अक्सर एकांत पलों में जब मैं अपने लक्ष्य विहीन विगत जीवन का विश्लेषण करने लगती हूँ तो मन को एक अन्तर्द्वन्द से घिरा हुआ पाती हूँ।वैसे अपनी स्थिति के लिए जिम्मेदार तो व्यक्ति स्वयं होता है या परिस्थितियां कुछ इस कदर बांध देती हैं कि हम सही-गलत का निर्णय ही नहीं कर पाते।शायद हम कभी समझ ही नहीं पाते कि हम चाहते क्या हैं?औऱ थक-हारकर समय की नदी में अपनी जीवननौका बिना पतवार के लहरों के भरोसे छोड़ देते हैं।
दो बहन एवं एक भाई में मैं सबसे बड़ी थी।14-15 की होते-होते लड़कियाँ अक्सर काफ़ी समझदार हो जाती हैं, विशेषतः जब आसपास का माहौल अत्यधिक संघर्षों से भरा पड़ा हो।
पिता सबसे बड़े थे,दो छोटी बहनें,दो छोटे भाई अर्थात दो बुआ एवं दो चाचा जी, दादी तथा बाबा।बाबा प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे।गाँव में अच्छी-खासी खेती-बाड़ी थी,किंतु पटीदारों ने अधिकांश पर कब्ज़ा कर रखा था।पिताजी एमएससी करने के बाद किसी प्राइवेट संस्थान में नौकरी करने लगे,ततपश्चात उनका विवाह हो गया।दादाजी का अत्यधिक लाड़ था उनपर,परिणामस्वरूप वे थोड़े लापरवाह व्यक्तित्व के थे,कहीं नौकरी पर टिक नहीं पाते थे,जबकि उस समय अर्थात आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व अध्यापन या अन्य क्षेत्रों में सरकारी नौकरी मिलना अत्यंत सुगम था।
आगामी सात सालों में वे हम तीन सन्तानों के पिता बन गए।एक अध्यापक की तनख्वाह में इतने बड़े परिवार का भरण-पोषण आसान कार्य तो था नहीं।चाचाओं के थोड़े समझदार होने पर पिताजी ने अपने दोनों भाइयों के साथ मिलकर मुकदमा लड़कर अपनी पुष्तैनी जमीन छुड़ा ली।बाबा के आदेशानुसार आधी जमीन पर बाग लगवा दिया गया और आधे पर कृषि कार्य।इन सब समस्याओं के मध्य दोनों चाचा अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर सके।छोटे चाचा हाईस्कूल भी नहीं कर सके।बड़े ने CA एक वर्ष करने के पश्चात अर्थाभाव के कारण छोड़ दिया।
पिताजी ने आर्टिफिशियल ज्वेलरी शॉप प्रारंभ किया, परन्तु खुले हाथ खर्च करने की प्रवृत्ति के कारण उसे भी सुचारू रूप से नहीं चला सके,परिणामतः वह भी बंद हो गई।हम तीनों भाई-बहनों से बुआ तथा चाचा को विशेष स्नेह था।माँ तो वैसे भी पूरे दिन घर के कार्यों में व्यस्त रहतीं, हमारी परवरिश बुआओं के हाथों हो रही थी।
दोनों बुआएँ विवाहयोग्य हो चुकी थीं, उस समय अभी दहेजप्रथा बाल्यावस्था में थी,जिसके पावँ अभी निम्न-मध्यवर्ग तक नहीं पहुंच पाए थे,इसलिए कुलीन परिवार की सुंदर कन्याओं का विवाह अपेक्षाकृत आसानी से हो जाता था।कुछ पैसों की व्यवस्था अनाज बेचकर हुई,कुछ थोड़ी सी जमीन बेचकर, अंततः दोनों बुआजी का विवाह अच्छे खाते-पीते घर में सम्पन्न हो गया।
दोनों चाचाजी अहमदाबाद चले गए, वहां उन्होंने छोटी सी पूँजी से व्यापार प्रारंभ किया।उनके अथक परिश्रम,सौभाग्य तथा बड़े चाचा के बुद्धिकौशल के कारण कुछ ही वर्षो में उनका व्यवसाय वृहद रूप से स्थापित हो गया, ततपश्चात सुयोग्य कन्याओं से उनका विवाह हो गया।
उपरोक्त घटनाएं मेरे हाई स्कूल में पहुंचने तक घट चुकी थीं।उसी वर्ष अचानक पिताजी अवसादग्रस्त हो गए।कुछ ही माह में उनका अवसाद मानसिक असंतुलन के द्वितीय चरण में प्रवेश कर गया।जब-तब उन्हें दौरा पड़ता तो हम बच्चों सहित पूरे परिवार को छत पर खड़े होकर धारा प्रवाह गालियाँ सुनाते, अन्य अनेकों अभद्र आक्षेप-आरोप लगाते।घर में खाना नहीं खाते क्योंकि उनके मस्तिष्क में शक व्याप्त हो गया था कि सभी उन्हें जहर देकर मार देना चाहते हैं।माँ को तो सबसे बड़ा दुश्मन समझते थे।घर में हर समय दहशत का माहौल रहता,हम सभी हर समय डरे-सहमे रहते।जब कभी बुआ-चाचा आते,तब थोड़े समय हमारे चेहरों पर मुस्कान आ जाती थी।
इसी मध्य दादीजी का देहांत हो गया एवं दादाजी रिटायर हो गए।दादाजी के पेंशन एवं चाचाजी लोगों की मदद से हमारा गुजर-बसर हो रहा था।कई बार सबने पिताजी का इलाज करवाने का प्रयास किया, किंतु वे औषधियां लेते ही नहीं थे, न घर पर भोजन करते थे कि दवा खाने में ही मिलाकर किसी भांति दे दिया जाय।,अतः ठीक होने का प्रश्न ही नहीं उठता था।स्वतः बीच -बीच में थोड़ा सुधार होता प्रतीत होता, फिर वही ढाक के तीन पात।
विपत्तियाँ कितनी भी हों,वक़्त कब ठहरता है।हम दोनों बहनों ने MA कर लिया एवं भाई ने चाचाजी की सहायता से MBA करके जॉब प्रारंभ कर दिया।इधर पिताजी की विक्षिप्तता अत्यधिक बढ़ गई तो उन्हें जबरन डॉक्टर के पास ले जाया गया।शॉक चिकित्सा एवं तीव्र औषधियों के सघन चिकित्सा प्रयास से उनकी हालत में काफी सुधार आ गया।नौकरी कर पाने का तो प्रश्न ही नहीं रह गया था,हाँ, बस इतना ही काफी था कि उनका उग्र व्यवहार अब अत्यधिक शांत हो गया था।
अब चाचा एवं बुआओं ने मेरे विवाह के लिए प्रयास करना शुरू कर दिया, लेकिन मैंने स्पष्ट मना कर दिया क्योंकि माँ, तीन मौसियों, एक बुआ तथा आसपास के कुछ परिचितों के दुःखद एवं अति समस्याग्रस्त गृहस्थ जीवन का मुझपर इतना नकारात्मक प्रभाव पड़ा था कि मुझे विवाह से नफ़रत हो गई थी।सबने मुझे समझाने का अत्यधिक प्रयास किया, परन्तु मैं टस से मस नहीं हुई।अंततः थक-हारकर छोटी बहन का विवाह कर दिया गया।इसके पश्चात दादाजी भी स्वर्गवासी हो गए।
दो साल बाद भाई जो हम दोनों बहनों के मध्य का था,का भी विवाह संपन्न हो गया।भाई अपने परिवार के साथ जॉब वाले शहर में व्यवस्थित हो गया।उसका हाथ भी पिताजी की तरह ही खर्चीला था,अतः हमारे लिए वह कुछ भी नहीं करता था।हम चाचाजी के खरीदे मकान में ही रहते थे तथा उनके योगदान एवं गाँव से खेती के आए पैसों से हमारा घर खर्च चल रहा था।विवाह के दो वर्ष के भीतर भाई एक बेटी का पिता बन गया।उसका जन्मोत्सव पिताजी ने अपने खर्च से धूमधाम से मनाया।ये वही पिताजी थे,जिन्होंने अपने सन्तानों के प्रति किसी भी कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया था।
मैं तैतीस वर्ष की हुई थी कि तभी मेरे पीरियड्स कुछ अनियमित होने लगे।स्त्री रोग विशेषज्ञ को दिखाने पर ज्ञात हुआ कि मेरे गर्भाशय में अमरूद के आकार का ट्यूमर हो गया है।औषधि चलती रही, यह ग़नीमत रहा कि ट्यूमर का आकार वहीं स्थिर हो गया।
बहन के वैवाहिक जीवन की समस्याएं ज्ञात होती ही रहती थीं।उधर भाई की हरकतों के कारण उसके भी परिवार में क्लेश प्रारंभ हो गए,क्योंकि अपने शौकों पर तो वह खुले हाथों ख़र्च करता था, न भविष्य के लिए बचत,न किसी तरह की योजना।भावज शिक्षित युवती थी,पता नहीं वह भी ठीक से गृहस्थी चलाती नहीं थी या भाई की गलती थी पता नहीं, लेकिन आए दिन घर में चीख पुकार होती रहती थी, बच्ची बेचारी सहम जाती थी।
इन सब बातों का भी मेरे मस्तिष्क पर नकारात्मक असर पड़ रहा था, कुछ विपरीत परिस्थितियों का दुष्प्रभाव, मैं भी मानसिक अवसाद से ग्रस्त होने लगी थी।मेरे स्वभाव में चिड़चिड़ापन व्याप्त होता जा रहा था।माँ का परेशान होना स्वभाविक था,एक तो उन्होंने जिंदगी भर संघर्ष ही किया था,ऐसा प्रतीत होता था कि विधाता उनके भाग्य में सुख लिखना ही भूल गए थे।दूसरे एक अविवाहित, अस्वस्थ पुत्री, जो अपने पैरों पर भी खड़ी होती तो ग़नीमत रहती।उन्हें हर समय यह चिंता खाए जाती थी कि उनके बाद उनकी बेटी का क्या होगा।वे अच्छी तरह जानती थीं कि बेटे के पास बेटी का गुजारा तो होने से रहा।
इसी मध्य गाँव की थोड़ी जमीन बेची गई,जिससे पिताजी को 10 लाख रुपये प्राप्त हुए।ऐसा प्रतीत होता था कि उन्हें अपनी आसन्न मृत्यु का भान हो गया था, अतः कुछ समय पूर्व उन्होंने उस धनराशि का बड़ा हिस्सा प्रधानमंत्री पेंशन योजना में मेरे एवं माँ के नाम जमा कर दिया था।
कुछ माह पश्चात ही हृदयगति रुक जाने के कारण वे स्वर्गवासी हो गए।यह हमारे परिवार पर एक और बड़ा आघात था।वे कुछ करें न करें, किन्तु उनकी छत्रछाया में एक सुरक्षा का अहसास तो रहता ही था।
मैंने एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षण कार्य प्रारंभ कर दिया, जिससे व्यस्तता रहने से मानसिक बिखराव कम होगा,साथ ही मेरे अंदर कुछ आत्मविश्वास आएगा।
अक्सर मैं सोचती हूँ कि मेरा अविवाहित रहने का निर्णय क्या वाकई ग़लत तो नहीं है?ऐसा नहीं है कि मेरे अंदर की स्त्री प्रेम नहीं चाहती।कभी अपनी किसी खुशहाल सखी का परिवार देखती हूँ तो मन में एक अभाव की लहर उठती अवश्य है।अभी भी माँ एवं अन्य हितैषियों ने मुझे समझाने का प्रयास बंद नहीं किया है लेकिन मैं जानती हूँ कि अब कोई विधुर बाल-बच्चेदार या तलाकशुदा ही मिलेगा, जिससे मेरा निर्वहन अत्यंत दुष्कर है।फिर मेरे मन का भय इतना प्रभावी हो चुका है कि मैं किसी भी विषम परिस्थिति में तनिक भी सामंजस्य नहीं बिठा सकती।
मैं सम्भवतः अपनी असुरक्षा के कारण माँ के स्वास्थ्य के प्रति अतिरिक्त सावधान रहती हूँ,जिससे वे कभी-कभी परेशान हो उठती हैं।मैं उनके जाने की कल्पनामात्र से ही विचलित हो जाती हूँ।हालांकि यह सब तो ईश्वराधीन है,जिसके भाग्य में जितना संघर्ष लिख दिया गया है, उसे तो भुगतना ही है।यही जीवन है।
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