धमनियों के देश में’ परमाणु प्रकाशन ग्वालियर
कर्मशील व्यक्तित्व डॉ भगवान स्वरूप चैतन्य
रामगोपाल भावुक
डॉ चैतन्य कृति ‘‘ धमनियों के देश में’ परमाणु प्रकाशन ग्वालियर से प्रकाशित हो चुकी थी। उस दिन उन्होंने वह कृति मुझे भी भेंट में प्रदान की थी। मेरे लधु भ्राता की तरह जीवन के सुख -दुःख में वचपन से ही साथ रहे हैं। मैं उस समय यह क्यों नहीं सोच पाया कि मैं इतने बड़े व्यक्तित्व के साथ बचपन गुजार रहा हूँ। बात यह रही कि मेरी ही उम्र के इनके बड़े भ्राता नरेश शर्मा जी मेरे दिन- रात के साथी बन गये थे। इसी कारण मैं अनायास चैतन्य जी का बड़ा भाई बन बैठा। रिस्ते मैं इनकी माँ मेरी बुआ लगतीं थीं। उनके चार लड़के थे। बडे नरेश शर्मा, उनसे छोटे भगवान स्वरूप और उनसे छोटे राज कुमार शर्मा और सबसे छोटे भ्राता राजेन्द्र शर्मा हैं। सभी भाई अपनी अपनी प्रतिभा के घनी है। बडे भइया को बचपन से ही फिल्मों का शौक था। वे एक्टर बनकर दुनियाँ में अपना नाम कमाना चाहते थे। दूसरे भगवान स्वरूप जो साहित्य लेखन के सपने देखने लगे थे। तीसरे राजकुमार पुलिस अधिकारी बनकर सेवा करना चाहते थे और चौथे भ्रात उस समय बहूत छोटे थे जो हम बड़ों से दूर ही रहते थे। इसलिये मैं उनकी प्रतिभा को समझने मैं नाकामयाव ही रहा। सभी बच्चे माँ को जीजी कहते थे इसलिये मैंने भी उनकी देखा- देखी शान्ती बुआ को जीजी कहकर बुलाना शुरू कर दिया था।
शान्ती बुआ बड़ी पैनी नजर वाली बोल्ड महिला थी। वे उड़ती चिड़िया को पहिचान ने की छमता रखतीं थीं। हम कुछ गलत करते तो तत्काल पकड़े जाते थे। इसी डर से मैं और नरेश फिल्म देखने जाते जो बड़ी सावधानी बरतते किन्तु उनकी निगाह से बच नहीं पाते थे।
भगवान स्वरूप हम दोनों के इर्द- गिर्द ही मड़राते रहते थे। जब भी वे अकेले होते तो अक्सर सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की बातें किया करते थे। कैसे- कैसे कष्टों में उनका जीवन व्यतीत हुआ। कभी- कभी लय के साथ उनकी कविता सुनाने लगते और कभी मुक्तबोध की रचना ब्रह्मराक्षस को लय के साथ सुना कर भाव विभोर हो जाते। वे कहते इनकी ये कवितायें अतुकान्त हैं फिर भी इन्हें पूरी लय के साथ पढ़ा जा सकता है। उन्हीं दिनों मैं जान गया था कि एक रचनाकार अपने साहित्य के आँगन की तलाश में लग गया है। वे कभी- कभी ऐसी ही अतुकान्त कविता मुझे सुना जाते। मैं सोचता यह क्या पागलपन है। पढ़ने- लिखने के स्थान पर कविता का शौक। इधर मैं भी अपने अन्दर ऐसा ही कुछ नया करने की सोचने लगता था।
किसी कारण बश मैं ग्वालियर से डबरा पढ़़ने के लिये आ गया। बीच- बीच में मैं उनके पास जाता रहा। चैतन्यजी से मेरी निकटता बढ़ती चली गई। सन् 1974 ई में मेरा एक स्वतंत्रता सेनानी जी वाभले जी के जीवन पर आधारित संस्मरण कृति ‘साम्राज्यवाद का विद्रोही’ ग्रामीण अंचल के साहित्य समिति सालवई से प्रकाशित हो गई। उसे भेट करने मैं श्री चैतन्य जी के पास ग्वालियर गया था। उन्हीं दिनों उनकी कृति‘‘ धमनियों के देश में’ परमाणु प्रकाशन ग्वालियर से प्रकाशित हो चुकी थी। उस दिन उन्होंने वह कृति मुझे भी भेंट में प्रदान की थी। उस किशोर अवस्था में लिखी सशक्त कृति पर मैं इस लेख में उसी को आधार मानकर कुछ बातें आप के समक्ष रखना चाहूँगा-
इसके समर्पण में-
मैं
समन्दर के सामने
खड़ा हूँ!
कोई लहर आये!
मुझे बुला ले जाये!!
चैतन्य जी ने इसके माध्यम से पाठकों के समक्ष क्या कुछ नहीं कह दिया। गाँव आकर मैं उसी दिनयह कृति पढ़ने के लिये बैठ गया।
इसे तीन भागों में विभक्त किया गया है। पहला खण्ड तमसा के पार जिसमें उनकी तीस कवितायें समाहित हैं। दूसरे खण्ड घमनियों के देश में आपकी बीस कविताये हैं। तीसरे खण्ड टुकड़ा- टुकड़ा रेगिस्थान में इक्कीस कवितायें हैं। इस तरह इक्हत्तर कविताओं का यह दस्तावेज पाठकों के समक्ष रखा है।
इसमें उन्होंने अपनी बात प्रतीकों के माध्यम से इतनी सहजता से प्रस्तुत की है कि पाठक के लिये यह सहज ग्राह्य हो गई है। सभी प्रतीक इनके काव्य में सहज ही आये हुए प्रतीत होते हैं। वर्तमान परिवेश में वे लोक मंगल पत्रिका का लम्बे समय से सफलता पूर्वक सम्पादन करते चले आ रहे हैं। वे जिस विषय पर कलम चलाते हैं सफलता पूर्वक उसका निर्वाह भी करते हैं।
यों तो चैतन्य जी जीवन भर वीणा-पाणि की साधना में लगे रहे हैं। माँ की आराधना में पहली बन्दना‘ ज्योतिर्मय कर दो! -
मेरे इस भौतिक शरीर में
जीवन प्राण तुम्ही हो।
तेरी ही भेजी यह कविता
तेरी ही भाषा है
तुझे समर्पित कर जाऊँ
यह मेरी अभिलाषा है।
इस तरह वे जीवन के प्रारम्भ से ही सम्पूर्ण समर्पण भाव से साहित्य साधना में लग गये थे।
‘पत्थर के चेहरे पर ’कविता में
जब तक थे गाँव में,
गीत थे,
शहरों में आज हम ‘समीक्षा’ हैं।
और इसी कविता में शब्दों से जीवन के अर्थ मांगते हुए-
पत्थर के चेहरे पर खुदी हुई
कविताएं
मेरी हर भाषा के भाव
जानती है।
कवि ने परिभाषा नयनों की करने का भी प्रयास किया है किन्तु कवि की द्रढ़ता के आगे-
यद्यपि सूरज ने सब,
शर्तों को तोड़ा है।
तो भी पथ पूरब ने
पश्चिम का मोड़ा है।
आओ हम मातम का तम चीरें और जलें
आओ हम कांटों की धरती के देश चलें।
जाने कब दवे पांव?
आता है कोई?-
तार- तार स्मृतियां, दर्पण है मौन।
जीवन का पता पूछ लेता है कौन।
वक्त के धुंधलके में सहमा सकुचाया सा,
कविता के सिंधु
में नाहाता है कोई!!!
हवा......वो की याद में कवि व्याकुल है-
पर्त- पर्त जमते रिश्ते
जाने क्यों गर्त हो चले,
खामोसी, समझोते, दांव
जीने की शर्त हो चले।
नेह का गुलाल पोंछती
हवा वो कहां चली गई?
व्यवस्था से त्रस्त हैं, और हम खमोश है!
गीत: झुलसे पंख की लम्बी कथा है
यात्रा के बीच हम कैसे सुनायें?
आचरण के कोष तक खाली हुए हैं,
वक्त से हम क्या उधारें, क्या चुकाए?
पत्थरों में चेतना पाई गई है,
घरों में बारूद के कैसे रहें हम?
दर्द तिनकों का यहां किससे कहें हम?
यह रचना आज के परिवेश में भी उस समय का आइना दिखने का कार्य कर रही है।
सच है कवि-वाणी में
अमृत बसता है
लेकिन
कवि होना
क्या इतना सस्ता है।
कवि अपनी युवा अवस्था में ही कवि के दाइत्व से परिचित हो गया था। इसी कारण उनकी कलम वहुत सोच विचार कर चली है। संकलन की प्रत्येक कविता अपना अस्तित्व इतने लम्बे अन्तराल के वाद भी आज भी बनाये हुए है। घरोंदे में फेंक गया पिछवाड़े, शंकाए कौन? जैसे प्रश्न हमारे सामने रखते हुए वे अशेष की कथा कहने लगते हैं-
सूख गई जीवन की सरसता- लता!
कहने दे! शेष को अशेष की कथा!!
हम मंसूवे बाँध कर चलते हैं किन्तु मंहगे हैं सम्बोधन- सम्बोधन मंहगे हैं किन्तु आदमी सस्ता है। में- फर्जों को ओढ़ खूब
सजता है आदमी।
कुर्सी की महिमा को
भजता है आदमी।।
रचनाओं का पाठ करते हुए मन ‘ कैसे करे कपोती प्यार ’ पर आकर ठहर जाता है-
छली आस्था के घर जाकर,
सोया है विश्वास, बिछाकर
वेद और श्रुतियों का सार।
आओं! फिर से करें विचार,
जहरीली बह रही बयार।
कैसे करे कपोती प्यार?
अंतिम पहर है रचना में-
कान बहरे हैं हवा के
सनसनातीं गोलियाँ
मृत्यु खुद कहने लगी अब,
ये शहीदों का नगर है!
रात का अंतिम पहर है।
कवि व्यवस्था से पूरी परह निराश नहीं है-
एक बूंद मौती बस, एक बूंद मौती!
पंक्ति - पंक्ति गीतों में भावना पिरोती!! जैसी रचनायें भी पाठक को सचेत कर उसे आगे बढ़ने का सन्देश दे रही है।
आज हमारी एकता का राज तिमिर- पताका में कवि ने पहले ही धोषित कर दिया था-‘ यहां एकता
आज हमें केवल आतंक समेटे है।
डाल- डाल और पात - पात पर
चुगलखोर बैठे हैं।!!
प्रथम खण्ड के अन्तिम पायदान पर-
हर शहादत के लिये तैयार हर पल ये जमीन।
आजमाने जो गये थे, आजमाकर आ गये।।
और यही से द्वितीय खण्ड ‘धमनियों के देश में’ अपनी दस्तक देता है-‘
धरती से अम्बर तक
ये कैसी आवाजें?
आज बुलाती मुझे
जरा सुनने दो!
इसी रचना में- मैं सुनहरी- भावना की वकालात
करता नहीं हूँ।
भेडियों की इस अदालत से
कभी डरता नहीं हूँ।
कोई नहीं छल सकता!! में भी वही दर्द-
शब्दों की व्यथा- भूमि
बहुत उर्वरा होती है,
क्विता को नये बीज
बोने तो दो!
इस तरह कवि कविता की तलाश में कवि जीवन के प्रारम्भ से ही लग गया था। उनकी यह अनवरत यात्रा आज भी चल रही है। वे आदमी की तलाश में भी उसी तरह लगे रहे हैं-
नहीं, तुम !
आदमी नहीं हो!
काश! तुम आदमी होते!!
आदमी तो एक वृत होता है
जिसका नाभिक सम्पृक्त होता है
वे मृत्यु से लड़ते हुए भी दिखाई देते हैं-‘
शरीर!
तुम अस्ति- रक्त और चर्म
की मिश्री हो
तुम्हारी मिठास का सुख
मुझे ही नहीं
मेरे सहधर्मियों को भी है।
इस तरह वे बड़ी- बड़ी बातें इतनी सहजता से कह जाते हैं कि सारे अर्थ पाठक के हृदय को एक साथ अपनी मिठास से रू-ब-रू करा देते हैं। चाहे उनकी ये किसकी आँखे हैं? अथवा इतिहास रह जायेगा रचना हो तथा प्रश्नचिन्ह? हो ऐसी ही सहज बातें पाठक के मन को बाँधे रहने में सफल हैं।
अब हम ‘धमनियों के देश में’ चलें-
ओढ़ कर परछांइयाँ
कुछ शूल
जो मग में गड़ गये हैं,
चिलचिलाती धूप में
इतिहास हम उनका पढ़ें।।
धमनियों के देश में’
आओ चल!!
अब हम शब्द की नोंक पर बातें करें
‘शब्द’ एक स्वतंत्र अस्तित्व है।
जो बे- खौफ आगे बढ़ता है।
समय आने पर, अपनी
परछांई से भी लड़ता है।
धमनियों में तैरते सवाल हो, चाहे गिरे हुए गर्भगीत हो अथवा बृहस्पति के बेटों के नाम- जहर अगर फैलेगा
जहर उसे मारेगा,
जहर एक जहर है?
वह एक दवा भी
वे स्वाद के विरुद्ध लड़ते हुए दिखई देते हैं। वह पेड़ की याद में भी रचना लिख जाते हैं
तृतीय खण्ड- टुकछ़ा -टुकड़ा रेगिस्थान में छणिकायें अथवा छोटी -छोटी रचनाओं के माध्यम से अनुभूतियों से सरावोर बीस रचनाओं का संकलन है।
इस संकलन की सभी रचनायें पाठक की मानसिक चेतना को झकझोरने में समर्थ हैं। वे शुरू से ही एक सफल कवि के रूप में हमारे सामाने रहे हैं।
वे एक शिक्षाविद के रूप में हमारे सामने हैं। पी.एच. डी. करने के वाद ही उनकी नियुक्ति ग्वालियर नगर के प्रसिद्ध विद्यालय गोरखी में शिक्षक पर पर हो गई थी। उसके बाद ने केन्द्रिय विद्यालय में चले गये । वहाँ अन्डमान नीकोवार में प्रचार्य के पद पर कार्य करते रहे। उन्हें वह नौकरी भी रास नहीं आई। वे म.प. साहित्य अकादमी भोपाल के तुलसी साहित्य अकादमी भोपाल में निर्देशक के पद पर नियुक्ति हुए। वे अखिल भारतीय भवभूति समारोह में डबरा आये और मेरे घर पर मुझ से मिलने चले आये। आते ही बोले- ‘भावुक जी आपने रत्नावली पर कहानी लिखी है, जो स्वदेश अखवार में प्रकाशित हो चुकी ह,ै उसे मुझे दीजिये।’
मैंने कहा-‘ वह कहानी उपन्यास का रूप धारण कर चुकी है। दस वर्ष से मेरे बक्शे में पड़ी है।’
वे बोले-‘ मुझे देखने को मिल सकती है।’
मुझे उनकी बात बहुत अच्छी लगी। किसी ने उसे देखने के लिये तो माँगा। मैंने रत्नावली की पाण्डुलिपि अपने बक्शे में से निकालकर उसकी धूल झड़ाते हुए उन्हें दे दी। वे उसे लेकर चले गये। कुछ दिनों वाद उनका फोन आया-‘ भावुक जी आपके रत्नावली उपन्यास को तुलसी साहित्य अकादमी प्रकाशित करना चाहती है।’
मैंने कहा-‘ अरे! कृति ,इतनी अच्छी लगी आपको।’
वे बोले-‘ आप उसे लिखकर भूल गये थे। किन्तु अब यह मुझ जैसें जौहरी के हाथ पड़ गई है। उसके साथ न्याय तो करना ही पड़ेगा।’ उसके बाद वह तुलसी साहित्य अकादमी से प्रकाशित की गई है। इसके सम्पादन का दाइत्व आपने ही सँभाला है। उन्होंने इसे विश्व के प्रमुख मंचों तक पहुँचाया है। एक गाँव गलियारों में पड़े साहित्यकार के पंख लग गये। उनके सहयोग से अभी तक सौ सव सौ पत्र देश के वड़े बड़े साहित्यकारों के मेरे पास उपलब्घ है। जिनमें रागदरवारी के सुप्रसिद्ध व्यंगकार श्री लाला शुक्ल और बदी्रनारायण तिवारी जैसे साहित्य कारों के पत्र समाहित है। इसका संस्कृत अनुवाद पण्डित गुलाम दस्तगीर विराजदार जी ने किया है जिसे बनारस फोर्ट से निकलने वाली संस्कृत की पत्रिका ‘विश्वभाषा’ में घारा वाहिक रूप से प्रकाशित किया जा चुका है। इसके लिये वर्ष 1998 ई. में तुलसी उत्सव में दादा मुकुट विहारी सरोज की अध्यक्षता में मुझे मानस सम्मान प्रदान किया गया था।
उसी भवभूति कार्यक्रम में मैं उनके साथ भवभूति की पद्मावती नगरी पवाय देखने के लिये गया था। यों तों मैं वहाँ भवभूति की खोज में वचपन से ही जाता रहा हूँ। वहाँ डबरा के कुछ मित्रों द्वारा मालतीमाधवम् के एक प्रसंग पर नाटक भी खेला गया था। हम दोनों पास- पास बैठे उस नाटक को देख रहे थे। चैतन्य जी बोले-‘ आप का वचपन से ही इस धरती से लगाव रहा है। आप उपन्यास लेखक हैं। आपको तो भवभूति के जीवन वृत पर एक उपन्यास लिख डालना चाहिए। मैं उसके प्रकाशन का जुम्मा लेता हूँ। ’उनकी बात सुनकर मैं सोच मैं डूव गया। क्या कहूँ, वहीं से भवभूति के उपन्यास का तानावाना बुनना शुरू हो गया। चैतन्य जी भवभूति के मित्र के रूप में, भगवान शर्मा पात्र बनकर आज भी मेरे इस उपन्यास में देखे सकते हैं। उसमें उनकी बोला-वानी, उनका दर्शन आदि से रू-ब-रू हो सकते हैं।
मुझे याद आ रहा है ,रत्नावली उपन्यास प्रकाशित हो गया था। उसका रतलाम के जतरा मेला में लोकापर्ण भी चैतन्य जी ने देश के प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के कर कमलों से कराया था।
इसके कुछ ही दिनों बाद मैं उनके पास भवभूति उपन्यास की पांडुलिपि लेकर पहुँच गया। उन्होंने अपने मित्र दीपक गुप्ता जी को इस उपन्यास के प्रकाशन के सम्बन्ध में फोन किया। वे उसे प्रकाशित करने के लिये तैयार बैठे थे। इस तरह उसका प्रकाशन हो गया।
चैतन्य जी की यह एक कहानी है, उन्होंने मेरे जैसे पता नहीं कितने साहित्यकारों को देश के सामने रखने का सफल प्रयास किया है और लोक मंगल पत्रिका के माध्यम से आज भी इस क्रम को आगे बढ़ाते जा रहे हैं।
आज भी लोक मगल पत्रिका के हर अंक को किसी न किसी साहित्यकार को विशेषांक के रूप में प्रस्तुत करते चले आ रहे हैं। शायद उनका जन्म ऐसे ही कई कार्यों के लिये हुआ है। इसके लिये वे बहुत बहुत बधाई के पात्र है।
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सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा) भवभूतिनगर
जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110
मो0 9425715707,