लिखता हुं मै
लिखता नहीं वाह के लिए ।
लिखता नहीं गुनाह के लिए।
हूक उठती है दिल में ऐसी ,
लिखता हुँ मै आह के लिए ।।
लिखता नहीं सलाह के लिए ।
लिखता नहीं पनाह के लिए ।
इश्क की भूख है कुछ ऐसी ,
लिखता हुँ उस चाह के लिए ।।
लिखता नहीं शाह के लिए ।
लिखता नहीं राह के लिए ।
पीड़ा ही देखी है कुछ ऐसी ,
लिखता हुँ उस कराह के लिए ।।
लिखता नहीं जहाँ के लिए ।
लिखता नहीं तन्हा के लिए ।
अनुभव हुए है कुछ ऐसे ,
लिखता हुँ बस बयाँ के लिए ।।
लिखता नहीं यहाँ के लिए ।
लिखता नहीं वहाँ के लिए ।
जमाना अजब है कुछ ऐसा ,
लिखता हुँ उस जहाँ के लिए ।।
चलते रहे
वो तवायफ की तरह मोल भाव करते रहे |
हम गर्म सड़कों पर यूं नंगे पांव चलते रहे |
वो कहते रहे खतरा है जान का घर में रहो |
हम बस जहां में अपना घर ही खोजते रहे |
वो लाते रहे सात समुंदर पार से लोगों को |
हम सड़कों पर खून की लकीरें बनाते रहे |
वो मौत के ड़र से छुप गए घरों में |
हम भूख से ड़र कर सड़कों पर चलते रहे |
वो वादे पर वादे करते रहे रोज रोज |
हम खुदगर्ज बेवजह ही यकीन करते रहे |
रोटी के टुकडों ने छुड़ाया था गाँव |
रोटी के लिए गाँव की ओर चलते रहे |
लोगों ने दया की खाना भी दिया |
फिर भी साथ के लोग रोज मरते रहे |
मौत से लड़ना था दोनों ही सूरत में |
घर में रहे या राहों पर यूं ही चलते रहे |
तमाशा बना रहे है फिक्र किसे है हमारी |
बीमारी ही मार दे या भूख से मरते रहे |
जब सारा जहाँ हमारे ही खिलाफ हो गया |
जिंदा रहने के लिए खुद से हम लड़ते रहे |
भरोसा था उनसे उम्मीद थी मदद की |
वो "बुत " बन कर खड़े अकड़ते रहे |
आलोक मिश्रा "बुत"
mishraalokok@gmail.com
गुनाह नहीं हुआ
बादशाह बच जाएगा
जागीरदारों पे तोहमद ठोक के ,
जागीरदार भी खुश
गुनाह वजीरों के सर ठोक के।
फिर सब कहेंगे एक साथ
गुनाह तो हुआ ही नहीं,
जनता सहेगी बेबस रहेगी
खुश थाली ठोक के।
आलोक मिश्रा
mishraalokok@gmail.com
अश्क
गमों मे भी रोते रोते मुस्कुराना होता है |
जिंदगी में हर पल को यूं बिताना होता है |
अब तो हाल ये है कि कोई हाल पूछे |
बेहतर से पहले अश्क छुपाना होता है |
तमाम अश्कों को छुपा कर मुस्कुराना |
तहज़ीब का तकाज़ा यही होता है |
ड़र लगता हमशायों की रूसवाई का |
अश्क भी कमजोरी का निशां होता है |
अश्क उमड़ के आते है बारिश की तरह |
काम बहुत है फुर्सत में रोना होता है |
हंसा लिया जिंदगी भर जमाने को |
जोकर का आंसू ही खजाना होता है |
चेहरा वीरान है ऐहसास की नुमाईश नहीं |
गम को आंसू बन के छलक जाना होता है |
हंसता हुआ कोई चेहरा अश्कों डूब जाए |
उसे मुस्कुरा के मिलना या चेहरा छुपाना होता है |
यूं रो रो कर क्या मिलेगा तुझे "बुत "|
जमाने से सब लड़ कर लेना होता है |
"बुत" दूर है दुनियावी ऐहसासों के तूफान से |
चेहरे पर शिकन न अश्क छलकाना होता है |
आलोक मिश्रा "बुत "
कैसे
नहीं लगती तबियत रहुँ तो कैसे |
झूठ न बोलू सच कहुँ तो कैसे |
उसने मुझे दूसरों से ज्यादा दिया |
मै उसे बुरा कहुँ तो कैसे |
भगवान ने उसे जल्दी बुला लिया |
मै उसे बुरा कहुँ तो कैसे |
जिसने हमेशा बेवफाई का पैगाम दिया |
उसे एहल ऐ वफा कहुँ तो कैसे |
जिंदगी मे खुशियाँ दी हमेशा |
अब गम सहुँ तो कैसे |
उड़ता रहा आजाद परिंदे सा |
अब पिंजरे मे रहुँ तो कैसे |
मलंगों ने तबियत सुधार दी |
इस मस्ती को कहुँ तो कैसे |
"बुत" हुँ खडा़ रहुँगा इंतिजार में |
बेवजह खुद ढ़हुँ तो कैसे |
आलोक मिश्रा "बुत"
mishraalokok@gmail.com
वैश्या हुं
मेरी पवित्रता पर प्रश्न उठाने वालों ।
मेरे कपड़े उतारने पर प्रश्न उठाने वालों ।
सोचो मेरे होने पर भी तुम ,
अपनी बहन, बेटी और मासूम को नोच खाते हो ।
हम न हो तो ,
तुम्हारी माँऐं भी न बचेंगी ।
मेरी पवित्रता पर प्रश्न उठाने वालों।
दिन के उजाले में उजले लोगों ।
अंधेरों में कोठों के चक्कर लगाने वालों ।
तुम्हारी वासना हवस तुम पर हावी है ।
मेरा मोल भाव करने वाले लोगों।
तुम्हारी हैवानियत तुम पर हावी है ।
हमसे पहले
अंधेरे में खुद का नाड़ा खोलने वाले लोगों ।
मै तुम्हारी ही गंदगी का आईना हुँ।
हाँ मै वैश्या हुँ ।
हाँ मै गाली हुँ ।
हाँ मै नाली हुँ ।
मै हुँं स्त्री पुरूष संबंधों का बाज़ार ।
इस बाज़ार में तुम खरीददार।
मै माल हुँ।
शरीर मेरा बिकता है ।
आत्मा तुम्हारी बिकती है ।
ओ मेरे बाज़ार की रौनक ।
मेरे हैवान ग्राहक ।
मै तुम्हारी सच्चाई हुँ ।
मै तुम्हारा सुलभ हुँ ।
मै रास्ते का घूरा हुँ ।
मै आवश्यकता हुँ ।
मेरे बाज़ार रौनक ।
तुम से है ।
मेरे पास आने वाले लोगों ।
तुम ही हो मेरे जन्म दाता ,
ओ भूखे भेड़ियों।
मेरी पवित्रता पर प्रश्न उठाने वालों।।
आलोक मिश्रा बुत
भरोसा छोड़ दिया
दूरीयों को बड़ा कहना छोड़ दिया ।
मजबूरियों को बड़ा कहना छोड़ दिया ।
हम पहुँच ही जाऐंगे अपने घर ।
तुम पर भरोसा करना छोड़ दिया ।
झांकने का दुख
मैने क्यों झांका
क्यों झांका
उसकी जिंदगी में ,
उसके लिए तो
जिंदगी बहुत अच्छी थी |
सब कुछ ठीक था |
कहीं कुछ गलत नहीं
दिन अच्छे थे ,
रातें भी ह
छोटी खुशियाँ ,
छोटे गम
फिर मैने झांका
झांक कर देखा
और तुलना करने लगा
जीवन उसका और मेरा |
मै बताने लगा उसे
उसके जीवन की कमियाँ |
अब उसे दिखने लगा
उसका जीवन अधूरा |
वो अधूरेपन के लिए
मचल उठा
अब उसे चाहिए
वो सब
जो उसे नहीं मिला
अब वो दुखी है ,
अपने जीवन से
और मेरे सुखों से
सोचता हुँ
क्यों झांका मैने
उसके जीवन में |
कोरोना
रास्ता लम्बा था |
जाना ही था |
यहाँ भूख थी ,
वहाँ सहारा |
उस सहारे को
छोड़ आया था |
कभी पैसे की चाह में
मौत ने तांड़व मचाया
पैसा तो दूर
एक एक कौर के लाले पड़ गए ,
अब सहारा याद आया |
निकल पड़ा बस अकेला
मिलते गए और भी
फिर बिछड़ते भी रहे |
रास्ता लंबा था ,
कुछ साथ देते
कुछ साथ दे कर
फोटो लेते
कुछ थे
कुछ कर जाते चुपचाप
कुछ
बस बोल देते प्यार से
लगता आंसू निकल पड़ेगें |
चलते रहे
मिला तो खाया |
सूनी सड़कें थी सोने को
हम अपने भविष्य से
भूत की ओर जा रहे थे |
लगा ये सफर खत्म न होगा कभी
हुआ एक दिन
अपने थे आस पास
अब कोई ड़र नहीं
अब मौत से भी ड़र नहीं
भूख
बांट लेंगे
कौर- कौर
यही अतीत था
अब यही भविष्य है ।
करोना - 5
उन्हें लगता था ,
ये घर है
उनका
काम करते थे |
मालिक भी था यहाँ |
दूर था परिवार ,
भेजते थे
बस खर्च
अपने उस परिवार को
फिर
मालिक ने कहा
आज से काम बंद |
उसे लगा
शहर मे
वो हो गया अनाथ |
सब बंद हो रहा था
बस,
ट्रेन,
बाजार ,
सब
उसने सोचा
कैसे रहुंगा मै यहाँ |
बाहर
मौत घूम रही थी ,
अंदर भूख मारने लगी थी ,
क्या करे!
क्या करे!
क्या करे !
फिर निकल पड़ा
वो पैदल ही |
बहुत से और थे ,
अनिर्णय में
वे भी निकल पड़े |
लोगों को
अपनी फिकर होने लगी |
लोगों ने उन्हें
समाज विरोधी
देश द्रोही
और बेवकूफ
कहा |
कहने दो
भूख से बड़ी बीमारी
कोरोना भी नहीं है ,
बस उसने
यह साबित कर ही दिया
आप खा पी कर घर बैठो
वो तो चला अपने घर |
कोरोना- 4
वो दिन नहीं रहे , ये भी नहीं रहेंगे ।
आप भी रहोगे ,हम भी यहीं रहेंगे ।
बस घर मे सुरक्षित रहे सब ।
कोरोना नहीं,बस हम रहेंगे ।।
भंवर
मस्खरे का मुखौटा लगा कर रो लेना ।
वीराने में अंधेरे में अकेले में रो लेना ।
कमजोरी अपनी कोई दिखाना मत ,
अपने तो अपने दूसरों के गम ले लेना ।
हंस लेना सब के साथ,गम न लेना ।
जैसी चले हवा वैसे ही चल लेना।
पतवारें टूट जाऐंगी उल्टा चलने में,
खुद को किसी तूफ़ा में फसा न लेना ।
दोस्त को दोस्त समझ न लेना ।
दुश्मन से भी दोस्ती निभा लेना ।
दोस्तों से दुश्मन दुश्मनों से दोस्त है ,
इस भवंर मे खुद को फंसा न लेना |
सुख
सुख खोजता रहा मै।
गाड़ी में ,
बंगले में ,
पैसे में ,
रूतबे में ,
सुख खोजता रहा ।
शहरों में ,
मेलों में ,
बाजारों में ,
खोजता रहा
बस खोजता रहा ।
दिन बीते,
साल बीते,
बीता जीवन ,
बस खोजता रहा ।
हंस देता ,
मुस्करा देता ,
चंद बातें कर लेता ,
तो लगता सुखी हुँ ।
पर
क्या सही में ?
खोजता रहा ।
और वो
मुझे खोजता रहा ।
दर्द (गज़ल) )
जब दर्द- ऐ -ऐहसास हद से गुज़रने लगा
मै बेशाख़ता* तन्हाईयों मे हंसने लगा ।
ज़प्त* कर जाउंगा अपने ऐहसास को
लो फिर उसी गली से गुज़रने लगा ।
तेरी बदकारियों* का गुमान* है हमें
क्या करूं मोहब्बत मै करने लगा ।
तेरे ख़यालों में रहते है हर लम्हा
अब तो वक्त युंहीं गुजरने लगा ।
क्या किस्सा है तमाशा बरपा है क्यों
हुजूम में ईमानवाला दिखने लगा ।
औधें मुह गिरे राह में जख्म भी हुए
बद्दूआओं का असर दिखने लगा ।
ऊंचाईयों पर रुक सोचा जो एक बार
जमाने का हर सख्स छोटा लगने लगा ।
बहुत टीस देती है तुम्हारी यादें
फिर जख्मों को मै कुरेदने लगा ।
इंसानों में "बुत"बन के खड़ा हुँ मै
इंसानों से भरोसा भी उठने लगा ।
आलोक मिश्रा बुत
*
बदकारियों* -बुराईयाँ
बेशाख़ता*- अचानक
गुमान* - अनुमान
ज़प्त* - सहन करना
न देना
दिल के राज़ किसी को बता न देना ,
अपने खयाल किसी को जता न देना ।
बिक न जाऐं आरमान बाज़ारों में ,
कहीं उन्हें जोर से गुनगुना न देना।।
किसी को अपना सलीब न देना ,
किसी को अपना कफन न देना ।
जनाज़े मे सजधज कर आऐंगे ,
किसी को मौत का सांमा न देना ।।
कोरोना- 3
लड़ना है ,
उस दुश्मन से
जो ताकतवर है ;
जो अदृश्य है ,
जो सब ओर है |
कठिन है लड़ाई
छुप जाओ सब
अपने घरों में ,
भागाना है कोरोना
तो घरों में छुप जाना |
बंद करो...... बंद करो......
कुछ तो सोचोे कुछ तो समझो बंद करो बंद करो ।
इस बात पर उस बात पर बंद करो बंद करो ।
मरता है कोई मर जाए
भूखा कोई मर जाए।
राजनीति का पूरा चक्कर
वोट ही अपने काम आए ।
आज करो कल करो बंद करो बंद करो ।
बात कोई भी हो जाए
जनता को भाए न भाए।
यही तो अपना धंधा भाई
यही तो अपने काम आए।
रोज करो रोज करो बंद करो बंद करो ।
वो अपनी ताकत दिखलाए
हम पीछे कैसे रह जाए।
ताकत का यही है चक्कर
फिर एक बंद हो जाए।
बस यही नेक काम करो बंद करो बंद करो ।
चुनाव पास जो आए
जनता को कैसे भरमाए।
राम ही नैया पार लगाए
करनी अपनी कैसे बतलाए।
दूजे को नंगा सरेआम करो बंद करो बंद करो ।
जनता मुट्ठी भींचे जाए
तुमको ये समझाती जाए।
नाटक न ये बार बार करो
हमारी समझ में सब ही आए।
ये तमाशा न रोज करो बंद करो बंद करो ।
बकवास तुम्हारी चल जाती है
रोजी रोटी हमारी छिन जाती है।
उस दिन भूखे रहते है बच्चे
जो नेतागिरी तुम्हारी चल जाती है।
गुण्ड़ागर्दी न अब आम करो बंद करो बंद करो ।
कुछ तो सोचो कुछ तो समझो बंद करो बंद करो ।
इस बात पर उस बात पर बंद करो बंद करो ।
आलोक मिश्रा
कोरोना-2
सूनसान शहर
कांक्रीट का जंगल
आज वीरान है |
सारा ज्ञान
कम पड़ गया |
छोटे-बड़े ,
ऊच-नीच ,
धर्म -विधर्म ,
देश- विदेश ,
का भेद खत्म हो गया |
सब अपने घरों में
दुबके है |
उस
रचना से
जो उसके रचनाकार की
कृति है |
अबुझ अंजान
जान जाऐंगे हम इसे भी
पर तब तक
ड़रना होगा |
जानने के बाद भी
ड़रना होगा
उसके लिए
जो हम नहीं जान पाए
क्योंकि
ज्ञान अभी अधूरा है |
ज्ञान कभी पूरा होगा नहीं |
हमने देखा गज़ल
मज़बूत दरख्तों को गिरते हमने देखा है ।
बेपनाह हुस्न को बेनूर होते हमने देखा है ।
वक्त बदल देता है मायने और वज़ूद ।
सारे जहॉं को वक्त का गुलाम हमने देखा है ।
जिसकी पकीज़गी की कसमें खाता है जमाना ।
उसे आज सर ए राह बिकते हमने देखा है ।
आज ये जो वीरान खण्डहर देखते है आप ।
कभी उस हवेली की रौनक को हमने देखा है ।
फ़ासले कैसे बढे बढके वो ज़ुदा हो गए ।
उनकी मुहोब्बत का ये फ़साना हमने देखा है ।
वो ईमान का सबक देता रहा जलसों में ।
अलेहदा तो उसे बेईमान हमने देखा है ।
वो खाते रहे कसमें वफ़ादारी की ।
उनकी कसमों का मलाल हमने देखा है ।
पाला था जिसने जिगर के टुकडे को प्यार से ।
आज उसी बुजुर्ग को बेहाल हमने देखा है ।
'बुत’ खड़ा देखता रहा जमाने की रफतार ।
इंसान को वक्त के साथ रंग बदलते हमने देखा है ।
आलोक मिश्रा
कोरोना-1
नहीं देखा
अभी ऐसा
एक
छोटा सा
विषाणु
सब को
ड़रा
रहा है
सब बंद है
घरों में
वो खुला घूम
रहा है
शिकार की
खोज में
प्रकृति का
चमत्कार
कहें
या कुछ और
पर
ये देखा नहीं कभी |
मर गई वो
मर गई वो.
जिसे कोई नहीं जानता था
वो भी अपने आप को कहाँ जानती थी
बस जिए जा रही थी
जानती होती खुद को
तो समझ पाती सही और गलत
समझती उन को
जो उसके हित में सोचते थे
उसे जो मिला
उसे जी रही थी पूरे मजे मे
जिसे गलत कहना हो कहे
फर्क नहीं पड़ता उसे
उसकी चाहत थी
घर
परिवार
और प्यार की
उसे मिला
धोखा
मक्कारी
और बाजार
जो मिला वो जिया
चाहत बनी रही
मन के कोने में अकेलापन बना रहा
प्यार करने वालों का मक्कार चेहरा बना रहा
धोखे के घावों से मन रिसता रहा
चाहत चाहत ही रही
फिर उसने आस भी छोड़ दी
मजा लेने लगी
उस जिंदगी का
जो उसने चाही नहीं
बस मिली थी
वो नायिका हो सकती थी
वो ग्रहणी हो सकती थी
वो सब कुछ हो सकती थी
पर थी कुछ नहीं
बस जीती रही
जीने के लिए
और एक दिन
वो मर गई
परिभाषाऐं
सोचता हुँ
आदर्श थोथे होते है
विचार उबाऊ होते है
धर्म बिकाऊ होते है
पर नहीं
ये शब्द नहीं
ये जीवन है
जीने वाला इन्हें ओढ़ता बिछाता है
संजोता है संवारता है
तोड़ता है मरोड़ता है
परिभाषाए बदलता
मै से ऊपर उठ कर
सोचना छोड़ देता है
छोड़ देता है इंसानियत
तब ये शब्द रह जाते है
मार देता है वो
आदर्श
विचार
और धर्म को
अपने लिए
केवल अपने लिए ।
भूल
भूल तो
बहुत है
जिंदगी में ।
पर
भूल से भी
तुम्हें भूल जाउं
ये हो नहीं सकता ।
भूलना तुमको
मेरी
भूल होगी ।
जो
भूल हो ऐसी
जिंदगी मुझे
भूल जाए ।
आलोक मिश्रा बुत
सच कहता हुं
दिल की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें कहता हुँ मै।
झूठ को झूठ कहता हुँ मै
सच को सच कहता हुँ मै।
सच कहता हुँ मै सच कहता हुँ मै ।
भाषा का जंजाल नही
कल्पना का संसार नहीं
आदर्श का दिखावा नहीं
धारातल का संसार लिखता हुँ मै
दिल की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें कहता हुँ मै।
झूठ को झूठ कहता हुँ मै
सच को सच कहता हुँ मै।
सच कहता हुँ मै सच कहता हुँ मै ।
शब्दों की मर्यादा नहीं
साहित्य की समझ नहीं
व्याकरण का अनुसरण नहीं
मन की कहानी लिखता हुँ मै
दिल की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें कहता हुँ मै।
झूठ को झूठ कहता हुँ मै
सच को सच कहता हुँ मै।
सच कहता हुँ मै सच कहता हुँ मै ।
छंदो में हो रस नहीं
रागों में हो स्वर नहीं
तुक से सरोकार नहीं
गीत दर्द के लिखता हुँ मै
दिल की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें कहता हुँ मै।
झूठ को झूठ कहता हुँ मै
सच को सच कहता हुँ मै।
सच कहता हुँ मै सच कहता हुँ मै ।
तख्त की परवाह नहीं
वैभव की पनाह नहीं
वाह की भी चाह नहीं
दुख की कराह लिखता हुँ मै
दिल की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें कहता हुँ मै।
झूठ को झूठ कहता हुँ मै
सच को सच कहता हुँ मै।
सच कहता हुँ मै सच कहता हुँ मै ।
जो अब तक बोले नहीं
जिन्होंने लब खोले नहीं
दुख सहे पर ड़ोले नहीं
उनकी आवाज लिखता हुँ मै
दिल की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें कहता हुँ मै।
झूठ को झूठ कहता हुँ मै
सच को सच कहता हुँ मै।
सच कहता हुँ मै सच कहता हुँ मै ।
आस पास है पर दिखते नहीं
जो गरीब है पर बिकते नहीं
जो हार कर भी रूकते नहीं
उस हौसले की कथा लिखता हुँ मै
दिल की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें कहता हुँ मै।
झूठ को झूठ कहता हुँ मै
सच को सच कहता हुँ मै।
सच कहता हुँ मै सच कहता हुँ मै ।
चारण की कथा नहीं
प्रेयसी की व्यथा नहीं
कल्पना अथाह नहीं
आप पास की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें कहता हुँ मै।
झूठ को झूठ कहता हुँ मै
सच को सच कहता हुँ मै।
सच कहता हुँ मै सच कहता हुँ मै ।
नायक कोई राजा नहीं
नायिका कोई रानी नहीं
ये तो प्रेम कहानी नहीं
राह चलते की बात लिखता हुँ मै
दिल की बातें लिखता हुँ मै
दिल की बातें कहता हुँ मै।
झूठ को झूठ कहता हुँ मै
सच को सच कहता हुँ मै।
सच कहता हुँ मै सच कहता हुँ मै ।
आलोक मिश्रा बुत
कहां गया
उम्र की ड़़गर पर
जो बिछुड़ गया
वो कहाँ गया ।
अकला फिरता
रहा मै गया तो
कहाँ कहाँ गया ।
वो था मिला
प्यार से
जो गया तो
बस
कहाँ गया ।
बेगानों के बीच रहता हुँ
बच बच कर
वो चाहत का अपनापन
कहाँ गया ।
सयाना बन कर घूमता हुँ
वो मेरा बचपन
कहाँ गया ।
ढ़ूंढ़ता हुँ मै
उसे दर ब दर
मेरा मासूम चेहरा
कहाँ गया।
ये शाजिशे ,
मक्करियाँ
और आवारापन
वो हँसी ,
किलकरी
और याराना
कहाँ गया ।
सपनो का शहर था
सलोनी रानी
महकता चमन
चांदनी रातें
वो मीठी बातें
मै राजा
समय नहीं रुका
और मै भी
धूल की आंधियों
में सब कहाँ गया ।
आलोक मिश्रा
mishraalokok@gmail.com