Saheb Saayraana - 40 - last part in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | साहेब सायराना - 40 (अंतिम भाग)

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साहेब सायराना - 40 (अंतिम भाग)

40
लोग ऐसी बातें सुन- सुन कर हैरान होते थे कि जिस फ़िल्म इंडस्ट्री में लोग एक विदेशी पुरस्कार के लिए तरसते हैं और बरसों बरस उसके लिए साम दाम दण्ड भेद अपनाते रहते हैं उसी में एक ऐसा कलाकार भी है जिसने दुनिया की सबसे बड़ी और ग्लैमरस मानी जाने वाली हॉलीवुड इंडस्ट्री में काम करने के प्रस्तावों को भी आसानी से केवल इसलिए ठुकरा दिया कि अपना काम, अपनी मेहनत अपने लोगों की नज़र हो।
उन्हें हिंदी फिल्म जगत से आंतरिक लगाव था। इस उद्योग को "बॉलीवुड" कहने पर सायरा जी ने एक बार दिलीप साहब की बीमारी तक के नाज़ुक वक्त में पत्रकारों को ये कह कर आड़े हाथों लिया था कि "बॉलीवुड क्या होता है, क्या आपको अच्छा लगता है किसी की नक़ल में ऐसा कहना? फ़िल्म इंडस्ट्री कहिए!"
वो दिलीप साहब जिन्हें पद्मविभूषण सम्मान देने देश के बड़े बड़े नेता उनकी नासाजी की ख़बर जान कर उनके घर चले आए थे, जब तबियत बिगड़ने पर हॉस्पिटल में दाख़िल किए गए तो लोगों की जैसे सांस ही रुक गई। लोग दुआओं में डूब गए।
ओह!
ऐसा क्यों होता है कि हम जिस बात की उम्मीद करते हुए आस का दिया जला लें वो पूरी न हो सके।
यूसुफ खान शतायु हों, दिलीप कुमार का सौंवा जन्मदिन धूमधाम से उनकी उपस्थिति में मनाया जाए, ये सब बातें अधूरी रह गईं।
"नहीं गम डूबने का है, मगर अफ़सोस बस इतना
सफ़ीना जिस जगह डूबा वहां पानी बहुत कम था"
...यानी उनके शतायु होने की मुबारक घड़ी में बस कुछ ही समय बाक़ी था।
पूरा देश बीमारी से जूझने के बाद स्वास्थ्यलाभ करके घर लौटे दिलीप कुमार की जन्म शताब्दी उनके जीते जी मनाने की ख्वाहिश लिए इंतज़ार में ही था कि अचानक वो स्तब्ध कर देने वाली ख़बर आख़िर आ ही गई।
"दिलीप कुमार नहीं रहे"!
देश ने अपना कोहिनूर खो दिया।
मुंबई के हिंदुजा अस्पताल में दाखिल दिलीप साहब का इंतकाल 7 जुलाई 2021 को सुबह साढ़े सात बजे हो गया। उनके करोड़ों चाहने वाले खुदा का ये फ़ैसला देख कर मौन हो गए। कोई कुछ न कर सका।
सायरा जी की छः दशक लंबी तपस्या का दिया मुकाम से चंद कदम के फासले पर बुझ गया।
लेकिन ऐसी तपस्या का चिराग़ चाहे दूर से बुझता हुआ नज़र आए, हकीकत में कभी नहीं बुझता। दिलीप कुमार की देह से निकल कर उनकी शोहरत उस आसमान में छितरा गई जो उसे हमेशा संजोएगा, बरसों बरस संभालेगा।
पिछले दो सालों से कोरोना महामारी ने दुनिया भर में भय और अवसाद का ऐसा उदासीनता भरा माहौल बना दिया था कि लोग अपने प्रियजनों की शवयात्रा तक में शामिल होने नहीं दिए जा रहे थे। कितने ही लोगों ने अपने निकट संबंधियों को हॉस्पिटल से ही सीधे श्मशान के लिए विदा किया था। न वो साथ जा सके न विधि विधान से अपनों के अंतिम संस्कार किए जा सके।
दो साल की ऐसी मायूसी और असमंजस के बावजूद दिलीप साहब के अंतिम दर्शन और शवयात्रा के लिए लोगों की भारी उपस्थिति देखी गई।
सायरा जी की फ़िल्म का एक मशहूर गीत मानो फिज़ा में गूंजने लगा... अमन का फरिश्ता कहां जा रहा है, चमन रो रहा है, चमन रो रहा है...!
एक युग का अवसान हुआ।
हिंदुस्तान की पैदाइश यूसुफ साहब देश के बंटवारे के बाद भी दोनों मुल्कों में इज्ज़त और प्यार का सरमाया लेकर लोगों के बीच रहे मानो उनके दिल पर भी सरहद की वो नामालूम सी लकीर खिंच गई हो जिसके एक ओर यूसुफ और दूसरी ओर दिलीप बन कर उन्होंने पूरी एक सदी बिताई और अपने मान सम्मान को तिल भर भी कहीं - कभी कम नहीं होने दिया।
उनकी अपनी आत्मकथा " द सब्सटेंस एंड द शैडो " का सब्सटेंस चाहे सुपुर्दे ख़ाक हो गया पर शैडो हमेशा हमेशा के लिए अमर हो गई।
वो दिलकश सच्ची दास्तान जिसमें लोगों ने एक जुगनू को आफ़ताब बनते देखा था, एक कभी न मिटने वाले अफ़साने में तब्दील हो गई।
हो न हो एक दिन मौजूदा पीढ़ी पर आने वाली नस्लें ये सोचकर ही रश्क करेंगी कि इसने दिलीप कुमार को देखा था। दिलीप की सल्तनत सिनेमा के परदे से लेकर सिने प्रेमियों के दिल तक सदा कायम रहेगी।