Rasbi kee chitthee Kinzan ke naam - 9 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 9

Featured Books
Categories
Share

रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 9

कभी - कभी मुझे तुझ पर जबरदस्त गुस्सा आ जाता था। मैं सोचती, आख़िर तेरी मां हूं। तुझसे इतना क्यों डरूं? एक ज़ोर का थप्पड़ रसीद करूं तेरे गाल पर, और कहूं- खबरदार जो ऐसी उल्टी- सीधी बातों में टाइम खराब किया। छोड़ो ये सब और अपनी पढ़ाई में ध्यान दो। पहले पढ़- लिख कर कुछ बन जाओ तब ऐसे अजीबो- गरीब शौक़ पालना!
पर बेटा, तभी मैं डर जाती। मैं सोचती कि अब मैं इंडिया में नहीं अमेरिका में हूं। इंडिया में तो एक अस्सी साल का बूढ़ा आदमी भी अपने पचास साल के बेटे को डांट सकता है, पर यहां तो जवान होते बच्चे वैसे ही मां- बाप को भुला कर अपनी दुनिया में उड़ जाने को पर तौलते हैं, कहीं तू भी मुझसे नाराज़ होकर कहीं इधर- उधर चला गया तो मैं क्या करूंगी।
यही सोच कर मैं फ़िर तेरी लल्लो- चप्पो में जुट जाती।
पर तू भी ख़ूब था। अपनी धुन में घोड़े पर ऐसा सवार रहता था कि और किसी बात का तुझे होश ही नहीं रहता।
एक दिन बैठे - बैठे मैंने सोचा कि तुझे अपनी मौत से डराऊं। शायद तेरा दिल पसीज जाए। और तू मेरा मन रखने के लिए अपना ज़ुनून छोड़ दे।
मैं उस दिन अपनी एक सहेली को साथ लेकर बाज़ार में ख़ूब घूमी। हम हैलोवीन फेस्टिवल्स के बाद लोगों के फेंके गए डरावने चेहरे और दूसरी चीजें ढूंढते रहे। हम कबाड़ियों के पास भी गए। मैं वहां से भूतों के पुतले, स्केलेटन और कई तरह के खौफ़नाक मास्क भी ख़रीद कर लाई।
रात को मैं ये चीज़ें सजा कर शव की तरह सांस रोक कर लेट गई। डरावना और उदासी भरा संगीत भी बजाया। पर तुझे कुछ फ़र्क नहीं पड़ा।
तू तो जस का तस अपने फितूर के गुंताड़े में लगा रहा। बल्कि मुझे लगा कि तेरे दोस्त अर्नेस्ट ने तो मेरा मज़ाक भी उड़ाया होगा। मैं झेंप गई।
सुबह मैं ही तुम दोनों के लिए कॉफ़ी बना कर लाई। बेचारी मैं!
नहीं नहीं... अब तो हद ही हो गई। जब तुझे मेरी भावना की कोई कद्र ही नहीं है तो मैं भी तेरी फ़िक्र क्यों करूं। एक दिन मैंने गुस्से में आकर अपने हाथ की रकाबी ज़ोर से तुझ पर फेंक दी। चकरी की तरह घूमती वो प्लेट तेरे सिर पर लगी।
लेकिन बेटा, तुरंत ही मेरी आत्मा कलप गई। अदृश्य हवाओं के बीच से चिल्ला कर जैसे मेरे जॉनसन ने मुझे डांटा- रस्बी, क्या करती है? क्या जान लेगी मेरे बेटे की?
ओह गॉड ! मेरा मरा हुआ पति कह रहा है कि क्या फ़िर जान लेगी मेरी दोबारा??? मैं सहम गई। मैं ख़ूब रोई।
मैं अपने मन को समझाती थी कि मैं इतना क्यों डरती हूं? हो सकता है कि तू अपने मकसद में कामयाब ही हो जाए। दुनिया में तेरा नाम हो। ज़रूरी तो नहीं कि जो काम अब तक कोई नहीं कर पाया वो अब भी न हो। आख़िर दुनिया में हर काम कभी न कभी तो पहली बार होता ही है। ये भी तो हो सकता है कि ये कामयाबी तेरे ही नसीब में लिखी हो।
नहीं बेटा नहीं! ये जोश, ये सकारात्मकता थोड़ी ही देर मेरी सहचरी रहती थी फ़िर मैं हार जाती थी।