अभी तक आपने पढ़ा ऊषा ने अपने पति अशोक से वैजयंती के विवाह के बारे में बात तो उन्होंने तुरंत हामी भर दी। फिर ऊषा ने वैजयंती को बुलाकर उसे विवाह के लिए कहा लेकिन वैजयंती ने मना कर दिया तब अशोक भी वहाँ आ गए और उन्होंने भी कहा बेटा हमारी बात मान लो और सौरभ से विवाह के लिए हाँ कर दो। अब पढ़िए आगे -
वैजयंती रो रही थी। अब तक नवीन और वैशाली भी आ गये थे। उन्होंने भी सब कुछ सुन लिया।
नवीन ने कहा, "पापा जी और माँ बिल्कुल ठीक कह रहे हैं भाभी। आप कितनी भाग्यशाली हो कि आप को सास-ससुर के रूप में माता-पिता मिल गए हैं जो अपनी बेटी की तरह आपको घर से विदा करना चाहते हैं सिर्फ़ आपकी ख़ुशी के लिए भाभी।"
सभी के बहुत समझाने के बाद वैजयंती ने शादी के लिए हाँ कह दिया।
जिस दिन वैजयंती ने मना किया था, उस दिन से सौरभ ने उनके घर आना बंद कर दिया था। आज अशोक ने उसे फ़ोन करके बुलाया।
वह आया और आकर उसने अशोक के पाँव छूकर उनके नज़दीक बैठते हुए पूछा, "क्या हुआ अंकल? आपने क्यों बुलाया है?"
"क्यों बेटा तुमने कुछ दिनों से अचानक ही आना बंद कर दिया, क्या बात है?"
"कुछ नहीं अंकल, ऑफिस में काम कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है।"
"बेटा तुम्हारे माता-पिता तो हैं नहीं इसलिए तुमसे बात कर रहा हूँ। क्या तुम हमारी बेटी वैजयंती को अपना जीवन साथी बनाओगे?"
सौरभ उठ कर खड़ा हो गया, “अंकल आप यह क्या कह रहे हैं? क्या आप सच कह रहे हैं?”
“हाँ मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ।”
“अंकल मैं तो तैयार हूँ लेकिन क्या वैजयंती मानेगी?”
"हाँ बेटा हमने उसे मना लिया है।"
"अंकल वैजयंती को इस रूप में देखकर मुझे बहुत दुःख होता था। उसका अभि के साथ हँसता हुआ चेहरा हमेशा मेरी आँखों के सामने आता था। अभि के जाने के बाद वैजयंती को श्वेत वस्त्रों में उदास देखकर एक दिन मुझे यह ख़्याल आया कि क्यों ना मैं वैजयंती को अपना लूँ। मैं यह चाहता था अंकल लेकिन आप लोगों से कहने में डरता था।"
“… तो बस पंडित जी से मुहूर्त निकलवा लेते हैं लेकिन बेटा बिना बाजे-गाजे के, शांति के साथ मंदिर में यह विवाह सादगी के साथ होगा।
“जी अंकल हमें ऐसा ही करना चाहिए, मुझे इसमें कोई एतराज नहीं है।”
“एक बात और है,” बीच में ही ऊषा ने कहा।
“हाँ बोलिए ना आंटी?”
“सौरभ मंगलसूत्र तुम नहीं लाओगे, मंगलसूत्र जो हम देंगे, वही तुम्हें वैजयंती को पहनाना होगा।”
“ठीक है आंटी वैसे भी मुझे यह सब खरीदना नहीं आता। आंटी मैं जानता हूँ उस दिन अभि मंगलसूत्र खरीदने गया था। सुबह ही मेरी उससे बात हुई थी। उसने कहा था सौरभ आज मेरी शादी की सालगिरह है। आज वैजयंती के लिए मंगलसूत्र खरीद कर मुझे जल्दी घर जाना है ताकि वह ख़ुश हो जाए। काश आंटी वह मंगलसूत्र अभि वैजयंती को पहना पाता किंतु भगवान की मर्ज़ी के आगे किसकी चलती है।”
“बेटा हमें वही मंगलसूत्र …”
“हाँ-हाँ आंटी मैं आपकी भावनाओं को समझता हूँ। आप जैसा कहेंगी वैसा ही होगा। अच्छा अब मैं चलता हूँ।”
सौरभ के जाते ही ऊषा ने वैजयंती की माँ को फ़ोन लगा कर कहा, "समधन जी हमने वैजयंती का विवाह तय कर दिया है। आप जल्दी से जल्दी यहाँ आ जाइये।"
ऊषा के मुँह से यह सुनकर वैजयंती की माँ के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा और वह कुछ भी ना पूछ पाईं। केवल इतना ही कहा, "हाँ समधन जी मैं जल्दी ही आती हूँ।"
वैजयंती की माँ की आवाज़ से ऊषा को यह एहसास हो गया था कि इस समय उनके मन में क्या चल रहा होगा।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः