नीमा के मुंह से सच्चाई सुनकर यासमीन फूट-फूट कर रोने लगी ।
कुछ देर तक ऐसे ही रोती रही और नीमा ने चुप नही कराया । वह उसे जी भरकर रोने देना चाहती थी।
नसीम- बेगम जरा देखो बच्ची बच्ची कब से रो रही है चुप कराओ!
नीमा - अरे देख रही हूँ , मुझे भी पता है वो रो रही है तो आप भी तो गुमसुम बैठे है एक जगह ।
अब मर्द जात हो रोकर दिखाओगे तो मर्दानगी कम ना हो जाएगी।
नसीम- नहीं बेगम यह तो ख़ुदा की दी हुई सौगात है आँसू ! हाँ कुछ हद तक आप ठीक कह रही हैं वैसे देखा जाए तो हमारे समाज ने ही कई रिवाजें और पाबंदियां बनाई हैं जैसे हम खुलकर रोना तो दूर खुलकर ज्यादा देर हंस भी नहीं सकते और ज्यादा बातें करने लगे तो बोलेंगे कि देखो बेगमों की तरह गप्पे मार रहे हैं ।
हमें इसे बदलना चाहिए और अपने लोगो को यह बताना होगा कि हम सब इन्सानी कौम जो औरत और आदमी के चोले पहने हुए हैं हम सबके भीतर एक दिल है जो धड़कता है तो बेफिजुली रिवाजों को क्यों मानना जो हमे खुलकर इजहार करने से रोके ।
मिया -बीवी की बातों में लॉजिक तो था ही काफी देर तक बातें करते रहे और यासमीन घर जाने की इजाज़त मांग रही है .....!
नसीम बोले....." बेटा तेरा ही घर है पहले कुछ खा ले जाके किचन में जो खाना है निकाल ले । तेरी ख़ाला ने आज खीर बनाई थी हमने तो नही खाया । अगर तू खाएगी तभी हम खाएंगे!
यह सुनकर यासमीन मना ना कर सकी वह तुरन्त हाथ-मुंह धोकर किचन में गई 3 थाल निकाला और कद्दू की सब्जी, रोटी, खीर से तीनों प्लेट सजा दिया और आंगन में लेकर आई ।
दोनों मिया-बीवी बड़े खुश हुए कि देखो बिटिया हमारी कितनी परवाह करती है ।
नसीम ने सिर हिलाया .. हाँ बेगम देख रहा हूँ।
अब तीनो खाट पर बैठ गए , जैसे ही पहला निवाला यासमीन ने उठाया वह खा नहीं सकी ।
नीमा- क्या हुआ बेटी ? खाना अच्छा नहीं बना ?
यासमीन - नहीं नहीं ख़ाला जान आप ऐसी बातें ना कीजिये।
हमें तो पूरा खाना अब ना जाने नसीब भी होगा या नहीं ।
नीमा- बेटी क्यों नहीं होगा ? हर रात के बाद दिन होता है और सब ठीक हो जाएगा । हम हैं ना ।
यासमीन- पता नहीं अम्मी कैसी होंगी ? मैं घर पर नहीं हूं ना कौन खिलायेगा उन्हें ?
नीमा- तू फिक्र छोड़ और चुपचाप खाने पर ध्यान दे । तुझे मालूम है वो जो औरत है जिनके बालको को तू फ्री पढ़ाती है वही औरत आज आई थी मेरे पास । मैं बताना भूल गई तुम्हे । वो कह रही थी कि मालकिन मैं कुछ दिन से बहुत बीमार थी इसलिए शबाना बेगम के यहाँ नहीं जा सकी आज भी कुछ ठीक नहीं लग रही पर जरूरी काम था इसलिए निकली हूँ।
तो मैंने उसे बोल दिया यासमीन अपने खालू जान के साथ बाहर गई है आप शबाना बेगम का तब तक ख्याल रखना। वो जल्द ही आ जायेगी ।
बस बेटी वो नेक औरत अपना जरूरी काम छोड़कर तुम्हारी अम्मी के पास हैं । उन्होंने खाना खिलाकर दवाईयां भी दे दी होंगी।
यासमीन - या अल्लाह तेरा लाख लाख शुकर है ...!
तू हम मजरूमों की किस तरह मदद करता है यह तेरे सिवा कोई और नहीं जान सकता , तू ही सबका अपना है और तुझसे बढ़कर कोई नहीं है जो अपने बन्दों पर इस तरह करम करता है ।
क्यों खालू जान? मैं ठीक कह रही हूँ ना ...?
नसीम- हाँ बेटी तू गलत कब कहती है !
सभी के चेहरे पर एक बार फिर मुस्कान आ गया मानों पतझड़ के बाद पेड़ों पर नए पत्ते आ गए हो और जीवन का संचार हो गया हो ।