अगले दिन महाराष्ट्र में राजकीय छुट्टी थी। एक पूरा दिन क्या किया जाये ... प्लान तैयार हो गया कि एलेफंटा जाया जाए। ट्रेनर रोपड़े सर और खन्ना सर ने ही सजेस्ट किया वे सब लोगों के अनुरोध पर खुद भी साथ चलने को राज़ी हो गए।
तक़रीबन एक घंटे की समुद्री यात्रा धीरे–धीरे उबाऊ होने लगी थी। लल्लन सोचने लगा कोलंबस, वास्कोडिगमा और मैगलन जैसे दिलेर जहाज़ी किस कूबत और सब्र से महीनों-महीनों अछोर महासागरों में कुतुबनुमा यानी कम्पास के बताए मार्ग पर यात्रा करते होंगे। समुद्र का खारा पानी, बदमिजाज मौसम, शरारती लहरें, समुद्री डाकू का खतरा; इन सबसे सामना करते हुये, वे साहसी जहाज़ी कुछ नया तलाश करने की ख़्वाहिश में हर दिन जीवन और मौत से कैसे खेलते होंगे!
वे सच में महान थे।
सच में उन महान जहाजियों की जिजीविषा कमाल की थी। तब तो कोई डिस्कवरी या नेशनल ज्योग्राफी वाला कैमरा भी नहीं होता था, जिसके जरिये उनके नायकत्व को रिकॉर्ड कर टीवी पर विज्ञापन के साथ ब्रॉडकास्ट किया सके और मिलियन्स एंड मिलियन्स डॉलर कमाए जा सके।
लल्लन ने देखा कि फ़ेरी पर सऊदी अरेबिया के भी कुछ लोग थे जो अरबी में बात कर रहे थे। वे सैलानी थे।
वे आपस में अरबी में बात कर रहे थे , जिसे कुछ देर तक लल्लन उर्दू समझता रहा लेकिन एक भी अल्फ़ाज़ दिमाग में न घुसा तो समझ गया यह उर्दू की बड़ी ख़ाला ...अरबी ज़ुबान है।
शबाना वहीं पर थी। शबाना शेख़...लल्लन की बैचमेट। खिलता हुआ रंग , दरम्याना कद, थोड़ी संजीदा स्वभाव वाली लेकिन बड़ी ही नेक दिल , और लड़कियों की तरह दिखावा या ख़ुद को अति आधुनिक दिखाने की होड़ में नहीं रहती थी। वह पूरे बैच की ‘बड़ी दी’ थी। इसलिए सब उससे बेलाग बात कर लेते थे।
“शबाना दी ...देखो तुम्हारे दूर के रिश्तेदार क्या बात कर रहे हैं , जरा हमें भी समझाओ।” वीरू और कुणाल विश्वास ने मज़ाक में कहा।
“अंता सव्वी फ़तुर” एक अरबी नौजवान को उसके साथ की महिला पूछ रही थी। वे सैलानी आपस में अरबी ज़ुबान में वार्तालाप कर रहे थे।
उनकी बातों को शबाना वीरू और कुणाल विश्वास को धीमे –धीमे स्वर में अनुवाद करके बता रही थी। उनकी गुफ़्तगू में लल्लन भी शामिल हो चुका था ।
“ शबाना दी , तुम्हें अरबी आती है?”
“क्यों नहीं भाई जान ! जेएनयू से अरेबिक लैड्ग्वेज में सर्टिफिकेट कोर्स कर रखी हूँ।“ यह कहकर वह लड़कों के ग्रुप से लड़कियों के ग्रुप की तरफ चल दी।
अचानक लल्लन के दिमाग में ऐसे ही एक निकम्मा जैसा सवाल रेंग गया , उसने वीरू से पूछा (क्योंकि उसे लगता था वीरू तो आईएएस की तैयारी करता था ऐसे सवाल का जवाब जरूर वह दे पाएगा।)
“वीरू , बता अगर अभी यह बोट डूबने लगे तो इसका जो मुख्य चालक है वह इंडियंस को बचाएगा या इस अरेबियन्स को।”
उसने बेधड़क कहा, “अंतरराष्ट्रीय समुद्री क़ानून कहता है जहाज के कैप्टन को समुद्र में फँसे हर व्यक्ति को बचाना होता है। उस वक़्त यह नहीं देखा जाता है कि वो किस देश का नागरिक है।“( यानी उसने सिद्ध कर दिया कि वह आईएएस की परीक्षा की तैयारी करता था)
लल्लन और वीरू के बीच कुणाल विश्वास भी था उसे तो बस बात की दरार में शायरी की ऊंगली करने की आदत थी।
“कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊंगा ;
मैं तो दरिया हूं समुंदर में उतर जाऊंगा।।“
“वाह वाह, वाह वाह ! किसका शेर है? ओ शेरों –सुख़न के जेब क़तरे!” यह शबाना ही थी। जिसे वह सब की तरह ‘दी’ बोलता था।
“नदीम कासिम का!” बहुत कम बार ऐसा होता है जब केवी (कुणाल विश्वास) अशआर ( शे’र) के असली शायर का नाम बताता है। लेकिन शायद लोग समुंदर में झूठ बोलना पसंद नहीं करते। कहते हैं समुंदर नाराज़ हो जाता है।
दूध-सी गोरी सुष्मिता और चाय-सी साँवली दिव्या दोनों फ़ेरी की छत की एक छोर पर टाइटैनिक वाले पोज में सेल्फी ले रही थीं।
‘देख इन छोरियों को धूप में क्रीम –पाउडर आइस क्रीम की तरह पिघलने लगे हैं। हमारे हरियाणे में एक कहावत है, “घी सुधारै खीचड़ी, अर्र बड्डी बहू का नाम।”
उसके बगल वाला एक अंजान लड़का उसकी बात पर हंसा , उसने आगे कहा , “ देख छोरियाँ छोरियों पर बहक रही हैं। भाई, यहाँ छोरे कम है के! बोल तो हम आ जाते हैं। टाइटैनिक वाले पोज ही नहीं सीन के लिए भी तैयार हैं।”
यह जिस हरियाणवी लड़के ने बोला उसके पीछे ही रोपड़े सर खड़े थे। रोपड़े सर उसे घूरते हुये गुस्से से बोले , “ माइंड यूअर लैंगग्विज बजरंग , Now you are not a college student. You are going to be a responsible banker. Be respectful.”..... ( उपन्यास नालंदा प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित है एवं अमेज़न पर उपलब्ध है...लेखक :- गौतम कुमार सागर)