सिद्ध दिल्ली जा कर पढ़ना चाहता है तो वो अपनी माँ की मदद से अपने पापा को मना लेता है... पर तभी उसके पास युविका की कॉल आती है... अब वो बेचैन है...
आगे...
वो अपने बिस्तर पर लेटा है...पर उसका मन बेचैनी से भरा हुआ है...वो जितना अपने आप को शांत करने की कोशिश कर रहा था उसका मन बार बार युविका के ख़यालों में खो रहा था...
कितना प्यार किया था उसने युविका से... ४ साल उसके साथ था... उसने कभी सपने में भी नही सोचा था कि वो यूँ इस तरह से अलग हो जाएँगे... जब उसने युविका को पहली बार उस लड़के के साथ देखा था तो उसे लगा था कि शायद वो उसका दोस्त होगा पर फिर... जब उसने उसे उस लड़के के साथ उसके घर पर देखा तो... बहुत रोया था तब... युविका से बहुत मन्नते की थी कि उनके बीच में जो भी है उसे कोई फ़र्क़ नही पड़ता बस वो उसके पास वापिस आ जाए... सारी सारी राते उसके घर के बाहर बितायी थी... बहुत कुछ करने की कोशिश की पर युविका ने उसकी एक ना सुनी... उसने तो कॉल तक उठानी बंद कर दी थी... अब जब वो इस सदमे से बाहर निकल रहा था तो फिर से क्यूँ..............
उसके दिल में जहाँ एक और नफ़रत भरी हुई थी वही दूसरी और बार बार युविका का ख़्याल उसके मन में आए जा रहे थे... कैसे वो ख़ुद को उससे दूर करे... और अब वो और कितनी सज़ा देना चाहती थी उससे प्यार करने की... माँ पापा को तो पता भी नही था कि उसने युविका के लिए क्या क्या किया हैं... कितनी बार तो उसके पीछे मरते मरते बचा था...
उसके बारे में सोच सोच कर उसका सिर का दर्द बढ़ता जा रहा था...फ़ोन पर अब भी युविका का नंबर ही दिखायी दे रहा था... अब तक ८ मिसड कॉल्स आ चुकी थी...पर अब वो उससे बात नही करना चाहता था...
उसने फ़ोन को बंद कर दिया... वो उठा और बेड के एक तरफ़ रखी डायरी को उठाया...और लिखना शुरू किया...
“ हम तुम्हारे दिल मे रहते है...क्या ये शब्द अब उसे भी सुनाती हो...
खुल कर बोलती हो... या ख़ामोश आज भी रहती हो...
उसको अपने पास बिठा कर क्या आज भी मुस्कुराती हो...
उसके चेहरे पर आए बालो को वेसे ही अपने हाथो से हटाती हो...
हम तुम्हारे दिल में रहते है... क्या ये शब्द अब उसे भी सुनाती हो...
उसको भी किसी और से बातें करता देख क्या मुँह फुला लेती हो...
उसकी भी ख़ामोश आँखो में छिपे ग़ुस्से को क्या पहचान लेती हो...
उसका ग़ुस्सा कम करने के लिए क्या उसको भी गले लगा लेती हो...
हम तुम्हारे दिल में रहते है... क्या ये शब्द अब उसे भी सुनाती हो...
हाँ माना कि चुपचाप तुम्हें हम देखा करते थे
पर कुछ भी कहो मेरी प्रियतमा... आवाज तो तुम भी नही लगाती थी...
तुमने ही चुपचाप ख़ामोशी से मुझे अर्थी पर लेटाया था...
और तो और उस चिता को आग भी तुमने ही लगायी थी...
प्यार कितना था तुमसे... ये या तो तुम जानती थी... या बस मैं जानता था...
चलो अब ये तो बताओ
हम तुम्हारे दिल में रहते है... क्या ये शब्द आजकल उसे भी सुनाते हो ...
उसने डायरी को बंद कर दिया... उसकी आँखे भरी हुई थी... वो उठा और मुँह धोने के लिए बाथरूम में चला गया... उसने मुँह पर पानी के बहुत से छींटे मारे ... तभी माँ की आवाज़ आयी...
“तुम्हारा फ़ोन बंद क्यूँ है??” माँ ने पूछा...
(आगे का भाग सोमवार को...)
-स्मृति