Rasbi kee chitthee Kinzan ke naam - 6 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 6

Featured Books
Categories
Share

रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 6

जॉनसन से मेरी शादी हो गई। और संयोग देखो, शादी के बाद तुरंत ही एक बार फ़िर मेरा देश छूट गया। हम अमरीका आ गए।
जॉनसन ने मेरा सब कुछ बदल दिया। वो बहुत प्यारा इंसान था।
उसने मेरा मुल्क तो बदला ही, मेरा नाम भी बदल दिया। मैं अब रस्बी हो गई। मैं भी प्यार से उसे जॉनी कहने लगी।
प्यार बड़ी अद्भुत चीज़ है। ये दुनिया की तमाम बातों से आपका ध्यान हटा देता है। ये जीने के दस्तूर ही बदल देता है। आप अपने से ज़्यादा किसी दूसरे के लिए जीने लगते हैं। वो आहिस्ता- आहिस्ता आपके भीतर उतरने लगता है।
उसकी चीज़ें आपके व्यक्तित्व में समाने लगती हैं।
फ़िर उसका जिगर और आपका दिल मिल कर जैसे आपस में होली खेलने लगते हैं।
और... खेल- खेल में एक तीसरी दुनिया आपके भीतर सांसें लेने लगती है।
फ़िर एक दिन ऐसा आया कि हमारी ज़िंदगी में तू आ गया।
तेरे पिता ने तेरा नाम रखा किंजान।
मैं तो देश- देश की बंजारन ठहरी। कुछ समझती नहीं थी। मेरे तो बार - बार नाम बदलते गए। मेरे धर्म बदलते गए, मेरे शहर बदलते गए।
पर बेटा, मेरा ईमान कभी नहीं बदला।
मैं तो इसी में ख़ुश थी कि तेरे नाम में तेरे पिता का नाम भी समाया हुआ है। मैं तो तुझ में समाई हुई थी ही। तूने महीनों तक मेरे पेट में रह कर वक्त गुज़ारा था। तेरी सांसें, तेरी लातें सब मुझे याद थीं।
बेटा, मैं तुझे एक बात ज़रूर कहूंगी कि ज़िन्दगी में सुख- दुख पर कभी दिल मत लगाना। इन पर भरोसा भी मत करना। ये ठहरते नहीं हैं। जैसे आसमान में बादल आते- जाते रहते हैं वैसे ही जीवन में इनका भी आना- जाना होता है, धूप- छांव की तरह।
मैं अभी तेरी पैदायश के सुख- झरने में नहा ही रही थी कि जॉनसन, तेरा पिता, फ़िर मुझे दुनिया में अकेला कर गया। इस बार वो नहीं, उसकी खबर घर लौटी।
लेकिन इस बार मैं अकेली नहीं थी। मेरे साथ तू था।
मेरे एक हाथ में दुखों की पोटली आ गई, दूसरे हाथ में तू।
मैंने तुझे ही अपनी पतवार बनाया और ज़िन्दगी के दरिया में अपनी हिचकोले खाती नाव को लेकर उतर गई।
तेरे पिता इतना तो छोड़ गए थे कि हम दोनों अपना पेट आराम से भर सकें। लेकिन मैंने हमेशा उनके छोड़े हुए धन को तेरी ही अमानत माना। मैं हमेशा कुछ न कुछ छोटा - मोटा काम करके थोड़ा बहुत कमाती रही ताकि अपनी और तेरी परवरिश करने के साथ ही तुझे पढ़ा लिखा कर किसी काबिल बना सकूं।
मैं कभी किसी दुकान में काम कर लेती तो कभी अपने घरों या हस्पतालों में रहते अकेले बुजुर्गों के लिए खाना - पीना और ज़रूरत की चीजें पहुंचा कर कुछ आमदनी कर लेती।
जब तक तू छोटा था तब तक मैं हमेशा यही सोचती रहती थी कि तुझे भी तेरे पिता की तरह सेना में ही भेजूंगी। लेकिन जैसे जैसे तू थोड़ा बड़ा होता गया मेरा भी मन बदलता गया।
तू बहुत प्यारा बच्चा था। मैं चाहने लगी कि मैं तुझे कभी खतरों से न खेलने दूं। सेना के जोखिम भरे काम में तुझे भेजने में भी मेरा मन डरने लगा।