{ एक माँ ने क्यों और किस संकल्प के साथ उसका हाथ थामा ?
दिशा देती एक कहानी .....
सोचने को मजबूर करती एक कहानी .... }
" साले तेरी इतनी हिम्मत " मेरा हाथ उसकी शर्ट के कॉलर पर कस चुका था। मैंने उसे खींचकर बर्थ से नीचे घसीट लिया। जो गालियाँ कभी मुँह बंद करके नहीं दी होंगी, वह सारी गालियाँ ज़ुबान से फिसलती चली गईं। " हरामजादे, इस चलती ट्रेन से नीचे फेंक दूंगी। समझता क्या है अपने आप को ? " कहते हुए दो चार हाथ भी जड़ दिया उसके मुँह पर।
मेरा वह चंडी रूप, आज भी याद है मुझे। क्या वास्तव में मैं ही थी ?
कुछ वर्षों पूर्व मैं रीना देसाई अपने बच्चों के साथ गर्मी की छुट्टियों में अपने भाई के घर नोएडा गई हुई थी। मेरे दो बच्चे हैं। 11 साल का बेटा सुशांत और 9 साल की बेटी सुमी। कहने को तो सुशांत बड़ा है लेकिन बहुत ही सीधा, सरल या यूँ कहें कि थोड़ा बुद्धू ही है, साथ ही अपनी उम्र से छोटा भी लगता था। जबकि सुमी अपनी उम्र से 3-4 साल बड़ी ही लगती थी। समय जैसे पंख लगा के उड़ चला और हमारी वापसी का दिन आ गया। उस दिन मैं पहली बार अपने दोनों बच्चों के साथ ट्रेन द्वारा रात का सफर अकेले करने जा रही थी। सच कहूँ तो दिल ही दिल में घबरा भी रही थी, उसमें डर का तड़का लगाया मेरे भाई ने -" दीदी आते समय तो तुम दिन में आ गई थीं। चलो दिन का सफर तो अकेले चलता है मगर रात में तुम इन दोनों को अकेले कैसे लेकर जाओगी खासकर जब कि तुम्हारे साथ सुमि भी है। मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ। " यह बात होगी आज से लगभग 18 वर्ष पूर्व की। समय का यह वो दौर चल रहा था जब किसी लड़की के माता-पिता का डरना लाजमी था। वह भी उत्तर प्रदेश में। जी हाँ ! उसी दौर में मुझे अपने बच्चों के साथ दिल्ली से लखनऊ तक का रात का सफर ट्रेन द्वारा तय करना था वह भी अकेले। खैर..... मैंने हिम्मत दिखाई। भाई को मना किया और रात की 11:00 वाली ट्रेन में सुशांत और सुमी के साथ बैठ गई। रात के लगभग 12:00 बजे होंगे। ट्रेन अपनी रफ्तार पकड़ चुकी थी। रफ्तार के साथ मेरी भी घबराहट कुछ बढ़ती ही जा रही थी। एसी थ्री टियर के डब्बे में सुशांत सबसे ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ा और कब नींद के आगोश में चला गया पता ही नहीं चला। साइड वाली बर्थ पर ऊपर नीचे हम माँ बेटी लेट चुके थे। बचपन बड़ा ही मासूम और बेफिक्रा होता है। ऊपर लेटे-लेटे ही हाथ बढ़ाकर सुमि मुझे छू रही थी और तंग कर रही थी। मेरे मना करने के बावजूद वो अपने हाथ को नीचे झुलाती रही। उसे तो जैसे कुछ सुनना ही नहीं था। तभी अचानक सामने की बीच वाली बर्थ से एक हाथ आया और उसने सुमि को छूने की कोशिश की। माँ हूँ ना सो डर का एहसास तो बराबर बना ही रहता है इसीलिए पूरी तरह चौकन्नी भी थी। सो उस वक्त गाली से शुरू हुई बात थप्पड़ पर भी नहीं रुकी।दरअसल वो लड़का अपने होशो हवास में नहीं था। उसने इतनी पी रखी थी कि वह बाकायदा लड़खड़ा रहा था और मैं घायल शेरनी सी उस पर आक्रमण किए जा रही थी। क्या हुआ ? क्या हुआ ? की आवाजों के साथ उस बोगी के लोग मेरी तरफ से खड़े हो चुके थे। भीड़ उस लड़के पर अपना गुस्सा निकालती उससे पहले समय की नज़ाकत को देखते हुए उसके दोस्त ने मेरे पैर पकड़ लिए। " बहन जी ! इसने बहुत पी रखी है। ये अपने होश में नहीं है। मैं इसकी तरफ से आपसे माफी मांगता हूँ। इसे छोड़ दीजिए। अब यह कुछ गलत नहीं करेगा, यह मेरी जिम्मेदारी है। " उसकी गिड़गिड़ाहट और भीड़ का गुस्सा मुझे शांत कर गया। मैंने उस लड़के से बस इतना कहा -" कि अगर इसको सफर करना था तो इसको पीने की जरूरत क्या थी ? " उस भीड़ में लखनऊ विश्वविद्यालय के कुछ लड़के थे। उन लोगों ने मुझे आश्वस्त किया कि हम सब हैं आप निश्चिंत होकर सो जाइए। उस दिन मेरा यह विश्वास और भी गहरा हो चला कि बुराई के ऊपर अच्छाई का पलड़ा आज भी भारी ही है। इन मुश्किल पलों में सुशांत अभी भी गहरी नींद के आगोश में ही झूल रहा था। मैंने उसे उठाने की कोशिश करी पर वो नहीं उठा। यह भी था तो मासूम बचपन ही। सुमि को क्या और कितना समझ आया पता नहीं लेकिन वह बेहद डर चुकी थी, तो वह नीचे आकर मुझसे चिपक कर सो गई। सुमि को अपनी बांहों में समेटे आहिस्ता-आहिस्ता मेरी सांसे भी अब सहज हो चली थीं। भागती ट्रेन के अंदर के उस सन्नाटे में पटरियों की खटर-पटर खटर-पटर अब सुनाई पड़ने लगी थी। उसी के साथ मेरा मन भी धीरे-धीरे अपने अतीत की गहराइयों में डूबने लगा था।
गर्मियों के दिन थे जब 2 महीने की पूरी छुट्टी हम लोगों को अपने बचपन में मिला करती थी। उसमें हम भाई बहनों का एक बड़ा ही प्यारा सा खेल हुआ करता था। हम लोग दो तीन चादर लेकर एक छोटा सा घर बनाते थे और उसी में बैठकर छोटे-छोटे बर्तनों में खाना पकाते थे। एक पूरा दिन उस कमरे में ही गुजारते थे। " माँ माँ! देखो ना ... अरुण भैया मुझसे क्या बोल रहे हैं ?" रोटी बेलते बेलते बिना मेरी और देखें माँ बोलीं -" क्या बोल रहे है ?" मैंने कहा- " माँ ! वो कह रहे हैं जो हम लोगों ने घर बनाया है ना चलो हम लोग उसमें मम्मी पापा बन कर सो जाते हैं।" रोटी सेकते हाथ एकाएक थम गए। " वो गंदा है। मत खेलो उसके साथ। तुम अंदर चलो। " माँ मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अंदर ले जाने लगीं। मैं खेलने के लिए मचलने लगी तो एक थप्पड़ भी मेरे गाल पर छप गया। तब मैं मात्र 5 वर्ष की थी। मुझे माँ का यह रूप समझ नहीं आ रहा था। अरुण मेरे बड़े भाई का बहुत गहरा दोस्त था। वह दोनों शाम तक खेलते रहे साथ में मगर मेरी माँ ने मुझे साथ में खेलने नहीं दिया। उल्टा मुझे ही डांटा। एक हिदायत मुझे अलग से मिली " अब से अरुण जब भी आएगा तो तुम अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलोगी। क्यों ? इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिला। घर मेरा था सो मुझे यह नहीं समझ में आया कि भैया के दोस्त को घर में आने से मना करने के बजाए मुझे मेरे ही घर में अपने कमरे से निकलने पर पाबंदी लगा दी। क्यों ? इस सवाल का जवाब ढूंढते ढूंढते अब तक मैं रो-रो कर सो चुकी थी। धीरे-धीरे समय चलता रहा और मैं भी बड़ी होती गई। अलग-अलग समय पर अलग-अलग बंदिश। ये बात मेरी समझ के तो बाहर थी। हाँ! मेरे साथ एक बहुत अच्छी बात यह हुई कि तमाम बंदिशों के बाद भी मेरे अंदर के कलाकार को मेरे माँ-बाप ने कभी मरने नहीं दिया। सातवीं कक्षा में पहुँची तो मुझे पहली बार मंच पर गाने का मौका मिला। मेरी आवाज और सुर दोनों ही सुरीले थे। मेरे इस शौक को एक आयाम दिया मेरे माँ बाप ने। जैसे-जैसे बड़ी हुई तो मुख्य गायिका के तौर पर ऑर्केस्ट्रा का हिस्सा बनी और धीरे-धीरे गायन प्रतियोगिताओं में मुख्य जज भी बनकर जाने लगी। मगर अकेले नहीं माँ के साथ। दरअसल मेरी माँ तो खुले विचारों की थी पर मेरे पापा और मेरी दादी थोड़ा संकीर्ण विचारों वाले थे। उन्हें लड़की का अकेले जाना या बहुत लोगों में अकेले बैठना नहीं पसंद था। विद्यालय स्तर पर टेबल टेनिस में डिस्ट्रिक्ट स्तर पर चैंपियन बनी जिसकी वजह से मुझे स्टेट खेलने का भी मौका मिला और एस्टेट खेलने गई भी लेकिन अपनी माँ के साथ। जब मैं एम• ए• में पहुँची तो बॉस्केटबॉल के लिए विश्वविद्यालय की टीम में मेरा चुनाव हुआ। चुनाव हो जाने के बाद वहाँ से मुझे अपना नाम वापस लेना पड़ा क्योंकि मुझे मेरे पापा की सहमति नहीं मिली। कारण विश्वविद्यालय में तो लड़के भी होंगे, तो लड़कों के साथ कैसे खेला जा सकता है? यह बंदिशे क्यों थी ? मेरे माँ-बाप को मुझ पर यकीन नहीं था या एक लड़की के माता-पिता होने का डर उनके अंदर व्याप्त था। मुझे समझ नहीं आया मगर हाँ, इस सब के कारण मैं अपना आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जरूर खो चुकी थी। तीन पीढ़ी की लड़ाई और अपने वजूद को पहचानते पहचानते ही मेरी शादी की उम्र ने भी मेरे दरवाजे पर दस्तक दे दी और एक दिन मैं विवाह बंधन में बंध कर अपने पति के घर आ गई। नया माहौल, नए रिश्ते, नए एहसासों के बीच मैं सैकड़ों पंख लगा उड़ने लगी। बमुश्किल चार-पाँच दिन ही गुजरे होंगे कि एक दिन शाम को मैं, मेरे पति और उनके कुछ दोस्त बाजार में घूम रहे थे। किसी मनचले ने मुझ पर कोई जुमला कसा और हाथापाई की नौबत आ गई। कोई नई बात नहीं थी। लड़की होने के कारण यह सब कुछ तो शादी से पहले भी होता ही था मगर मेरे लिए जो नया था, वह था मेरे पति का मुझ पर भरोसा और विश्वास। कोई बंदिश नहीं थी। किसी ने भी उस छींटाकशी के लिए मुझे जिम्मेदार नहीं ठहराया। उस दिन पहली बार मेरा मन आत्म-सम्मान से भर उठा। ज़ाहिर सी बात है जब कोई भी व्यक्ति अपने आप को सम्मान की दृष्टि से देखने लगता है तो उस पल उसका खुद पर विश्वास कर पाना भी सम्भव होता है। जैसा कि मेरे साथ हुआ।
अचानक मुझे लगा कि जैसे कोई फुसफुसा रहा है। वो फुसफुसाहट धीरे-धीरे बढने लगी और शोर में तब्दील होती चली गयी। कोई मुझे उठा रहा था। मेरी आँख खुल गयी। देखा वही बच्चे थे जिन्होंने मुझे सो जाने के लिए बाध्य किया था। पटरियों की खटर पटर अब धीमे पड़ने लगी थी। मेरी ट्रेन स्टेशन पर पहुँचने ही वाली थी। कब अतीत को जीते जीते एक पूरी रात गुज़र गयी पता ही नहीं चला। स्टेशन आ चुका था। कुली ने सामान नीचे उतारा। मेरे पति हमें लेने आए थे। दोनों बच्चों का हाथ थामे मैं रीना देसाई बड़े ही आत्मविश्वास के साथ उस ट्रेन से नीचे उतरी और एक संकल्प के साथ उतरी कि मैं अपनी सुमि को उसके आत्म सम्मान के साथ जीना सिखाऊंगी। हाँ ! मैंने अपनी सुमि का हाथ ज़रूर थामा था मगर बिना किसी बंदिश के।
आज इतने वर्षों बाद रीना के संकल्प ने सुमि को एक सुलझा व्यक्तित्व प्रदान किया है। आज सुमि नज़र और नीयत को समझने में सक्षम है साथ ही स्त्रीत्व की सुरक्षा के लिए स्वयं लड़ाई लड़ने की हिम्मत रखती है।
नीलिमा कुमार