अजान सिंह पहले इस विषय में इतना दुखी नहीं था। इस ओर उसका ध्यान ही न जाता था। पर अब, जबकि वह इस समाज का अंग बनता जा रहा है, उसे दलितों की दशा पर चिंता होने लगी है...।
अथाईं के तीन ओर कच्ची गलियाँ हैं, जिनमें कि बीस-पच्चीस कुनबे बसे हैं। इन पर दो-दो, तीन-तीन बीघे खेती है। उसमें सालभर का अनाज नहीं होता! मर्द-मेहरिया सब सवर्णों के खेतों में काम करके पेट भरते हैं। जागरूकता के कारण चर्मकारी वाला पुराना काम छोड़ दिया है। अब न मरे हुए मवेशियों को उठाते हैं, न उनके चमड़े निकालते तथा मांस खाते हैं। पारंपरिक प्रसूति का कार्य भी चमारिनें अब नहीं करतीं। किंतु फिर भी ये मोहल्ला चमरौटी या चमरटूला ही कहलाता है!
उसे टेंशन होता, क्योंकि, उसे अब अधिकांशतः यहीं बैठना था, लीला के चबूतरे पर और छाया आ जाने पर अथाईं पर। भोजन के लिये मजबूरी में घर जाता था। वहाँ भी बड़े तिरस्कार के साथ पोल में थाली पकड़ा दी जाती!
टूला में बैठने के कारण लोग उसे चाय-पानी के लिये भी पूछने लगे थे। ज़्यादातर ऐसे मौके वह टाल जाता। पर कभी-कभी कोई कप अड़ा ही देता तो मजबूरी में पीना पड़ जाती। ऐसे मौक़ों पर उसकी शंकित निगाहें बड़ी छचैक रहतीं कि कहीं अथाईं से ग़ुज़रता कोई सवर्ण उसे चमरौटी में बैठा और ख़ासकर चाय पीता न देख ले! अपनी इस दयनीय दशा पर उसे बड़ा क्षोभ होता।
और इस बीच जबकि तेरहवीं का दिन नज़दीक आता जा रहा था...गेहूँ, दौल, मसाले पिस गए थे। शक्कर, डालडा वग़ैरह आ चुका था। छोटी-मोटी चीज़ें,पत्तल, दौने आदि आने को शेष थे और वह इंतज़ाम को लेकर लीला में मशगूल था; तभी हाथ में ब्रीफकेस उठाए और कंधे से पानी की केतली लटकाए एक हृष्ट-पुष्ट मुछमुण्डा युवा क़रीब आ खड़ा हुआ, जिसके ब्लैक बूट चमचम चमक रहे थे।
लीला हीक फाड़कर रोती हुई उसकी छाती से चिपट गई। अजान संकोचवश पीछे हट गया। फिर चबूतरे पर आकर बैठ गया। गली में पशुओं के गोबर-मूत्र और मिट्टी से हुए दलदल से सड़ांध आ रही थी। वह ऊहापोह में फँसा रहा।
थोड़ी देर में वह तेजस्वी और मुछमुण्डा युवा उसकी बग़ल में आकर बैठ गया। खाट चरमराई तो अजान सिंह चेता, ‘‘जै-रामजी की, साब!’’ उसने उजड्डता से आधे हाथ जोड़े।
‘‘नमस्कार-जी!’’ मुछमुण्डा गर्दन झुकाकर विनीत भाव से मुस्कराया।
उसकी देह में आग लग गई। बनिया ‘जय-जिनेंद्र’ और जाटव ‘जय-भीम’ करने लगे हैं। ‘जै-रामजी’ की करते हेठी होती है, इनकी! उसने कुर्ते की जेब से बिंडल-माचिस निकाल कर दो बीड़ियाँ सुलगाईं और उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया।
‘‘क्षमा करें!’’ उसने पुनः विनम्रता प्रकट की, ‘‘मुझे आदत नहीं है।’’
‘‘तो क्या हुआ,’’ अजान ने मुँह फाड़ा, ‘‘पीते तो होंगे! बड़े आदिमी हो, सिगरेट-चरस पीते होगे।’’
‘‘नहीं!’’ उसने सरल मुस्कान के साथ ना में गर्दन हिलाई।
‘‘अच्छां-तो ठीक है भाई!’’ अपमानित अजान ने एक बीड़ी ओठों में दबाकर दूसरी चारपाई के पाये से बुझाकर बिंडल में वापस खौंसते हुए उसके मुँह पर धुआँ छोड़कर पूछा, ‘‘कहाँ से आना हुआ?’’
‘‘लखनऊ से...ये मेरी दीदी की ननद है!’’
‘‘लीला,’’ अजान को जैसे शक था, ‘‘जे-तो रतनूपुरा की है! तिहाई बहन रतनूपुरा बिहाई ती-का...?’’
‘‘जी!’’
‘‘ओ-हो, तुम भय्या नखलऊ सें बड़ी दूर चले आए जा बेहड़ा में!’’ उसने मज़ाक उड़ाया।
‘‘नहीं...एक्चुअल हम लोग इधर के ही हैं, कठौंद के!’’
‘‘जे-कठौंद?’’ अजान ने उत्तर की ओर हाथ पसारा, ‘‘रतनूपुरा के ऊपर लगा है!’’
‘‘जी-यही!’’
‘‘सो-ई तो हमने कही,’’ वह हँसा, ‘‘कि उत्तर प्रदेश की सिरकार यहाँ कहाँ से आ गई...?’’
पर मुछमुण्डा हतोत्साहित नहीं हुआ, बोला, ‘‘अजी, अपनों के बीच तो सभी को आना पड़ता है...। आप भी तो बैठे हैं घर-द्वार छोड़कर!’’
वह चौंका, जैसे, लीला ने बता दिया हो कि वह अजान है! और अजान कौन है, इसे यह पहले से जानता हो...।’ सो, सिटपिटा गया।
सूरज डूब रहा था और मुछमुण्डे के मुँह पर ईस्टमेन कलर झलमला रहा था! उसके दिमाग़ में खुटका हुआ, ‘भौजी का भाई है...बालापन की प्रीति पुरानी...’ चुपचाप चेहरा पढ़ने लगा, ‘अपनों के बीच तो सभी को आना पड़ता है!’
थोड़ी फाँस लिये वह उठ गया...।
अथाईं पर बच्चे खेल रहे थे। चैपे हार से लौट रहे थे। गलियों में दुधारुओं की रँभाहट भरी थी। पर वह अपनी ही सोच में डूब गया। तिरिया चरित्तर को लेकर दाऊ पे बड़े अनोखे क़िस्से थे। वह अक्सर कहा करता, ‘औगुन आठ सदा उर रहईं...।’ स्त्रियों से संबंधित सामुद्रिक शास्त्र का भी उसे अच्छा ज्ञान था, जैसेः
‘कुच छोटे नैना बड़े, होंइ बेगरे दंत।
ते कामिनि कब ना करें, चाइ होंइ हाथी से कंत।।’
तब...उसकी बातों में बड़ा रस पड़ता था। थोक के दर्जनों लौंडों को लुगाइयों को पटाने के गुर तो उसी ने सिखाए! और यह बात उसने अच्छी तरह बिठा दी थी सबके मन में कि तिरिया-सुभाव, चढ़ती बेलि सरीखा होता है! जैसे, बेलि अपने पास की सूखी लकड़ सें भी चिपट जात है, अण्टा दे बईए जकड़ लेत है... तैसेंई चढ़ती उमर की जनीमान्स ढिंग आए मद्द कों गेंथ लेत है! जू मामले में बारह बर्स की जनीमान्सि को-ऊ छोटी ना जनियो।
मगर वह अचानक सोचने लगा कि, दाऊ की बात अलग...गंवारू संगत के कारण वो कुपढ़ जो कहे सो थोड़ा! पर मैं इतना शंकालु क्यों!
दाऊ की बात अलग...वो अनब्याहा यौन कुण्ठाग्रस्त, स्त्री को महज़ उपभोग की वस्तु मानने वाली परंपरागत पुरुष सोच ‘पुरुषं सुवेशम् दृष्ट्वा भ्रातरम् यदि वा सुतम्, योनिःक्लीद्यन्ति नारिणाम् सत्यम्-सत्यम् हिनारद’ का शिकार...पर मुझे क्या हुआ...? मैं तो पढ़ा-लिखा, चिंतनशील, यौन-संतुष्ट और आधुनिक स्वातंत्र्य युग का हामी...मुझे एक स्त्री के बारे में ऐसी सोच क्यों रखना! क्या लीला मेरी जागीर है? क्या औरत को पुरुष की इतनी अछूती धरोहर होना चाहिए कि उसका किसी ग़ैर से वर्तमान ही नहीं, भूत और भविष्य में भी नाम जुड़ा न हो...!
(क्रमशः)