अभी तक आपने पढ़ा सभी के मनाने और समझाने के बाद वैजयंती विवाह के लिए मान गई। उसके बाद अशोक ने सौरभ को बुलाकर विवाह की बात कही। सौरभ तो यही चाहता था। ऊषा ने यह ख़बर वैजयंती की माँ को सुनाते हुए उन्हें भी बुला लिया। अब पढ़िए आगे -
विवाह की तारीख़ पक्की होते से ही नैना और उसके पति को भी बुला लिया गया। वैजयंती की माँ भी इस शुभ घड़ी में वहाँ उपस्थित थीं। उन्होंने ऊषा और अशोक के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा, “ऊषा जी, आप दोनों ने तो मिसाल कायम कर दी। यह हमारे समाज के लिए एक बहुत अच्छा संदेश होगा।”
ऊषा ने वैजयंती की माँ को गले से लगाकर कहा, “वैजयंती हमारी भी तो बेटी है ना।”
वैजयंती को नैना और वैशाली ने तैयार किया। वैजयंती ने लाल रंग की साड़ी पहनने से पहले ही इंकार कर दिया था क्योंकि अभि की दुर्घटना वाले दिन उसने लाल रंग की ही साड़ी पहनी हुई थी। उसने आज गुलाबी रंग की साड़ी पहनी। उसके बाद विवाह के लिए पंडित जी ने मंत्र पढ़ना शुरू कर दिए। जब मंगलसूत्र पहनाने की घड़ी आई तब ऊषा ने वही मंगलसूत्र सौरभ के हाथों में दिया, जो अभि की तरफ़ से वैजयंती के लिए आख़िरी तोहफ़ा था। सौरभ ने मंगलसूत्र वैजयंती को पहना दिया और अब वह पति-पत्नी के रुप में जीवन साथी बन गए।
आज अपने गले में वह मंगलसूत्र पहनते समय भी वैजयंती की आँखों में कुछ सुख के तो कुछ दुःख के आँसू थे। आज उसे बादलों के बीच मुस्कुराता हुआ अभि दिखाई दे रहा था जो इससे पहले हमेशा आँसुओं के साथ दिखाई देता था।
ऊषा सोच रही थी, “हमारी वैजयंती को तो हमने फिर से मंगलसूत्र पहना कर उसका जीवन संवार दिया लेकिन समाज में ऐसी कितनी ही वैजयंती होंगी जो जवानी में पति की मृत्यु के बाद एक ऐसी बेरंग दुनिया में चली जाती हैं , जहाँ कभी होली नहीं होती, दिवाली नहीं होती, उनकी हर रात अमावस होती है। उनके गहनों पर भी दूसरों की नज़र होती है कि अब वह गहने उनके किस काम के। जो गहने उनके भविष्य की सलामती के लिए होते हैं वह भी उनके पास नहीं रह पाते। घर के बाहर भेड़ियों का बड़ा जमघट लगा रहता है। एक जवान विधवा को देखकर वे उन्हें सताने से पीछे नहीं रहते। मैं खुश हूँ कि भले ही मेरे बेटे की पत्नी को आज मैं किसी और की पत्नी बनाकर भेज रही हूँ किंतु मैं जानती हूँ कि मैं एक बहुत ही नेक काम कर रही हूँ और किसी के बेरंग जीवन को रंगीन बना रही हूँ, ख़ुशियों से भर रही हूँ।”
वैजयंती और सौरभ ने अशोक और ऊषा के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लिया। ऊषा ने वैजयंती को उसके पति के साथ विदा किया। विदाई के बाद घर में आते समय ऊषा की आँखों से आँसुओं की जल धारा बह रही थी।
तब अशोक ने उसका हाथ पकड़ कर कहा, “ऊषा इतने आँसू क्यों?”
“अशोक मैंने वैजयंती को विदा तो कर दिया लेकिन मेरा आँगन सूना हो गया। उसके साथ जीने की आदत पड़ गई थी। अब कैसे रहेंगे हम उसके बिना? कौन रखेगा हमारा ख़्याल? अभि के हाथों लाया मंगलसूत्र काश अभि ही उसे पहनाता। काश आज वह ज़िंदा होता।”
“ऊषा ऐसा सब क्यों बोल रही हो?”
“क्योंकि यदि अभि होता तो मुझे वैजयंती को इस तरह विदा करके अपने से दूर नहीं भेजना पड़ता। मेरा आँगन यूँ सूना नहीं होता।”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
समाप्त