Mukti in Hindi Moral Stories by Saroj Prajapati books and stories PDF | मुक्ति

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मुक्ति

"चल यार आज तुझे दिल्ली की रंगीनियों दिखाते हैं ।" अमित के दोस्त ने हंसते हुए कहा।

"मतलब!"

"तू चल तो सही हमारे साथ। आज तू जिंदगी के भरपूर मजे लेना।"

" मैं समझा नहीं !" अमित हैरानी से उनकी ओर देखते हुए बोला।

" सब समझ में आ जाएगा । बस तू तैयार हो जा ।"

अमित की 6 महीने पहले ही दिल्ली में नौकरी लगी थी। उसका परिवार गांव में रहता था । परिवार में मां और एक बहन थी। बड़ी गरीबी के दिन देखे थे उसने। अपनी मां को शुरू से ही संघर्ष करते देख, अमित और मन लगाकर पढ़ता। उसकी मेहनत और मां के आशीर्वाद से उसकी नौकरी लग गई।

ऑफिस में जल्द ही उसकी दोस्ती सुमित, नरेंद्र से हो गई थी। वह दोनों इकट्ठे ही रहते थे। अमित भी उनके साथ ही रहने लगा था।

अमित को कुछ समझ तो नहीं आया फिर भी वह तैयार हो, उनके साथ चल दिया। जैसे ही वह उस इलाके में पहुंचा , उसका माथा ठनक गया। उसे समझते देर न लगी कि यह दिल्ली का रेड लाइट एरिया है।

उसने अपने दोस्तों से वापस चलने के लिए कहा तो वह हंसते हुए बोले "एक बार तू अंदर चल । फिर कभी वापस चलने के लिए नहीं कहेगा।" और वह सब उसकी ना नकुर को नजरंदाज कर उसे जबरदस्ती अंदर ले गए।

उनकी बातों से पता चल रहा था कि वह यहां आते ही रहते हैं ।

अमित को बहुत बुरा लग रहा था। दोनों दोस्त अंदर जाते ही 1-1 लड़कियों को साथ ले छोटी-छोटी कोठरियों में घुस गए और अमित की झिझक को समझ वहां बैठी एक उम्रदराज महिला ने उसे एक कोठरी में धकेल दिया।

उसने कोठरी में नजर दौड़ाई तो एक कोने में सत्रह अट्ठारह साल की एक लड़की डरी सहमी दुबकी हुई बैठी थी। उसे देख अमित को अपनी बहन की याद आ गई। वह वही एक पलंग के कोने पर बैठ गया ।

समय तो गुजारना था। इसलिए कुछ देर चुप रहने के बाद वह खड़ा होकर जैसे ही उसकी ओर बढ़ा तो अमित को अपनी ओर आता देख लड़की के चेहरे पर डर का भाव फैल गया और वह रोने लगी। अमित ने धीरे से उससे कहा "चुप हो जाओ बहन! मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा।" उसके मुंह से बहन शब्द  सुन लड़की को विश्वास ही ना हुआ। उसने नजरे ऊपर उठाई और रोते हुए अपने दोनों हाथ जोड़ दिए और बोली " मुझे बचा लो। मैं यहां नहीं रहना चाहती। ये लोग जबरदस्ती मुझसे ये काम कराते हैं। हो सके तो मुझे यहां से निकाल लो।"

वह उसके पास जाकर बैठ गया और "बोला डरो नहीं। पहले मुझे यह बताओ कि तुम यहां तक पहुंची कैसे और तुम्हारा नाम क्या है ? कहां की रहने वाली हो?"

"मेरा नाम सुनीता है और मैं बंगाल की रहने वाली हूं। मेरे घर में मेरा बड़ा भाई और मां है। मैं पेपर देने घर से निकली थी। तब कुछ मनचलों ने मेरा अपहरण कर लिया और कई दिन तक मुझे नोचा और फिर मुझे यहां लाकर बेच दिया। यहां मैंने बहुत मिन्नतें की लेकिन मेरी कोई सुनने वाला नहीं। जो भी यहां आता है‌। मैं उनसे अपनी रिहाई की विनती करती लेकिन सब मुझे आश्वासन दे अपनी हवस पूरी कर चले जाते और फिर लौट कर नहीं आते। क्या तुम भी उनमें से एक हो।" वह लाचारी से अमित की ओर देखते हुए बोली।

उसकी बातें सुन अमित ने कहा "मुझ पर विश्वास रखो । मैं तुम्हें यहां से निकालने की पूरी कोशिश करूंगा लेकिन मुझे थोड़ा समय दो । अगर अभी जल्दबाजी करूंगा तो सबको शक हो जाएगा। मैं, दो-चार बार तुम्हारे पास आऊंगा। तुम मुझे अपने घर का पता बता सकती हो।" सुनीता ने उसे अपने घर का पता दे दिया।

घर आकर वह उसके बारे में सोचता रहा कि वह कहां से शुरू करें! कैसे उसकी मदद करें या वह भी उसे उसकी नियति मान भूल जाए। लेकिन उसकी आत्मा नहीं मान रही थी ।उसे बार-बार उस लड़की की जगह अपनी बहन याद आ रही थी।

अगले हफ्ते वह फिर उसके पास गया और उससे, उसके घर परिवार के बारे में और बातें जानी। सब कुछ जानने के बाद वह एक हफ्ते की छुट्टी लेकर उसके गांव के लिए निकल पड़ा।

जब वह उसकी मां और भाई से मिला तो उसकी बातें सुन दोनों ही फूट-फूट कर रोने लगे। उसके भाई ने बताया कि "उसके जाने के बाद हर जगह हमने उसे ढूंढा लेकिन कामयाबी हाथ ना लगी। मैं अपनी बहन को उस नर्क से जरूर निकालूंगा। चाहे कोई हमारा साथ दे या ना दे।"

अगले ही दिन वह अमित के साथ दिल्ली आ गया। अमित के बताएं पते पर वह ग्राहक बनकर गया और अपनी बहन से मिला। दोनों बहन भाई एक दूसरे को देख खूब फूट-फूट कर रोने लगे। सुनीता के भाई ने उसे धीरज से काम लेने के लिए कहा और समझाया कि "तुम किसी पर यह जाहिर मत होने देना कि मैं कौन हूं। मुझे थोड़ा वक्त दो । वादा है! मेरी बहन तुम फिर से हमारे साथ रहोगी।"

उसके बाद वह और अमित महिला आयोग में गए और उन्हें पूरी बात बताई व सहायता के लिए कहा।

महिला आयोग की टीम व पुलिस ने उस कोठे पर छापामार सुनीता को छुड़ा लिया। सुनीता ने अपनी गवाही में कहा कि "उसे यहां जबरदस्ती रखा गया था और उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे यह काम करवाया जा रहा था।" उसके इस बयान के बाद कोठा मालिक को उसे रिहा करना ही पड़ा।

उस एक रात की अमित से मुलाकात, उसके अथक प्रयास व सुनीता के भाई द्वारा समाज की परवाह किए बिना अपनी बहन को फिर से अपनाने के कारण ही सुनीता की जिंदगी बदल गई। वह उस नर्क रूपी अंधकार से बाहर निकल सकी और अपनी फिर से अपनी पढ़ाई शुरू कर अपने सपनों में रंग भरने लगी थी।

माना बहुत सी औरतों की रोजी-रोटी इसी से चलती है। किंतु अगर किसी भी लड़की से यह कार्य जबरदस्ती करवाया जाए तो वह अपराध की श्रेणी में आता है। सुनीता को तो मुक्ति मिल गई । लेकिन ना जाने कितनी ही बच्चियां व औरतें वहां सिसकते हुए दम तोड़ देती है लेकिन ना ही उनको कोई बचाने वाला आता है और किसी तरह वहां से निकल भी जाए तो उनके परिजन ही उनको अपनाने से मना कर देते हैं।

सरोज ✍️

स्वरचित व मौलिक