऐलान किया था तो किसी ने इवेंट के दौरान पहनी गई तेरी पोशाक ऊंचे दामों में खरीदने की पेशकश कर दी थी। तेरे दोस्तों ने वो ध्वज भी तैयार कर लिया था जिसे वो तेरे जुनून के शुरू होने के उपलक्ष्य में ऊंचे पेड़ पर लहराने वाले थे।
सब कुछ तय था। सटीक आयोजना थी। हर एक का ख़्याल रखा गया था सिवा मेरे। बस, एक मेरी ही बात पर कोई कान या ध्यान नहीं दिया गया था। तेरी नज़रों में एक मैं ही बस फ़ालतू थी न? सिर्फ़ तुझे पैदा करने वाली मशीन?? तेरे लिए सुबह - शाम भोजन तैयार करने वाली बेजान मूर्ति???
चल बेटा, मैं भी आख़िर तेरी मां हूं। जब तू अपनी ज़िद नहीं छोड़ सकता तो मैं भी कैसे अपनी कोशिश छोड़ देती।
मैंने सब पता कर लिया था तेरे दोस्तों से। तुम लोग कब जाने वाले हो, तेरी मुहिम कहां से शुरू होगी, कैसे परवान चढ़ेगी।
तेरा मामा भी मेरी बेकद्री देख कर पसीज गया था और हर तरह से मेरी मदद करने को तैयार हो गया था।
वो न जाने कहां से एक तमंचे का बंदोबस्त भी कर लाया था।
न - न तुझे मारना नहीं था रे! ऐसा मैं सोच भी कैसे सकती थी। हमने तो बस ये सोचा था कि तेरी ये प्लास्टिक बॉल जैसी नाव अगर किसी भी क्षण खतरे में पड़ी तो इसे चीर कर तुझे इससे बाहर कैसे निकालना है।
अब सारा शहर एक तरफ़ था और मैं, तेरी मां दूसरी तरफ। तेरे साथ जाने- अनजाने सब थे पर मेरे साथ केवल अकेला एक मेरा भाई, ये तेरा मामा।
और सच पूछो तो मामा भी पूरी तरह मेरे साथ कहां था। वह तेरी सारी तैयारी को ऐसे कौतूहल से देखता था कि कभी- कभी तो मैं भी ये सोच कर डर जाती थी कि कहीं ये भी तेरी मुहिम में तेरे साथ शामिल न हो जाए।
जबकि तू तो ये भी नहीं जानता था कि ये शख़्स तेरा मामा है। सगा न सही।
अब सब कुछ मेरे हाथ से निकल चुका था पर फ़िर भी मेरा दिल कहता था कि मैं एक बार अपनी आख़िरी कोशिश और करूं। चाहे इसके लिए मुझे अपनी जान की बाज़ी ही क्यों न लगानी पड़े। वैसे भी मेरी जान का कदरदान था ही कौन?
जब मेरा बेटा ही मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अपने जोश- जुनून के खेल में मेरी हेठी करने पर आमादा हो तो मैं और उम्मीद भी किससे रखती!