Dojakhi in Hindi Moral Stories by Husn Tabassum nihan books and stories PDF | दोज़खी

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दोज़खी

हुस्न तबस्सुम निहाँ

रहमत के घर फिर अचानक तोड़-फोड़ शुरू हो गई थी। लोग बाग दौड़ पड़े थे और बाहर-बाहर से ही जायजा लेने की कोशिश कर रहे थे। कुछ एक शरारती बच्चे एक कुतुहल लिए भीतर के बरामदे तक रेंग गए थे। फिर खड़े घर वालों का मुँह तक रहे थे। दरअसल रहमान का बेटा आजम आज फिर उधियाया था और आज तो हद ही हो गई थी। अम्मी को जी भर पीटा था। वह एक तरफ बेसुध पड़ी थीं। बड़ी अम्मी और चचा भी अगल-बगल से दौड़ आए थे। बड़ी अम्मी गुस्से से कांप रही थीं-

‘‘मुला पूरा दोजखी ही निकला। हाफिज के नाम पर धब्बा। कहाँ कि आलिमत कराया गया था कि हमारे गुनाहों की बख्शीश करवाएगा कहां कि यह तो पूरा शैतान निकला। इबलीस निकला। इसे तो दोजख में भी जगह न मिले।‘‘

‘’जमाना ही ऐसा लगा है।‘‘ चचा ने ठंडी सांस भरते हुए धीरे से कहा था तो बड़ी अम्मी तुनक गयी थीं-

‘‘ ऐ हटो, ऐसा भी क्या कि दीदों का पानी तक मर जाए। माँ बाप को भी न समझे। लाहौल भेजती हूँ ऐसी औलाद पर। इबलीस कहीं का....मुए ने हाफिजा किसा है कि.......‘‘ कहते-कहते वह खामोश हो गयीं। घर की बाकी की बहू बेटियां चुपचाप बैठी थीं। घर में जबरन घुस आए बच्चों को घर के बच्चों ने हंकाल दिया था। बहन नायला बावर्चीखाने में कुछ बड़बड़ा रही थी। आजम सिर झुकाए चौकी पर बैठा था। अम्मी को लोगों ने उठा कर पलंग पर बैठा दिया। चचा ने बढ़ कर पानी दिया। अम्मी चुपचाप पी कर लेट गयीं। घर के अगल-बगल दीवारों पर खोपड़ियां टंगीं थीं मुआमले की तह तक पहुंचने की फिराक में।

खैर भीड़ कुछ देर बाद छंटने लगी। आजम अंदर-अंदर खौल रहा था। बेचैन भी था। अब्बू ने भी उसे दसेक गालियां बकीं और चुप हो गए। बड़ी अम्मी ने बढ़-चढ़ कर मां का मर्तबा और बच्चों के फराएज बताए। तभी बावर्चीखाने से निकल कर नायला ने इधर-उधर निंगाह फेरी और एक हमदर्दी भरी निंगाह आजम पर डाली। फिर अम्मी की ओर मुखातिब होती बोली-

‘‘भाईजान का इलाज करवाना चाहिए। इन्हें कुछ दिमागी ख़लल है।‘‘ आजम ने नायला को घूर कर देखा। बड़ी अम्मी हाथ नचाती बोलीं-

‘‘कुछ नहीं...अल्लाह इंसाफ करेगा...ऐसी मौत मारेगा कि....‘‘

तभी एक के बाद एक तीनों भाईयों का घर में आना हुआ। भावजों ने उनको फोन से खबर कर दी थी। फिर क्या था घर में दाखिल होते ही आजम पर लात-घूंसों और डंडों की बरसात होने लगी। आजम इधर-उधर हाथ-पांव बचाते लंबा हो गया था। घर में एक बेहद उदास माहौल बन गया था। नायला भीतर-भतर खौले जा रही थी कि मामू घर में दाखिल हुए-

‘‘क्या बात है...कैसा हंगामा है...?‘‘

नायला तिलमिलाती सी बोली-

‘‘..कुछ नहीं मामू...अम्मी को भाईजान ने जन्नत की सैर करवा दी।‘‘ सुन कर भाभियां मुँह छुपा कर हँस दीं। अम्मी, जो करवट लेटी थीं दांत पीसतीं चिल्लाईं-

‘‘निंगोड़ी तुझे तो मसखरी सूझ रही है ना...शर्म नहीं आती...‘‘

फिर अम्मी ने सारी सूरतेहाल मामू को कह सुनायी। मामू सोंचते से बोले-

‘‘बड़ा संगीन मामला है, डॉ. को दिखाया जाए क्या?‘‘ अम्मी ने बताया कि कई जगह से ताबीज ला-ला कर उसे पहनाया हुआ है लेकिन कोई फायदा नहीं। तब नायला वहीं से चीख कर बोली-

‘‘मामूजान, भाईजान किसी काम्प्लेक्स का शिकार हैं। इन्हें किसी माहिरे नफ्सियात को दिखाना चाहिए।‘‘ मामू खामोशी से नायला को देखते रह गए।

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रहमान भाई के चार बेटे और एक बेटी थी। आजम दूसरे नंबर पर था। फिर दो और भाई फिर नायला। एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार। बड़ा बेटा पढ़-लिख कर अपने कारोबार में लग गया था। छोटा भाई बारहवीं पास करके ई-सेंटर चलाता था। दूसरा छोटे-मोटे लकड़ी के ठेके लेता था। नायला बी.ए. कर रही थी। बचे आजम मिंयां। रहमान भाई और उनकी बेग़म ने यह तय किया कि चारों बच्चो को तो हमने दुनिया की खिदमत में लगा दिया है। लेकिन अपनी आगबत भी तो बनानी है। यानी परलोक भी तो सुधारना है। तय हुआ कि एक बच्चे को अल्लाह के सुपुर्द कर देते हैं। सो, आजम को किसी मदरसे में दाखिल करवा दिया गया कि एक बच्चे को दीन की खिदमत में लगा देंगे तो कल मरने के बाद वहाँ जवाब भी तो दे सकेंगे कि हमने एक बच्चे को दीन की खिदमत में लगा दिया इस तरह से हमारे गुनाह माफ हो जाएंगे। यह बच्चा हमारा बेड़ा पार लगाएगा। हमारे लिए जन्नत का रास्ता आसान करेगा। अंततः आजम को आठ साल की उम्र में मदरसा खैरूल उलूम बरेली भेज दिया गया। वह वहां रह कर दीनी तालीम हासिल करने लगा। साल में एक-दो बार ही घर आना होता। रमजान में छुट्टियां हो जातीं तब वह महीने भर आ कर रूकता। भाई-बहनों के बीच रह कर खेलता-कूदता। शुरू में तो इतना नहीं लगा लेकिन बाद के दिनों में उसे वैसा महसूस होने लगा जैसे वह अन्य बच्चों से कुछ अलग है। जब चारों भाई-बहन खेलते रहते तो वह उनमें शामिल होने से झिझकता। बड़े भाई से भी अलग-थलग रहता। ईद के दिन चारों भाई बहन के लिए रंग-बिरंगे, फूल-गुम्मों वाले फैशन नेबल कपड़े लाए जाते लेकिन अजीम के लिए वही कोई सफेद या आॅफ व्हाईट कलर का कुर्ता-पाजामा। टोपी भले हरी-पीली हो जाती। हालांकि उनका बाल मन जिद करता कि उन्हें भी दूसरे भाईयों की तरह ही फैशन नेबल कपड़े लेने हैं तो उनको डपट दिया जाता-

‘‘जिद मत करो, तुमको वैसे पहनावे नहीं पहनने हैं। तुम मदरसे की पढ़ाई पढ़ रहे हो। गुनाह पड़ेगा। तुमको सादगी से रहना है...उसी की आदत डालो।‘‘

वह मन मसोस कर रह जाते।

घर में दोस्त यार आते भाई बहनों के, उनका कोई भी दोस्त नहीं, कोई पहचान नहीं, मासूम बचपन मुँह लपेटे पड़ा रहता त्योहारों में भी।

एक दफा घर के बाहर बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। उनका भी जी चाहा। भाईयों ने उनको भी हिस्सा लेने दिया। वह दस-बारह साल की उम्र के, तहमद, कुर्ते, टोपी में बैटिंग कर रहे थें। कभी बाॅलिंग कर रहे थे। मगर भागते समय तहमद फंस-फंस जाती। मोहल्ले के लड़के देख-देख मजे ले रहे थे और मजाक उड़ा रहे थे-

‘‘ओए होए...मौलाना क्रिकेट खेल रहा है।‘‘

कोई बोलता- ‘‘अमां मौलाना...ये तुम्हारे बस की बात ना...‘‘

अंततः वह बल्ला फेंक कर घर को भाग लिए और फिर घर में बिलख-बिलख कर रोने लगे। अम्मी ने समझाया-

‘‘बेटा...तू इस इस दुनिया के लिए नहीं बना है।‘‘

‘‘तो फिर इस दुनिया में पैदा क्यों किया...?‘‘ वह चीख पड़े।

‘‘अरे...तुझे अल्लाह की राह में काम करना है। उसकी खिदमत करनी है।‘’

उधर छोटे भाई की एक लड़के से झड़प भी हो गयी उनको लेकर। आखिर उन्होंने बाहर निकलना छोड़ दिया।

आजम समझ तो गए कि अब यह टोपी और लुंगी ही उनकी नियति है इसलिए रोना-बिसूरना व्यर्थ है। उन्होंने खुद को उसी माहौल में ढालना शुरू किया। धीरे-धरे घर आने से उनको वितृष्णा होने लगी। उनने घर त्याग दिया। पूरी तरह से मदरसे के ही हो गए। छुट्टियों में भी न आते। वहीं खुदा से लौ लगाए रहते। लगा अब दुनिया उनके लिए है ही नहीं। एक तरह का बैराग समझ लो। बच्चे से किशोर हुए, फिर युवा हुए। इस दरम्यान उन्हें घर के लोग प्रायः घर बुलाते। अम्मी कसमें देती लेकिन उन्होंने तय कर लिया अब पढ़ाई पूरी करने के बाद ही वह घर जाएंगे।

खैर वो दिन भी आया। आजम अब मौलाना आजम बन कर घर आ चुके थे। मां-बाप फूले नहीं समा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि जीते जी उनको जन्नत मिल गयी। चार दिनो बाद अब्बू ने पूरे खानदान वालों की दावत ली थी। बढ़िया खाना खिलाया गया। लोगों ने आ-आ कर उन्हें मुबारकबाद दी। उनके इस कदम को सराहा। क्या खानदान क्या बाहर के लोग सभी एक ही स्वर में सराहे जा रहे थे कि ‘‘रहमान भाई ने बड़ा नेक काम किया है बेटे को दीन पढ़ा कर।‘‘

खैर, सभी शोरबा-चपाती खा कर अपने रस्ते हो गए। आजम मियां आकाश चूम रहे थे। जैसे वह हवा में उड़ रहे हों। लोगों ने कितनी कद्र की उनकी। तोहफे दिए, तारीफें कीं। मां-बाप का सिर गर्व से उंचा हुआ जा रहा था। दूसरे भाई अंदर ही अंदर आत्महीनता के भाव से हुलस रहे थे। खैर, दिन बीत गया। कुछ समय के बाद जब सबकुछ सामान्य हुआ तो आजम को कुछ अटपटा सा लगने लगा। दो भाईयों की शादी भी हो चुकी थी। छोटे ने प्रेम विवाह किया था। उससे छोटा वाला भी अपने काम से लगा हुआ था। अब वही अकेले बचे थे बेकाम धाम के। कई जगह मदरसों में पढ़ाने के लिए कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। काम धंधे में अनाड़ी थे। ट्यूशन भी नहीं मिलते। नए जमाने में उर्दू अरबी पढ़ना कौन चाहता है। आधुनिकता की चपेट में आए इस दौर में कौन चाहेगा अरबी-उर्दू पढ़वा कर बच्चों का टाईम खराब करना। जबकि आज कल बच्चे कोचिंग से ही नहीं फुर्सत पाते। घर में भाई बहन भी उससे इतनी नजदीकी नहीं बना पाते। जबकि बाकी वे आपस में खूब हँसी ठट्ठे लगाते। फैंसी कपड़े लाते। पहन-पहन कर एक दूसरे को दिखाते, परखते। आजम के लिए यह सब ख़ाब था। वह मायूसी होड़े, दूर बैठे उन सबके लटके-झटके देखते रह जाते। वे भाई फिल्में देखते, संगीत सुनते, छोटे वाले तो नाचते भी थे। वह उन भाईयों को समझाते कि ये नाचना-गाना गुनाह है तो वे सब उनकी खिल्ली उड़ाते और कहते-

‘‘अमां मौलाना जाओ अपना काम करो मूड ना खराब करो‘‘

अजीम हाथ मल के रह जाते। मन नही मन बुदबुदाते-‘‘ जन्नत तो ये लोग जी रहे हैं। मैं तो जीते जी दोजख भुगत रहा हूं‘‘ मौलाना शब्द उनको उस समय गाली जैसा लगता। वह झुंझला जाते। उनका बहुत मन होता चंचल होने का लेकिन मन मार कर रह जाते यह सोच कर कि उनके लिए तो सब वर्जित है।

अब उनकी शादी की उम्र भी हो गई थी। सो शादी के लिए रिश्ता देखा जाने लगा था। कुछ रिश्ते तो मां-बाप को पसंद नहीं आते और जो पसंद आते वो आजम को देख कर इनकार कर देते क्योंकि उनको मौलाना नहीं चाहिए होता। लड़कियां फिस्स से हँस देतीं-

‘‘...हुंह...मुल्ले से शादी..‘‘

दूसरे आजम का बेरोजगार होना। बचपन से मदरसे में ही रहे। कोई हुनर तो सीखा नहीं। करते क्या। एक बार कपड़े की दुकान रखवाई भी गई लेकिन घाटा खा गए। दर असल कपड़े की दुकानें ज्यादातर औरतों से ही आबाद रहती हैं। और वो औरतों से बचते रहते। उनका बी.पी. लो होने लगता। कभी उनका पाला औीतों से तो पड़ा नहीं था। उनसे नजर मिलाने की हिम्मत नहीं होती। जब वे मोल तोल कर रही होतीं तो वह घबराहट में जो जैसे मांगतीं वैसे ही दे कर उनको रफा-दफा कर देते। इस तरह उनकी दुकान बुरी तरह लुट गयी। घर में अलग फजीहत हुई कि कैसे दुकान पर बट्टा लगा दिया। भाईयों ने यहाँ तक कह दिया कि-

‘‘ऐसे बैठा कर हम नहीं खिला पाएंगे। कुछ नही तो किसी मस्जिद के लिए चंदा मांगने ही जाएं। थोड़ा बहुत खुद का खर्च निकालें...ऐसे कैसे चलेगा...हम भी बीबी बच्चे वाले हैं।‘‘

उनका मन टूक-टूक कर उठता।

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आजम अंदर ही अंदर टूट रहे थे। बिखर रहे थे। नायला को अलबत भाई पर तरस आता था। मायूस बैठे भाई को खाना-पीना पूछ लेती। भाभियां तानों के सिवा कुछ न देतीं। अम्मी बस घबरा कर जानिमाज बिछा लेतीं और दुआएं करने लगतीं। आजम को अब इस तरह की हमदर्दियों से भी कोफ्त होने लगी थी। धीरे-धीरे वह अवसाद में जाने लगे थे और फिर एक ऐसा वक्त आया कि वह पूरी तरह से अवसाद की गिरफ्त में थे। अम्मी अब्बा से खास कर चिढ़ने लगे थे। उनकी कोई भी बात उनको जहर जैसी लगती। एक दिन तो हद ही हो गई। उस दिन भाभी जब कुछ बड़-बड़ कर रही थीं तो उनसे कहा सुनी हो गई और जब ज्यादह बात बढ़ी तो उन्होंने भाभी पर हाथ छोड़ दिया। फिर क्या था फौरन बड़े भाई को फोन गया। उन्होंने आते ही मौलाना आजम की बढ़िया धुनाई कर दी। अब्बा ने अलग पीटा। नायला आंखों में आंसू लिए आजम को देखती रही।

लेकिन अब यह सिलसिला रोज का हो गया था। आए दिन भाभियों की चख-चख होती जिसे वह बर्दाश्त न कर पाते और झगड़ पड़ते। अम्मी दिन भर गण्डे ताबीज की फिराक में घूमती रहतीं। एक रोज तो हद ही हो गई। सुबह-सुबह वह चाय की रट लगाए थे। फज्र में कौन बना कर देता। खैर नायला की आँख खुली। उसने बना दिया। भाभियां बड़बड़ाती रहीं-

‘‘निंगोड़ा चैन से सोने भी नहीं देता।‘‘ वही गुस्सा दिन में उतरा। छोटी भावज खाना बनाते-बनाते बड़बड़ा रही थी-

‘‘...अब तो इस घर में सांस लेना ही हराम हो गया है।‘‘ और अम्मी ने आगे जोड़ा-

‘‘...निंगोड़ा मरता भी तो नहीं कि मर जाए। इससे तो बेहतर है इसे घर से बहुत दूर कर दूं‘‘

आजम चिढ़ गया। कुछ देर भाभियों और अम्मी से कहा सुनी होती रही और फिर अचानक जलबला कर उठे और भाभी को दो थप्पड़ लगाए। तब तक अम्मी ने दौड़ कर पकड़ा और गालियां बकने लगीं। आजम पर जैसे खून सवार था। अम्मी को नीचे घकेल दिया और घूंसे बरसाने लगे। अम्मी चीख रही थीं। नायला चुपचाप खड़ी देखती रही। उसका जरा भी जी न चाहा कि अम्मी को बचाया जाए। भाभियां भी डरी खड़ी रहीं और अपने-अपने पतियों को फोन लगाने लगीं। कुछ देर बाद तीनों भाई आए और बारी-बारी से उसे पीटा। लात-घूंसे बरसाए। वह खामोश पिटते रहे। नायला ने जरूर बड़े भाई को घूर कर देखा और उनके हाथ से डण्डा छीन कर दूर फेंक दिया।

खैर, नायला ने मामू को अकेले में ले जाकर समझाया था-

‘‘मंमूजान, समझाईये इन लोगों को। एक तो पहले ही इन लोगों ने उनको दीनियात पढ़ा-पढ़ा के उनकी जिंदगी चौपट कर दी है और उन पर सब गरज रहे हैं बरस रहे हैं। मामू नजरंदाज होना कोई कितना सहेगा। भाईजान फ्रस्टेशन में चले गए हैं। वह एहसास ए कमतरी का शिकार हो गए हैं। सबके बीच में अकेले पड़ गए हैं। न कोई धंधा ठीक से चला पा रहे। न कहीं कोई शादी करने को उनसे तैयार है। वह एक गैर इस्तेमाली चीज बन कर रह गए हैं। इन लोगों ने उन्हें आम जिंदगी से दूर रखा। और अब चाहते हैं कि वह आम लोगों के बीच नॉर्मल बन कर रहें। ऐसा मुमकिन है क्या? उस पर दिन रात उन्हें खाने-पीने के ताने। ये अम्मी ने अपने जन्नत जाने की लालच में भाईजान की जिंदगी दोजख़ बना दी है। उन्हें जीते जी मरने को मजबूर कर दिया है। बाकी तीनों भाई अच्छा खाते हैं, कमाते हैं अच्छा पहनते हैं तो क्या उनको तकलीफ नहीं होती कि उन्हें अजूबा बना कर रख दिया गया है। उन्हें क्या नहीं खलता कि उनका कहीं कोई वजूद ही नहीं?‘‘

मामू जान ने उसकी बात को समझा और सिर हिलाते हुए इतना भर कहा-

‘‘ठीक कह रही हो मैं बात करता हूं‘‘

और फिर जब-तब ये घटनाएं घटती ही रहतीं। आजम का दिमाग अब इतना फिर गया था कि बस मरने-मारने पर ही तुला रहता। जेहन विक्षिप्त सा हो रहा था। खाना-पीना कुछ नहीं। या तो उदासी या फिर मार काट। घर के अंदर एक दहशत का सा माहौल पैदा हो गया था। बड़ी भाभी जा कर अलग किराए पर रहने लगी थीं। उनका कहना था कि -

‘‘यह रोज-रोज की गाली मार हमसे न सहन होगी। अम्मी को कभी आजम पर प्यार आता कभी धिक्कारती रहतीं। आजम के हाथ अब खुल गए थे। कुछ बर्दाश्त नहीं करता। खानदान में मशहूर हो गया कि ‘‘मौलाना आजम का दिमाग चल गया है।‘‘ कुछ औरतों ने अंदेशा जताया कि किसी ‘‘शय‘‘ का साया होगा। अम्मी गंडे ताबीज दिन भर तलाशती फिरतीं। ताबीज नबीसों ने खूब लूटा अम्मी को। किसी ने बताया खब्बीस का साया है। किसी ने कहा सिबली अमल कराया गया है। कोई बोला हजार जिन्नों की गिरफ्त में है तो किसी ने बोला परियों के साए में हैं। गरज ये कि तावीज नवीसों ने अम्मी को खूब लूटा। लेकिन आजम की मानसिक स्थिति सुधरी नहीं। वह चुपचाप यहाँ-वहाँ बैठा रहता। सूख कर कांटा हो गया था। अंदर ही अंदर घुटता रहता। अम्मी अब थक हार गयी थीं दौड़ भाग कर। भाईयों ने भी हाथ खड़े कर दिए थे। नायला लाख कहती रहती कि डॉ. को दिखाओ लेकिन कोई न सुनता। अम्मी की एक ही जिद कि जलन के मारे खानदान वालों ने आजम पर कुछ जादू-टोना करवा दिया है। आजम ने नमाज रोजा सब छोड़ दिया था। उसे हर खुशी से नफरत हो गयी थी। वह न किसी शादी वादी में जाता न ही किसी जश्न में शामिल होता। ऐसे उत्सव देख कर उसके भीतर का जलजला और मुखर होने लगता। वह कभी अपने आप रोने लगता और कभी बिल्कुल खामोश हो जाता। नायला सबकुछ जान कर भी मजबूर। एक बार फिर मामू जान के सामने अपनी बात रखी थी कि आजम का इलाज करवा दिया जाए। लेकिन मामू जान ने भी ‘‘हां...हू...‘‘ कहने के अलावा ज्यादा कुछ दिलचस्पी नहीं ली थी।

एक दिन क्या हुआ था कि घर के सारे लोग कहीं शादी में गए हुए थे। घर पर अकेला आजम ही था। आजम ने मौका देखा तो जाने क्या सूझा कि जा कर दाढ़ी मूंछ सब मुंडवा आया। फिर घर आ कर छोटे भाई की ब्लू टी शर्ट और सफेद पैंट पहन कर आईने में खुद को निरखता रहा। मन ही मन वारा जाता रहा वह  कि वह भी किसी से कम नहीं है। वह भी हवा में खुले परिंदों की तरह उड़ान भर सकता है। वह कोई अजूबा नहीं। अभी वह अपनी मस्ती में झूम ही रहा था कि दरवाजे पर दस्तक हुयी। उसने वैसे ही जा कर दरवाजा खोला। सामने अम्मी और नायला खड़ी थीं। अम्मी ने देखा तो चीख पड़ीं-

‘‘...ऐ...हे....तू कौन...घर में कैसे घुसा...और लोग कहाँ हैं..?‘‘ कहती हुयी वह आजम पर झपटीं, नायला भी पहली नजर में चौंकी फिर मुंह छुपा कर हँस दी। अम्मी चीख ही रही थीं कि नायला ने टोका-

‘‘..अरे अम्मी चुपो तो...यह आजम भाई हैं...‘‘

अम्मी को करंट सा लगा।

‘‘...हे...दोजखी कहीं के...। तू यहाँ यह गुल खिला रहा था। तुझे आग लगे। मुला चेहरे से अल्लाह का नूर (दाढ़ी) भी उड़ा दिया। क्या हुलिया बना लिया है सड़क छापों वाला। हमारी सारी मेहनत अकारत कर दी। क्या मुँह दिखाएंगे अल्लाह को हम।‘‘

आजम भड़क उठा।

‘‘..क्यों...रियाज पहनता है....भाईजान पहनते हैं तब सड़कछाप नहीं लगता? तब अल्लाह का ख्याल नहीं आता तुम्हें? मेरे पहनने से आफत आ गयी। अल्लाह का नूर दूसरे बेटों को क्यूँ नहीं रखवाया?’’ अम्मी मुँह फैलाए रह गयीं । नायला की तरफ देख कर बोलीं-

‘‘...जुबान देखो जरा...‘‘

‘‘...सही तो कह रहे हैं..‘‘ नायला ने अपनी मुहर लगा दी। अम्मी ने फरमान सुनाया-

‘‘...जा...कहीं मर जा के। चला जा मेरी नजर से..‘‘

आजम ने जा कर फिर कपड़े बदल लिए और उदास सा आकर बरामदे में बैठ गया। नायला को बहुत तरस आया भाई पर। शाम को दूसरे भाई आए तो आजम को देख कर चौंक गए-

‘‘...अ...अरे मौलाना यह क्या किया...?‘‘  आजम की स्थिति जस की तस।

अब आजम और भी मजाक का पात्र बन कर रह गया था घर में। बल्कि घर से बाहर तक। एक दिन वह कमरे में अकेला बैठा फूट-फूट कर रो रहा था। अम्मी ने सुना तो पहुच गयीं समझाने-

‘‘अरे बेटा तू तो बावला है।...तू सोच तू कितना खुशनसीब है। तू खुदा का फ़रिश्ता है। इस्लाम का रख्वाला है। ये सौगात सबको नहीं मिलती। तू जन्नती है बेटे।‘‘

‘‘..अम्मी, जो दोजख मैं भुगत रहा हूँ...उसे मैं ही जानता हूँ। उस जन्नत का क्या करूंगा...दोजख तो पहले ही भुगत रहा हूँ यहाँ।‘‘  वह रोता हुआ बोला।

‘‘उफ्...कुफ्र बोल रहा है। अजाब ए इलाही पड़ेगा।‘‘

‘‘...मेहरबानी करके अम्मी चली जाओ यहाँ से...मैं पागल हो जाउंगा। तुम लोगों ने जन्नत पाने के लिए मेरी जिंदगी दोजख बना डाली है। अब मैं तुम लोगों का मुँह तक नहीं देखना चाहता.‘‘  आजम चीख ही पड़ा।

छोटी भावज बाहर दरवाजे पर खड़ी सब सुनती रही। भीतर जाने की हिम्मत न हुयी। नायला भी वहीं बुत बनी खड़ी रही। उसकी आँखें भर आई भाई की दुर्दशा देख कर। अम्मी थकी सी बाहर निकल आयीं आंसू पोंछती। नायला ने उन्हें देख कर बुरा सा मुँह बनाया था।

‘‘....हुंह....‘‘ तो अम्मी ने प्रतियुत्तर में उस पर आंखें तरेर दी थीं। नायला पानी लेकर फिर आजम के कमरे में दाखिल हुयी। फिर भाई बहन काफी देर तक गुफ्तगू करते रहे। छोटी भावज बिना कुछ बोले बाहर से ही लौट गयी थी।

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अगले दिन पहला रोजा था रात ढाई बजे से ही मस्जिदों से आवाजें आने लगी थीं सहरी के लिए। नायला और भाभी बावर्चीखाने में जा कर सहरी तैयार करने लगी थीं। अम्मी भी उठ गईं थीं। नित्यकर्म से फारिग हो कर वह भी कुछ-कुछ कामों में लग गई थीं। घर के बाकी लोग भी जाग चुके थे। जब सभी सहरी के लिए दस्तरख्वान पर बैठे तो आजम नदारत। अम्मी चौंकी-

‘‘...अरे...आजम कहाँ रह गया? जगाओ उसे। फिर खुद गयीं उसके कमरे में। कमरा खाली। फिर दूसरे कमरों में भी गईं। रहमान मियां का कमरा भी झांक आयीं। कहीं कुछ भी नहीं। छोटे भाई रियाज ने कहा-

‘‘भाईजान बाथरूम में होंगे।‘‘ फिर कुछ देर इंतजार किया गया। जब काफी वक्त बीत गया तो बाथरूम के पास गया रियाज़। बाथरूम खाली। अम्मी पागलों की तरह छत पर भागीं। कहीं छत पर तो नहीं सो रहा। छत पर भी नहीं। अब अम्मी की हिम्मत जवाब दे गयी। वह जीनों पर ही बैठ कर फूट-फूट कर रोने पीटने लगीं। परिवार के सारे लोग सकते में आ गए। किसी से एक निवाला भी नहीं उठाया गया। बाकी के दोनों भाई अपनी कमाई का पैसा नायला के पास रखवाते थे। देखा गया नायला का संदूक उजड़ा पड़ा है। पैसे गायब। जहाँ बैठ कर वह तिलावत किया करता था उसी चौकी पर रहल के नीचे एक कागज फड़फड़ा रहा था। आमिल ने उठा कर सबको पढ़ कर सुनाया-

‘‘....अम्मी....मैं अपने ढंग की जन्नत ढूंढ़ने जा रहा हूँ। तुम अपने लिए किसी और जन्नत का इंतजाम कर लेना। तुम लोगों के गुनाहों का बोझ अब मैं नहीं उठा सकता। तुम लोगों ने जो मेरे सीने पर रास्ता तैयार किया था जन्नत जाने का, उसे मैं बंद कर रहा हूं।...नायला को प्यार‘‘

अंतिम वाक्य पर सबकी निंगाहें नायला पर जा टिकीं। और नायला मुस्कुरा दी। हालांकि अम्मी अभी भी छाती पीटे जा रही थीं।

हुस्न तबस्सुम निहां

मोहल्ला - रानी बाग़

पोस्ट-नानपारा, 271865

बहराइच,उत्तर प्रदेश

9415778595,9455448844