Rasbi kee chitthee Kinzan ke naam - 4 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 4

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रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 4

कुछ ही दिनों में मेरी ज़िन्दगी में एक बहुत मज़ेदार दिन आया। मैं आज भी पूरे दिन इस मज़ेदार दिन की बातें चटखारे लेकर करती रह सकती हूं। ये था ही ऐसा। मेरे जीवन का एक अहम दिन।
इस दिन मैंने एक साथ सुख और दुख को देखा, एक दूसरे से लिपटे हुए।
छोटी सी तो मैं, और इतना बड़ा सुख?
छोटी सी मैं, हाय, इतना बड़ा दुःख??
बेटा, ज़्यादा पहेलियां नहीं बुझाऊंगी, वरना तू खीज कर गुस्सा हो जाएगा। बताती हूं। सब बताती हूं साफ़- साफ़।
हुआ यूं, कि वो जो अच्छे लोग हमारे जेल में आए थे वो हमेशा के लिए मुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे। कितनी अच्छी बात थी। मुझे हमेशा के लिए इस गंदी जगह से छुटकारा मिल जाने वाला था। उन्हीं बड़े अफ़सर ने एक बार फ़िर हमारी मदद की थी और तमाम कागज़ी कार्यवाही करवा कर मुझे दत्तक पुत्री के रूप में साथ ले जाने वालों को तैयार करवाया था। वो लोग यहां से बहुत दूर मुझे अपने साथ ले जाने वाले थे। हमारे संतरी काका कहते थे कि "फ़िर तू मोटर में बैठेगी, रेल में बैठेगी, हवाई जहाज में बैठेगी। स्कूल में अच्छे बच्चों के साथ पढ़ने जाएगी। तुझे अच्छे- अच्छे कपड़े पहनने को मिलेंगे"।
मैं समझ गई। तू यही सोच रहा है न, कि इसमें दुख कहां है? फ़िर दुःख कैसा?
पगले, सुख का ये फूल तो दुख की क्यारी में ही उगा था न। मुझे मेरी मां से अलग होना था। उसे हमेशा के लिए छोड़ कर जाना था। ये दुख नहीं था क्या???
मेरी मां मुझे अपनी गोद में बैठा कर कभी मेरे बालों में हाथ फेरती हुई खिलखिला कर हंसती थी तो कभी मुझे अपने से भींच कर जार- जार रोने लग जाती थी।
मां के लगातार बहते आंसुओं से ही मैंने जाना कि हमारी नाक में केवल गंदगी ही नहीं रहती बल्कि उससे ज़रा ऊपर आंखों में साफ़ पानी का झरना भी बहता है। जिसमें बह कर सब कुछ निर्मल हो जाता है। खारा पानी।
मेरी मां ने मुझे समझाया कि देख, कल सुबह जब तू जाएगी तब मुझे जगाना मत, चुपचाप चली जाना। मैं कल बहुत देर तक सोऊंगी... घोड़े बेच कर।
मैं मां की बात उस समय तो नहीं समझी थी पर अब समझ गई हूं कि घोड़े बेच कर सोना क्या होता है।
मां की आख़िरी बात की मैंने कद्र की, मैं सुबह उसे जगाने नहीं गई और मौसी ने मुझे जैसा तैयार किया था वैसी ही आकर आंटी के साथ मोटर में बैठ गई।
लो, अब मुझे पहली हिदायत यही मिली कि मुझे मां को कभी याद नहीं करना है और आंटी को ही मां कहना है। मां बदल गई मेरी।
बस ये थी मेरी मां से मेरी आख़िरी मुलाक़ात।
मेरे पंख लग गए थे। मैं परी बन गई।
अब मैं नर्म मुलायम गुदगुदे बिस्तर में सोती थी, कई अजब- गजब खिलौनों से खेलती थी, रोज़ ढेरों फल, मिठाइयों, पकवानों के बीच से चुन कर खाना खाती थी, साफ़ - सुथरे सुन्दर बच्चों के साथ पढ़ने जाती थी, रंग- बिरंगे कपड़े पहनती थी और मां को मम्मी कहती थी।
फ़िर? यही पूछना चाहता है न तू? बताती हूं, बताती हूं...