Rasbi kee chitthee Kinzan ke naam - 10 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 10

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रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 10

बेटा फ़िर एक दिन मैंने सोचा कि तूने तो अपने पिता को भी ढंग से नहीं देखा। तू तो छोटा सा ही था कि वो अचानक हम सब को छोड़ कर इस दुनिया से ही चले गए। तू भी तो मन ही मन उन्हें मिस करता होगा। अपने दूसरे दोस्तों के पिता को देख कर कभी न कभी तुझे भी तो उनकी याद आती ही होगी। अपनी मां का अकेलापन और उदासी भी तो तुझे कुछ कहती ही होगी।
मेरे मन में आया कि क्यों न मैं तुझे उनकी याद दिलाऊं। उनके नाम का सहारा लूं। शायद तू अपने परिवार की बदनसीबी देख कर कुछ पिघल जाए और अपना खतरों से खेलने का ये इरादा मुल्तवी कर दे। बेटा, जो जीवित होता है उसकी तो हम कदर नहीं जानते, उसे कुछ नहीं समझते पर कम से कम दिवंगत हो चुके अपनों के लिए तो हम एक भीगा सा सम्मान रखते ही हैं। मैंने यही किया।
मैंने तुझे समझाया कि तू मर मत। जी।
तेरे पिता चाहते थे कि तुझ पर कभी कोई खतरा न आए। और तू आगे बढ़ कर ख़ुद खतरों को चुन रहा था।
मैंने तुझसे कहा कि तेरे पिता जब सागर में शौकिया तौर पर कभी - कभी मछली पकड़ने जाया करते थे तो वे तुझे अपने साथ ले ज़रूर जाते थे पर तुझे पानी से थोड़ा दूर ही बचा कर खड़ा कर दिया करते थे। ताकि तुझे गहरे पानी से कोई ख़तरा न हो।
लेकिन तू मेरी बात सुनकर ज़रा भी नहीं पसीजा। उल्टे मुझसे ही बहस करने पर उतर आया। तू बोला- "मेरे पिता ये तो जानते ही होंगे कि वो जीवन भर मछली पकड़ कर मुझे खिलाने के लिए मेरे साथ तो नहीं रहेंगे। तो उन्हें आख़िर मुझे ख़ुद मछली पकड़ना सिखाना ही होगा। और उसके लिए मुझे पानी में भी जाना ही होगा।"
- छी, अब मैं क्या कहती। ऐसे थोड़े ही होता है।
फ़िर मैंने तुझे याद दिलाया कि पानी बहुत ख़तरनाक चीज़ है। तुझे ये भी बताया कि तेरे मामा की मृत्यु भी पेट में पानी हो जाने से हुई थी। उनका लीवर बिल्कुल खराब हो गया था।
बदमाश! तू मेरी इस बात पर हंस पड़ा था। कुछ समझना तो दूर उल्टे मेरा ही मज़ाक उड़ाने लगा था कि मामा की मृत्यु पानी से नहीं बल्कि शराब में पानी मिला कर ज़्यादा पीने से हुई।
अब बेटा मैं तो सीधी- साधी घरेलू महिला ठहरी। इतनी बहसबाज़ी मैं क्या जानूं। अरे, पर तू भी तो कुल चौदह- पंद्रह साल का छोकरा था, तू भी क्या जाने? क्यों मुझे इतना सताता था।
मेरे तरकश में जितने तीर थे मैं एक- एक करके सब आजमाती। एक रोज़ मैंने तेरे सारे पैसे ढूंढ- टटोल कर छिपा दिए। देखूं, क्या करता है? जब पैसे- टके होंगे ही नहीं तो कोई खुराफात कैसे सूझेगी तुझे। कैसे तैयारी करेगा तू।
हाय! पर ईश्वर भी तो मेरा बैरी और तेरा सगा बना बैठा था। उसी दिन न जाने कहां से तुझे ढूंढती हुई एक औरत चली आई। आकर बोली- अगर तुम मेरे ब्राज़ीलियन पप्पी को अपने मिशन पर अपने साथ ले जाओगे तो मैं तुम्हें दस हजार डॉलर दूंगी।
हाय दैया! ये कहां से टपक पड़ी। तुझे एडवांस के नाम पर कुछ डॉलर और अपना कार्ड थमा गई। बोली- जब तुम्हारी सारी तैयारी हो जाए तो मुझे संपर्क करना मैं अपने डॉगी को ले आऊंगी।
देखो तो! आग में घी डाल गई।
मुझे उस पर तो गुस्सा आया ही, उससे ज़्यादा गुस्सा तुझ पर आया। कैसे चहक- चहक कर बात कर रहा था तू उससे। जैसे मैं नहीं, वो तेरी मां हो।
बेटा मैं सब तरफ़ से हार गई थी। क्या करती, तू ही बता?