Aiyaas - 12 in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | अय्याश--भाग(१२)

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अय्याश--भाग(१२)

उस औरत के पति के सवाल पूछने पर सत्यकाम कुछ अचम्भित सा हुआ फिर बोला....
जी! मैं दीनानाथ जी का ही भान्जा हूँ ।।
मैं शुभेंदु चटोपाध्याय और ये मेरी पत्नी कामिनी,तुम्हारे मामा दीनानाथ मेरे पिता के मित्र हैं,वें बोलें।।
अच्छा...अच्छा...बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर,सत्या बोला।।
लेकिन तुम यहाँ कैसैं? सुनने में आया था कि दीनानाथ जी ने तुम्हें घर से निकाल दिया था,शुभेंदु जी ने पूछा।।
जी! शायद मुझे कारण बताने की आवश्यकता नहीं है,आपको तो कारण मालूम ही होगा,सत्यकाम बोला।।
पता तो है,तुमने इतना गलत काम करके ठीक नहीं किया था? शुभेंदु जी बोले।।
गलत काम....आप भी उसे गलत काम कहते हैं,घर के सदस्यों का मृत शरीर पड़ा रहे और कोई भी उनका अन्तिम संस्कार ना करें,मैनें कर दिया तो वो गलत काम हो गया,आप भी अन्धेर मचा रहें हैं चटोपाध्याय बाबू! सत्या बोला।।
समाज में रहकर समाज वालों से बैर लेना ये कोई समझदारी तो नहीं,शुभेंदु जी बोले।।
मतलब मृतकों का अन्तिम संस्कार ना करना उसे आप समझदारी कहते हैं,सत्या बोला।।
मेरे कहने का ये मतलब नहीं था,शुभेंदु जी बोले।।
मैं सब समझ गया कि आप क्या कहना चाहते हैं? कि मैं अपराधी हूँ! सत्या बोला।।
जो समाज के विरुद्ध कार्य करें वो अपराधी ही माना जाता है,शुभेंदु जी बोले।।
जी!मैं ऐसा ही हूँ,मुझे अगर कोई बात बुरी लगेगी तो मैं उसके खिलाफ जरूर आवाज़ उठाऊँगा,फिर दुनिया मुझे कुछ भी कहती रहे,मेरी बला से,सत्यकाम बोला।।
समाज के विरुद्ध जाकर तुम सबकी नज़रों में गिर चुके हो,शुभेंदु जी बोले।।
लेकिन मैं तब भी खुश हूँ,सत्या बोला।।
समाज से अलग रहकर कोई खुश नहीं रह सकता,शुभेंदु जी बोले।।
कोई बात नहीं,मुझे ऐसे समाज की कोई जरूरत नहीं,सत्या बोला।।
तुम्हें समाज की जरूरत नहीं है तभी तो तुम एक तवायफ़ के साथ इस धर्मशाला में ठहरें हो,अब शुभेंदु जी की पत्नी कामिनी बोल पड़ी।।
ये सुनकर फिर सत्या कुछ ना बोला और वहाँ से जाने लगा तभी कामिनी फिर से बोली....
अब कहाँ चले? अभी तो जुबान बड़ी चल रही थी,अब बोलती क्यों बंद हो गई?
तुमसे कहा था ना कि किसी को कुछ मत बताना,लेकिन तुम्हारे पेट में कोई बात हज़म ही नहीं होती,शुभेंदु जी ने अपनी पत्नी कामिनी को डाँटते हुए कहा....
अच्छा....तवायफ़ के साथ रहे वो और जुबान मुझे बंद करनी चाहिए,कितना अंधेर करते हो जी! अय्याश हैं...अय्याश...वो कभी ना सुधरेगा,ऐसा ना होता तो घरवाले घर से ना निकालते,कामिनी बोली।।
मैं ने कहा ना चुप करो,शुभेंदु चटोपाध्याय बोले।।
मैं चुप ना रहूँगी,मैं थोड़े ही गलत काम कर रही हूँ,जो गलत काम करें वो ही चुप रहे,मेरा तो मसाला पिस चुका है,सिलबट्टा खाली हो गया है अब जिसे पीसना हो वो मसाला पीस लें और तुम क्या उसे मसाला पीसते हुए देखोगे?चलो तुम भी भीतर चलों और फिर इतना कहकर कामिनी अपने पति के साथ अपनी कोठरी में चली गई।।
सत्या भी कोठरी मेँ चला आया,तब पहले से कोठरी में मौजूद विन्ध्यवासिनी बोली....
क्या जरुरत थी उनसे बहस करने की?
कोई गलत बात बोले तो मुझसे सहन नही होता,सत्या बोला।।
क्या गलत कहा उन्होंने? तवायफ़ ही तो हूँ मैं! विन्ध्यवासिनी बोली।।
उन लोगों ने दिमाग़ खा लिया और जो बचा खुचा है तो तुम भी पीछे मत हटना मेरा दिमाग़ खाने से,सत्या बोला।।
मैं दिमाग़ नहीं खाती,खाना खाती हूँ,जो कि बनाना पड़ता है,मसाला नहीं पिसा है अब सब्जी कैसें बनाऊँ?विन्ध्यवासिनी बोली।।
रूक जाओ,मैं कुछ करता हूँ,सत्या बोला।।
और फिर सत्या बाहर आया उसने सिलबट्टा उठाया और कोठरी में लेकर आ गया,विन्ध्यवासिनी से बोला...
लो! बिन्दू !पीसो मसाला,अब तुम्हें इन्तज़ार करने की जरूरत नहीं,
अरे!ये क्या तुम ने सिलबट्टा ही उठा लाएं,किसी ने देखा तो क्या कहेगा?बिन्दू बोली।।
तुम्हें कोई कुछ ना कहे तभी तो सिलबट्टा भीतर उठा लाया,अब जल्दी से मसाला पीस लो फिर सिलबट्टा में जहाँ का तहाँ रख आऊँ,सत्या बोला।।
तुम सच में अब भी वैसे ही सनकी हो जैसे की बचपन में होते थे,बिन्दू बोली।।
देखो! बातें करने का वक्त नहीं है तुम मसाला पीसो ना! सत्या बोला।।
अरे! बाबा! पीसती हूँ,सब्र करो जरा!विन्ध्यवासिनी बोली।।
और फिर विन्ध्यवासिनी ने झट से सिलबट्टे पर मसाला पीस लिया,इसके बाद सत्यकाम सिलबट्टे को आँगन में उसी जगह रख आया जिस जगह वो पहले रखा था,फिर विन्ध्यवासिनी ने सब्जी काटी और अपनी कोठरी के बरामदें में बने चूल्हें में आग सुलगाकर लकडियाँ लगा दीं,जब आग के कुछ अँगारे हो गए तो उसने मिट्टी की हाण्डी चूल्हें पर चढ़ाकर सब्जी बनाना शुरु कर दिया,मसाले की भीनी भीनी महक ने सत्या के मन को महका दिया और कुछ ही देर में सब्जी बनकर तैयार हो गई फिर बिन्दू ने सब्जी में ऊपर से ढ़ेर सा हरा धनिया डालकर सब्जी को ढ़ककर रख दिया,साथ में उसने आटा भी गूँथकर रख दिया।।
वो फिर से भीतर आकर सत्या से बातें करने लगी,मुरारी के आ जाने पर उसने गरमागरम पूरियाँ तलकर दोनों के पत्तलों में परोस दीं और मिट्टी के ही कटोरीनुमा सकोरे में सब्जी परोस दी,मुरारी आते समय साथ में छाछ ले आया था तो बिन्दू ने एक दिए को अंगारों पर गरम करके छाछ में राई से बघार लगा दिया,छाछ से खाने का स्वाद दोगुना और बढ़ गया,सत्या ने तो जिद की थी कि सारी पूरियाँ एक साथ तल लो और तुम भी हमारे साथ ही बैठकर खाना खा लो,लेकिन बिन्दू बोली.....
ये औरत का धर्म नहीं होता,औरत को तो सबको खिलाकर ही बाद में खाना चाहिए।।
ऐसे ही दो दिन राजी खुशी बीत गए और फिर मुजरे वाली रात के दूसरे दिन विन्ध्यवासिनी कलकत्ता छोड़कर वापस अपने शहर लौट गई,सत्या से बिछड़ते समय उसकी आँख में आँसू और दिल में जुदाई का ग़म था,सत्या को भी कम दुःख ना था बिन्दू से बिछड़ने का ,लेकिन दोनों ने हालातों से समझौता जो कर लिया था,इसलिए अपने अपने दर्द को मन में ही दबाकर एकदूसरे को अलविदा कह दिया।।
जाते समय मुरारी ने अपना पता दे दिया और सत्या से बोला....
ब्राह्मण देवता ! कभी जी कर जाएं तो ख़त लिख देना,मिलने का मन करें तो मिलने भी आ सकते हों,
हाँ! मित्र! जरूर! अगर जिन्दा रहा तो एक बार जीवन में तुमसे और बिन्दिया से मिलने जरूर आऊँगा,सत्या बोला।।
जी! मुझसे आपके दर्शनों की अभिलाषा रहेगी,मुरारी बोला।।
जी! जरूर आइएगा,विन्ध्यवासिनी ने भी नैनों में नीर लिए ये आखिरी शब्द सत्या से कहें और रेलगाड़ी चल पड़ी और एक बार फिर से सत्या अपनी बचपन की दोस्त से बिछड़़ गया।।
रेलवें स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर वो एक बेंच पर यूँ ही बैठा था कि कुछ लोगों का झुण्ड एक बूढ़े आदमी के पीछे भाग रहा था,उस बूढ़े ने स्वयं को बचाने का बहुत प्रयास किया लेकिन उन लोगों ने उसे धर दबोचा और बेतहाशा पीटने लगें,वो बूढ़ा चिल्लाता रहा कि मुझे भूख लगी थी इसलिए मैनें उस आदमी के खाने से दो पूरियाँ चुराई थी बस....
सत्या ने जब ये सुना तो उसने भीड़ को उस बूढ़े आदमी से अलग करते हुए कहा....
शर्म नहीं आती आप सबको ! एक भूखे लाचार और बेबस आदमी पर हाथ उठा रहे हो।।
उस भीड़ में से एक शख्स बोला...
ये लाचार और बेबस नहीं है चोर है।
मैं चोर नहीं हूँ,मुझे भूख लगी थी इसलिए मैनें पूरियाँ चुराईं,वो बूढ़ा बोला।।
सुना आप सबने भूखा है बेचारा इसलिए ऐसा गलत काम कर बैठा,सत्या बोला।।
लेकिन चोरी तो की है ना इसने,इसकी सजा तो इसे मिलनी ही चाहिए,भीड़ में से दूसरा शख्स बोला।।
तो आप सबने इनको सजा दे दी ना! मार तो लिया ,अब शायद आप लोगों के कलेजे को ठंडक मिल गई होगी,अगर कलेजे में ठंडक पड़ गई हो तो जाइए यहाँ से,सत्या बोला।।
और फिर एक एक करके सारी भीड़ चली गई,तब बूढ़े ने सत्या से कहा....
धन्यवाद बेटा! जीते रहो।।
धन्यवाद! कैसा बाबा?ये तो मेरा फर्ज था,लेकिन आपको ऐसा गलत काम नहीं करना चाहिए था,सत्या बोला।।
बेटा!दो दिन से भूखा हूँ,मन्दिर के सामने फूल ,धूप और चन्दन बेचता था,दो दिन से एक भी बिक्री नही हुई भूख सही नहीं जा रही थी इसलिए ऐसा गलत काम कर बैठा,बूढ़ा बोला।।
अच्छा! तो ये बात थी,चलों मुझे अपना सामान लाओ,आज मैं सामान बेचकर तुम्हारी मदद करता हूँ,सत्या बोला।
तुम नाहक ही परेशान होते हो बेटा! तुम्हारे घरवाले क्या सोचेगें? अगर तुम मंदिर में फूल बेचोगे तो,बूढ़ा बोला।।
घरवाले यहाँ होगें तब ना सोचेगें,सत्या बोला।।
तो क्या कलकत्ता में अकेले रहते हो? बूढ़े ने पूछा।।
हाँ! अभी दो तीन दिन पहले ही आया हूँ,मैं भी कोई काम ही ढूढ़ रहा था,लो मिल गया काम,सत्या बोला।।
बेटा तुम्हारा नाम क्या है?बूढ़े ने पूछा।
जी! सत्यकाम! प्यार से सब मुझे सत्या कहते हैं,सत्या बोला।।
अगर बुरा ना मानों तो पूरा नाम बताओगें?बूढ़े ने पूछा।।
जी! इसमे बुरा मानने वाली क्या बात है? मेरा पूरा नाम सत्यकाम चतुर्वेदी हैं,सत्या बोला।।
सत्या का पूरा नाम सुनकर बूढ़ा थोड़ा परेशान सा हुआ लेकिन फिर उसने सत्या से पूछा....
और तुम्हारे पिता का नाम क्या है?
जी! मेरे पिता का नाम भरतभूषण चतुर्वेदी है,सत्या बोला।।
तो कहीं तुम्हारी माता का नाम वैजयन्ती चतुर्वेदी तो नहीं,वो बूढ़ा बोला।।
जी! बिल्कुल सही! क्या आप मेरे बाबू जी से परिचित हैं,सत्या ने पूछा।।
हाँ! एक जमाने में वो मेरे मित्र हुआ करते थे,तुम से मैं तुम्हारे बचपन में मिल चुका हूँ,बूढ़ा बोला।।
ओह...तो आप मेरे बाबू जी को जानते हैं,ये तो बहुत अच्छी बात है,सत्या बोला।।
और फिर ऐसे ही बातें करते करते सत्या उस बूढ़े के साथ उसकी की कोठरी में जा पहुँचा,जहाँ मकान मालिक पहले से कोठरी के किराएं के लिए खड़ा था,सत्या ने फौरन ही अपनी जेब में से पैसे निकाल कर कोठरी का किराया चुका दिया....
और फिर सत्या उस बूढ़े के साथ उसी कोठरी में रहने लगा,दिनभर दोनों फूल बेचते और रात को रूखी सूखी खाकर सो रहते....
और इधर शुभेंदु चटोपाध्याय ने दीनानाथ जी से जाकर कह दिया कि आपका भान्जा कलकत्ता की एक धर्मशाला में किसी तवायफ़ के साथ ठहरा था,ये सुनकर दीनानाथ जी वैजयन्ती से बोले....
देखों! अब तुम्हारा बेटा ये गुल खिला रहा है ,यही कसर रह गई थी वो भी पूरी हो गई अब वो पूरी तरह से अय्याश बन चुका है,व्यभिचार करने के लिए उसे सारी दुनिया में तवायफ़ ही मिली थी,सारी दुनिया की लड़कियाँ क्या मर गईं थी जो अय्याशी करने वो एक तवायफ़ के पास पहुँच गया।।
ये सुनकर वैजयन्ती के मुँह को कलेजा आ गया....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....