Madhup dansh in Hindi Moral Stories by Aastha Rawat books and stories PDF | मधुप दंश

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मधुप दंश


मधुप दंश – आस्था रावत

सुबह के साढ़े छह होने से पहले ही मेरी आंख अब खुल जाती थी।
पर सुबह की गहरी नींद को छोड़ कर सैर के लिए जाना
मेरे लिए हमेशा से चुनौती पूर्ण रहा है।
पर आजकल इस चुनौती से जूझती हुई में जल्दी उठने ही लगी ।
क्या करे डर के आगे ही जीत है।

अब क्या
में तैयार होकर निकल जाती नीचे मॉर्निंग वॉक के लिए।
पार्क में सुबह से ही काफी लोग होते और अगर छुट्टी का दिन हो तब तो बाप रे बच्चे सुबह से ही झूलो पर कब्ज़ा जमाया झूलते रहते।
मुझे कभी काफी गुस्सा आता
इन बच्चों को क्या नींद नही आती होगी क्या?
इतने सवेरे पार्क में भगदड़ मचाई है। ओफो
में तो इनकी उम्र में इतनी जल्दी नही उठी।

खैर आज छुट्टी का दिन नहीं था।
में खुश हो सकती थी।
पूरा रास्ता खाली बस टहलना था।
पूरी सोसाइटी का एक चक्कर काटने के बाद अब दूसरी परिक्रमा की बारी थी ये पहले से कुछ कठिन हो होती।
क्यों की जो बच्चे पार्क में भगदड़ आज नही मचा रहे थे वो अब कंधो पर बैग टिकाए हुए एक झुंड में अपने अविभावको के साथ अब भगदड़ मचाते।
स्कूल की बस वैसे सोसाइटी के गेट के सामने रुका करती थी।
पर गेट तक छोड़ने के लिए इनके माता पिता इनके साथ जरूर होते।
एक तरफ से भीड में आते ये लोग।
और एक तरफ से अकेली चलती में
एक साथ अधिक अंजान लोगो को देखकर
अकसर मेरा आत्मविश्वास डिगा जाता है लगता हैं मानो सबकी की आंखे घूर घूर कर मुझे ही देख रही है।
में ठीक से ही चल रही हूं ना ?
मेरा मुख भी ठीक है।
मेरी पशोक में कोई बुराई तो नही?
ऐसे कई प्रशन मन में यकायक इतने लोगो को देख कर उमड़ते।
पर किसी को क्या में बिलकुल परफेक्ट थी। और अगर कोई देख भी रहा था तो क्या यहां सोसाइटी में किसी को किसी से मतलब नही।
ये मनोबल बढ़ाने के कुछ उपाय होते।
पर
एक बार ऐसे ही टहलते हुए मेरे आगे से दो दंपती चले आ रहे थे
लगभग मेरे समीप आकर महिला एक व्यंग्यात्मक तरीके से हंसी।
अपनी आदतानुसार एक बार मैंने अपना निरीक्षण किया किंतु मुझ पर हंसने का कारण मुझे दिखा नही।
और साफ सी बात है अपने पति पर वो स्त्री व्यंगभरी बुरी सी हंसी हंसेगी नही
तो क्या कारण रहा होगा
उसकी ये हंसी मैने भी सुनी पर उसकी इस फूहड़ हंसी का क्या कारण रहा होगा उस दिन की सैर का मुद्दा यही था।
ऐसे फूहड़ लोग मेरे बढ़े हुए आत्मविश्वास ही हत्या क्षण में ही कर डालते है।
ओहो ये आत्मविश्वास की चर्चा में मैं कहां से कहां आ गई गई।
पर आपकों बताना भी तो जरूरी होता है ना।
हां तो स्कूल जा रहे ये बच्चे।
अलग अलग यूनिफॉर्म में ही होते शायद अलग अलग स्कूल से होते।



इस सब बीच मैंने एक अजीब घटना देखी।
कंधे पर बैग लादे हुए अभिभावक और रोलिंग बैग पहियों वाले बैग को खींचते हुए अभिभावकों के बीच
एक अदृश्य प्रतिस्पद्रा
वैसे यहां नए होने के कारण किसी से जान पहचान नहीं थी।
पर इन औरतों को अक्सर मैने मॉर्निंग वॉक पर देखा था।
आगे वाली महिला अपने बेटे के रोलिंग बैग को खींचते हुए आगे चल रही थी।
और दूसरी महिला दोनो कंधो पर बैग लादे हुए अपने एक छोटे लड़के और लड़की के साथ
रोलिंग बैग वाली औरत अपने बेटे से चिल्ला कर बोली
वंश इतना स्लो क्यों चल रहे हो
तुम्हारी स्पीड तो इतनी स्लो है जैसे किसी ने दस किलो का बैग कंधे पे टांग दिया हो।
चलो जल्दी।
पीछे वाली महिला के भी कुछ तेवर बदले उसने क्षण भर के लिए अपनी भौंहे ऊपर चढ़ा ली और मुंह की एक टेढ़ी सी आकृति बना ली।
सच में ये देखने लायक था।
थोड़ी ही आगे चलने पर महिला का रोलिंग बैग जमीन ऊबड़ खाबड़ होने की वजह से फंस गया तो दूसरी महिला खिल खिला कर हंस पड़ती और अपने बच्चों का हाथ पकड़ कोने से आगे निकल गई।

ये सब एक सी यूनिफॉर्म पहने एक ही स्कूल के और लगभग एक ही उमर के बच्चे थे
पर मुझे अचरज हुआ
ना ये एक दूसरे से बात करते ना एक साथ चलते।
मुझे याद है मेरे बचपन के दिनो में हम सभी दोस्त एक साथ स्कूल जाते स्कूल पास ही था इसीलिए जल्दी तैयार होकर
पिट्ठू, पकड़म पकड़ाई , लुका छिपी, गुड़ा गुड़िया,
और नजाने कितने खेल खेलते थे।
फिर घड़ी की में। जब बस पांच मिनट बचे होते तो जल्दी से बैग उठा कर स्कूल भागते।

बस और क्या।
टहलते हुए पूरे चालीस मिनट हो गए थे।
घर को चली गई।
घर की व्यस्तता और फोन से जब फुरसत मिलती तो हम बाहर निकल जाया करते।
घूमने फिरने थोड़ा टहलने।

बड़ी बड़ी इमारतों के बीच एक चौड़ी सड़क जो हमेशा गाड़ियों से और गाय सांडो से भरी रहती।
वैसे हां नोएडा का एक अनुभव मेरे पास और है।
आपकों बताती हूं
यहां दो जानवरों की अधिकता बहुत है।
कुत्ता और गाय
कार की खिड़की से बाहर झांकते हुए, पैरों में प्यारे प्यारे छोटे जूते पहने हुए , पार्क में बॉल के साथ खेलते हुए
हर नस्ल के कुत्ते लेब्राडोर,रॉटवेलर, जर्मन सेफर्ड, बिगल्स, रिट्रीवर, सीज जू, नीले आंखो वाले हस्की
और
सड़क के किनारे लेटी हुई
अपने कमजोर से बछड़े के साथ सड़क पार करती हुई।
कुछ अपनी पूछ से अपनी पीठ की मक्खियां उड़ाती हुई गाय
अक्सर आप को दिख ही जायेगी।
वैसे यहां की गाये सुखी रोटियां भी चाव से खाती हैं।
रही बात गांव की ओहो उनके तो नखरे बाप रे बाप रोटी को घी में भी डूबा दे तो तब भी ना खाती।
हां आटे की गोलियां जरूर लेती थी।
गाय यहां कदम कदम खड़ी मिलती।
शायद सरकार द्वारा चलाया जा रहा गौ रक्षा भी इसका एक कारण था।
छोड़ो
जो भी हो।
हम केवल सैर सपाटे के लिए आए थे।
टिपण्णी करने के लिए नहीं।
सड़क पार करते हुए एक हाथ हिलाता हुआ लड़का मेरी तरफ बढ़ा
हां इसे में जानती थी।
इसे मैने पास के एक गैरेज में काम करते हुए देखा था।
लगभग बारह तेरह साल का लड़का
पूछने पर पता चला था की इसके पिता अब इस दुनिया में नही है
और मां पास के किसी संस्थान में सफाई का काम करती हैं।

पर इसका मेरी ओर आने का अचित्य मुझे समझ नहीं आया।
वो हंपता हुआ मेरे पास पहुंचा
और तेज गहरी सांसे लेते हुए बोला
दीदी आपको फिर से उपले ला दूं?
बाजार में एक उपले का मूल्य चार पांच रुपए थी। जो सहज ही आम ग्राहक को ज्यादा लगेगा।
इसी बीच उस दिन इस लड़के से मुलाकात हुई थी।
लड़के ने उपलो से भरा एक बड़ा थैला केवल ये कहकर पकड़ा दिया जो देना हो दे दो।
हमने भी बीस रूपए लड़के के हाथ में रख दिए।
लड़के के प्रश्न से साफ जाहिर था की कारण क्या हैं।
मैने उसे ना में संकेत करते हुए गर्दन हिला दी बस
उसने फिर से पूछा, और ला दूंगा, बाजार में और ज्यादा महंगे हो गए हैं तुम जितना दोगे दे देना।
काले रंग के दाग लगे उसके कपड़े पूरे पसीने से भीगे हुए थे।
कहता हुआ बार बार आइस क्रीम की गाड़ी की तरफ देखता।
अधिक देर न करते हुए मैने बटुए से दो दस के नोट निकाल कर उसकी हथेली पर थमा दिए।
अभी उपले हैं जब जरूरत पड़ेगी तुम्हे बता दूंगी ले आना।
वो भी खुशी से उछल मार कर बोला हां ठीक है तुम लोग बता देना में और ले लाऊंगा।
और फिर से सड़क पार कर के चला गया।
और में भी चल दी अपने रास्ते।
हम अपनी अच्छी जिंदगी को और ज्यादा बेहतर बनाने में जिन्दगी बीता देते हैं।
और ये अपनी आभाव ग्रस्त जिंदगी को मात्र साधारण जिंदगी बनाने में।
शाम की ठंडी हवा भी कितनी मनमोहक होती हैं ना वो भी शहरो में
मानो रेगिस्तान में पानी।
इस मनमोहक हवा का आनंद लेते हुए ही पूरा रास्ता कट गया।
घर के पास से ही गुजरते हुए अब मेरी नजर उस पान वाले की दुकान पर पड़ी
जो चारो ओर से छोटे लडको से भरी पड़ी थी।
और हर किसी हाथ में बीड़ी और सिगरेट।
ये सारे नवयुवक छोटी ही उमर के लड़के थे
तीन बड़े लड़के लगभग सत्रह अठारह साल के
बाकी सारे उनसे छोटे।
एक बार नजाने मेरे मन में क्या सूझा में सड़क के किनारे खडी होकर उनको देखने लगी
उनकी भीड़ में खोजने लगी उस गैरेज वाले लड़के को।
कई छोटे लड़के हमें देखकर पता नहीं क्यों मुंह छिपाकर भाग गए।
इन लडको में मुझे वो लड़का नहीं दिखा।

पर मेरा मन अब अशांत था।
में अपने स्वार्थ के कारण किसी को इन सब का शिकार नही बनाना चाहती थी।

पूरी रात को मेरे मन में यही उधेड़बुन चलती रही
सोचा सुबह होते ही उस बच्चे से जरूर मिलूंगी पर काम में ऐसी उलझी की अब शाम को ही होश आया।
अभी पांच बज रहे थे।
कुछ काम के बहाने घर से निकल गई।
और उन्ही गायों से भरी चौड़ी सड़को से में उस गैरेज पर पहुंची।
जो अभी बदकिस्मती से बंद था।
लड़का भी नहीं था।
पास की दुकान वाले से पूछने पर पता चला कि सुबह तक खुला हुआ था।
लेकिन दोपहर को बंद करके वो घर चला गया।
और आज लड़का भी दुकान पर नही आया।
हताश होकर अब में चल दी घर की तरफ
जहां में चल रही थी। सड़क के किनारे एक पतली गली सड़क में विलीन हो रही थी।
उस गली से तीन लड़के स्कूल की ड्रेस में बाहर निकले
ये क्या ये वही गैरेज वाला लड़का था।
सफेद मैली शर्ट नीली पैंट पैरों में ने चमकदार काले जूते और कंधे पर लदा हुआ काले रंग का बैग जिसकी टूटी हुई चैन उसके पूरे खुले हुए हिस्से के बीचों बीच अटकी हुई थी। या शायद अटकाई हुई थी।

इसे देख कर मुझे पल भर को अपना बचपन जरूर याद आया था।
आप ये कतई मत सोचिएगा की मेरा हुलिया भी इसी तरह का रहा होगा।
ऐसा नहीं था मैं गांव के सरकारी स्कूल में भी हमेशा एक अच्छी साफ और इस्त्री की ड्रेस पहन कर गई जो पापा खुद करते थे।
पर मेरे दूर दराज के गांवों से आने वाले मित्र और सहेलियां समय की कमी के कारण कई बार ऐसी वेशभूषा में जरूर स्कूल आते थे।

जैसे ही बच्चे का मेरी तरफ ध्यान दिया
मैं उसे देखकर हाथ हिला कर बुलाने लगी
बच्चा भी अपने दोस्तों के साथ मेरी तरफ बढ़ा।

वो लड़का मेरे पास आया और कहने लगा।
उपले चाहिए क्या
मैने फिर ना में सिर हिलाया।
वो अब मेरी तरफ टकटकी से देख रहा था।
बात करने की इच्छा से मेने कहा
आज स्कूल गए थे?
उसने हां में सिर हिलाया और कहने लगा
आज काम भी छुट्टी थी तो स्कूल चला गया।
अच्छा
कहां है तुम्हारा स्कूल
उसने हाथो से इशारा करके बताया
ये जो सीधी गली है ना इससे आगे उस तरफ मुड़ना है फिर जो गांव वाली कच्ची सड़क है वही है स्कूल।
पर सच में मेरा उसके बताए हुए
मार्ग पर कोई ध्यान नहीं था।

हम चारो अब पास में एक बंद दुकान के बाहर लगी तख्ती पर बैठ गए।
वैसे मैने ध्यान दिया अभी तक मुझे उसका नाम भी मालूम नहीं है।
मैने उसकी तरफ देखते हुए कहा तुम सब का नाम क्या है।
वो उंगली से अपने मित्र की तरफ इशारा करते हुए बोला ये देवेश है और इसका नाम चिंटू है और मेरा
नाम राजू
अच्छा राजू है तुम्हारा नाम
अब पल भर भी मुझसे रहा ना गया और मैं जो पूछना चाहती थी पूछने लगी
राजू कल मैने तुम्हे पैसे दिए थे ना
राजू ने हक्का बक्का सा होकर
क्षण भर को मेरी तरफ देखा और फिर जमीन की तरफ सर झुका लिया
हां दिए थे पर अब तो वो खर्च हो गए।
तुम्हे पैसे की जरूरी काम के चाहिए थे क्या।
नहीं बस ऐसे ही
में थक गया था मेरा मन हुआ ठंडी आइस क्रीम खा लूं पर जेब में तो एक भी रुपया नहीं था।
फिर मेरी नजर आप पर पढ़ी मैने सोचा क्या पता आपको फिर से उपलों की जरूरत होगी तो आपको ला दूंगा। और पैसे भी मिल जायेंगे।

उसके दोस्त भी पास चुपचाप बैठे सब कुछ सुन रहे थे।
तुम्हे पता है तुम्हारे साथ गैरेज में काम करने वाले लड़के धूम्रपान करते हैं।
हां मुझे भी कई बार कहते है पर मुझे पता है ये सब ठीक नहीं और मैं पैसा इन चीजों पर बर्बाद नहीं करता लड़का अकड़ कर बोला।
अब में थोड़ा बेफिक्र हो गई थी।
उसकी पुरानी यूनिफॉर्म के नीचे चमकते जूते बिलकुल अलग थे वो बार बार पैर हिलाकर जूतो की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित करता।

मैने भी कोतुहल से पूछ ही लिया।
राजू नए जूते लिए है क्या?
नहीं दीदी स्कूल से मिले है अब अगले हफ्ते ड्रेस भी मिलेगी हम अगली क्लास में गए हैं।

अब बच्चे मुझ से खुल कर बात करने लगे
वो मुझसे भी प्रश्न करते और मैं उनसे
वैसे कौन सा बोर्ड है तुम्हारा।
चिंटू चिल्लाकर बोला दीदी बोर्ड तो दसवीं में होगा अभी तो हम सातवी में है ना।
बच्चे के इस उत्तर से स्तंभित थी
पर मुझे इससे कोई हैरानी नही थी।
फिर से में अपने प्रशन लेकर तैयार थी
एक सबसे आम पूछा जाने वाला प्रशन मैंने भी उन्हें पूछा
मैंने कहा कौन सा विषय तुम्हे सबसे अच्छा लगता हैं।
राजू फिर से बोला हम सबको हिंदी सबसे ज्यादा अच्छा लगता हैं।
उसका जवाब पूरा होते ही मैं बोल पड़ी
मुझे भी।
मुझे मेरे जवाब पर थोड़ा हिचकिचाहट महसूस हुई
जब राजू मेरे कहने के तुरंत बाद बोला
हां “हिंदी सबसे आसान होती हैं ना इसीलिए”
उनमें से एक लड़के ने मुझ से पूछा की में क्या करती हूं।
अपनी आदतानुसार में पूरा विवरण देने लगी।
अभी तो स्नातक कर रही हूं ग्रेजुएशन मैने इसमें तीन विषय चुने है।

मेरी बात पूरी होने से पहले ही राजू बात काटते हुए कहने लगा
पता है दीदी एक बार एक भईया स्कूल में आया था वो भी बारहवीं के बाद यही करने वाला था ग्रेजुएशन।
तो हमारे अंग्रेजी वाले गुरुजी ने उसे अच्छे से समझाया कि इसे अंग्रेजी से ही पास करना
ये हिंदी से पास करना तो ऐसा है जैसे दूसरी कक्षा पार करना।
में पल भर के लिए मुस्कुराई अपने गाल पर पड़े जोरदार थप्पड़ के लिए।
मेरा पूरा शिक्षा विवरण देने से पहले ही इसने टोक लिया ये सोच कर थोड़ा राहत मिली
मैने उन्हे एक बार समझना चाहा हर भाषा का अपना महत्व है।
लेकिन उसके लिए उपयुक्त समय की आवश्यकता थी जो फिलहाल मेरे पास नही था।
इसीलिए में बच्चो से विदा लेकर वहां से निकल गई।

पर सच में क्या मैने दूसरी पास की थी।
उन बच्चो के ऊपर सच में एक संकीर्ण सोच का गहरा प्रभाव था।
छोड़ो जो भी था।
पर मुझे अच्छा नही लगा बहुत विदारक था।
मानो मधुप दंश(मधुमक्खी का डंक) लग गया हो…..


आस्था रावत