Mulpunji - 3 in Hindi Travel stories by Shwet Kumar Sinha books and stories PDF | मूलपूंजी - भाग तीन

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मूलपूंजी - भाग तीन

...सारी बातें सुन टीटीई लक्ष्मण ने अपने साथ खड़े जवानों को पूरे डिब्बे की छानबीन करने का आदेश दिया। सीट पर बैठे प्रकाश लाल के आँसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उस बारह वर्षीय बच्चे रौशन को भी जैसे काठ मार गया था और उसकी सुर्ख आँखें उसके मन की हालत चीख-चीखकर बयां कर रही थी।
सारे जवान तुरंत पूरे डिब्बे में फैल गए और हरेक यात्रियों के सामानों की तलाशी लेने लगे। खुद टीटीई लक्ष्मण भी प्रकाश लाल की कथित मूलपूंजी की सघन खोजबीन में जुटा था। आँसू बहाते प्रकाश लाल को उसके पड़ोसी सीटों के यात्रियों ने बड़ी मुश्किल से समझाबुझा कर चुप कराया।
“सर, थोड़ा इधर आइए!” - डिब्बे के दूसरे छोर से एक महिला प्रहरी ने टीटीई को आवाज लगायी और वहां आसपास बैठे यात्रियों की सुगबुगाहट तेज होने लगी।
“क्या हुआ? मिली क्या? सन्दूक?” – महिला प्रहरी के पास आकर टीटीई ने पूछा फिर उसकी नज़र वहीं पास वाली सीट पर मुंह लटकाकर बैठे एक ग्रामीण दंपत्ति पर पड़ी।
“सर, ये रही सन्दूक! इन पति-पत्नी ने आपसी मिलीभगत से चुरायी थी। इनकी सीट के नीचे कपड़े से ढंका हुआ मिला।”- महिला प्रहरी ने बताया। टीटीई लक्ष्मण ने सिर झुंकाकर बैठे उन दंपत्ति की तरफ देखा फिर उसे याद आया कि टिकट चेक करते समय ये जोडे रो रहे थे।
“देखने से कितने भोले-भाले लगते हो! सन्दूक चुराते तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आयी? आं?? अब जेल में चक्कियाँ पीसना!! तुम्हारी इस घिनौनी हरकत की वजह से उस बूढ़े बाबा ने रो-रोकर अपना हाल बुरा कर लिया है! पकड़ लो इन दोनों को!!” – टीटीई ने ऊंचे आवाज़ में कहा और वे ग्रामीण दंपत्ति उसके पैरों पर जा गिरे।
“नहीं साहब, ऐसा मत करना! भगवान के लिए ऐसा मत करना! हमसे गलती हो गई! आज से पहले ऐसा कोई काम नहीं किया और वादा करता हूँ आज के बाद भी ऐसा कोई पाप नहीं करूंगा! बस... इस बार माफ कर दो साहब! बहुत मजबूरी आन पड़ी थी, इसीलिए ऐसा करने को मजबूर होना पड़ा!”- बिना रुके दोनों पति-पत्नी कोरस में गिड़गिड़ाए जा रहे थे।
“हम्म...पकड़े जाने पर हर चोर ऐसे ही सफाई देता है! भला ऐसी भी क्या मजबूरी आन पड़ी कि तुमदोनों को चोरी करने पर मजबूर होना पड़ा?? तुम्हें जरा भी अंदाजा है कि तुमने उस बाबा की ज़िंदगी भर की मूलपूंजी पर हाथ साफ कर डाला!” – टीटीई लक्ष्मण ने पैरों पर पड़े उस दंपत्ति को घुड़का और उनसे अपने पैर छुडाने की कोशिश करने लगा।
“जानता हूँ, साहब! ट्रेन में सवार होने के बाद से मैंने कई बार देखा था, वो बूढ़े बाबा इस सन्दूक की जी-जान से रखवाली कर रहे थे। तभी समझ में आ गया था कि जरूर इसमें कोई कीमती सामान है, जिससे हमारी बिटिया की जान बच सकती है!” – हाथ जोड़कर उस ग्रामीण ने टीटीई से कहा फिर निराशा भारी आँखों से अपनी पत्नी की तरफ देखा।
“बिटिया की जान?? अरे शरम करो!! अपने बच्चों का नाम लेकर इस पाप से छुटकारा पाना चाहते हो! कैसे माँ-बाप हो तुमलोग!!!” – वितृष्णा के भाव से उनकी तरफ देख टीटीई लक्ष्मण ने कहा। उसकी बात सुन ग्रामीण हड़बड़ा कर उठा और अपने थैले में कुछ निकालने लगा।
“सर, ये पति-पत्नी ड्रामा कर रहे हैं ताकि जेल जाने से बच जाएँ!” – पास खड़े एक जवान ने टीटीई से कहा, जिसपर आसपास बैठे यात्रियों ने भी हाँ में हाँ मिलायी। पर न जाने क्यूँ टीटीई लक्ष्मण को एकबार उन दंपत्ति की सारी बातें सुनने को जी चाह रहा था। वैसे भी उनकी बातें सुनने में हर्ज ही क्या था नहीं तो उसे पकड़कर वे सब गिरफ्तार तो करने ही वाले थे।
अपने बैग से कुछ निकालकर उस ग्रामीण ने टीटीई की तरफ बढ़ा दिया। यह किसी कैंसर अस्पताल का एक फाइल था।
“क्या है ये?”- टीटीई ने फाइल की तरफ देखकर पूछा।
“साहब, ये हमारी इकलौती बिटिया की बीमारी की फाइल है! उसे ब्रेन कैंसर है और डॉक्टर ने बिना देर किए उसका ऑपेरेशन करने की बात कही है! उसी के लिए पैसों का इंतजाम करने गया था, पर कर न पाया। फिर बाबा का सन्दूक दिखा तो बिटिया की जान सलामती की उम्मीद जैसे जग-सी गई। हमें माफ कर दीजिए, साहब! भूल गया था कि गलत काम कभी भी किसी को सही दिशा में लेकर नहीं जा सकता!”- ग्रामीण ने रुँध गले से कहा, जिसकी पलकों पर अश्रू डेरा जमाने लगे थे।

क्रमशः..