Jivan ka Ganit - 4 in Hindi Fiction Stories by Seema Singh books and stories PDF | जीवन का गणित - भाग-4

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जीवन का गणित - भाग-4

भाग - 4

सुबह अवन्तिका जब वैभव के पास आई तो वह गहरी नींद में था। एक लाड़ भरी नज़र अपने सोते हुए बिट्टू पर डाल कर अवन्तिका बाहर निकल आई, किचन में नीतू नाश्ते की तैय्यारी कर रही थी।

“क्या बना रही है, नीतू?” अवन्तिका ने किचन में आकर उससे पूछा तो वह एकदम से चौंक गई।

“अरे आंटी आप तैयार भी हो गईं?” अवन्तिका को ऑफिस के लिए तैयार देख अचरज भरे स्वर में नीतू ने पूछा । उसे शायद उम्मीद थी कि अवन्तिका छुट्टी ले लेगी आज। कोई और समय होता तो वह पक्का यही करती मगर मंथ क्लोजिंग का टाइम था वह चाहकर भी छुट्टी नहीं ले सकती थी। वैभव उसके कामकाज की जिम्मेवारियों को अच्छी तरह समझता था।

नीतू ने नाश्ता लगाने का पूछा तो वह फिर से वैभव को देखने चली गई थी साढ़े आठ बज चुका था फिर भी वैभव के जागने की उम्मीद कम थी,वह अब भी सो रहा था।

बेमन से अवन्तिका ने थोडा सा नाश्ता किया और नीतू को सामान्य से निर्देश दिए और ऑफिस के लिए निकल गई। आज वह जानबूझ कर गाड़ी नहीं ले गई थी जिससे अगर वैभव कहीं जाना चाहे तो उसे कोई दिक्कत ना हो,वैसे भी उसके बैंक का कच्चा रास्ता तो बहुत कम देर का था।

देर तक जागते रहने के कारण वैभव की आँख ग्यारह बजे के बाद ही खुली। टाइम देखकर समझ आ गया था कि माँ तो जा चुकी होगी। किचन में देखा तो नीतू नज़र नहीं आई तो वह बाथरूम चला गया। नहाकर आने पर देखा नीतू किचन में है तो उसे वही से पुकारा,” दीदी, चाय पिला दो ज़रा!”

“नीतू शायद चाय ही बना रही थी झटपट ट्रे में रख ले आई, “ भैया, नाश्ता भी तैयार है ले आऊं क्या?”

“हाँ प्लीज़, बहुत भूख लग रही है।”

नीतू फटाफट नाश्ता भी लगा लाई।

"अरे वाह! आलू का परांठा!" वैभव नाश्ते की प्लेट देखकर बच्चों की तरह किलक उठा। उसे देख नीतू भी मुस्कुरा उठी।

"मम्मा नाश्ता करके गई है ना?" मुंह में बाइट रखते हुए वैभव ने नीतू से पूछा।

"हां किया था ज़रा सा पोहा खाया है बस…" नीतू ने अटकते हुए बताया।

"टिफिन ले जाती है मम्मा?" वैभव ने यूंही पूछ लिया।

"पहले ले जाती थीं पर ऐसे ही वापस आ जाता था। फिर मैंने देना ही बंद कर दिया।" नीतू ने शिकायती स्वर में कहा।

अचानक वैभव को कुछ सूझा, "मम्मा का लंच कितने बजे होता है दीदी? डेढ़ बजे ना!"

"हां, डेढ़ बजे से से ढ़ाई बजे तक एक घंटे का। चाहें तो आराम से घर आकर खाना खाकर जा सकती हैं पर कभी नहीं आती।" नीतू को भी जैसे आज अपने मन की सारी भड़ास निकालने का मौका मिल गया था।

"अभी तो बहुत टाइम है आप ऐसा कीजिए कुछ अच्छा सा बनाकर पैक कर दीजिए मैं ले जाऊंगा उनका लंच वहीं उनके साथ उनके ऑफिस में ही कर लूंगा।"

नीतू भी खुश हो गई, "ठीक है भैया मैं बनाकर पैक कर देती हूं।" नीतू ने वैभव के जूंठे बरतन उठाए और किचन की ओर चली गई।

वैभव ने अपना लैपटॉप चार्जिंग पर और मोबाइल लेकर बाहर लॉन में आ गया और वादे के मुताबिक आयुषी को कॉल लगा दी।

पहली बार रिंग करने में ही फोन उठ गया। "मैं तुम्हारी ही कॉल का वेट कर रही थी।" आयुषी की खिलखिलाहट भरी आवाज़ कानों में पड़ते ही वैभव भी खुश हो गया।

सब्ज़ी काटती नीतू को वैभव की धीरे धीरे बोलने और ज़ोर ज़ोर से हंसने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं पर उसने अपना ध्यान वहां से हटाकर खाना बनाने पर लगा लिया।

एक बजे तक पूरा खाना तैयार था। साथ में टिफिन में सलाद और बॉटल में आर ओ का पानी भर कर छोटे से बैग में खाना पैक कर नीतू वैभव को बताने बाहर आई। वैभव अब भी मोबाइल पर बात कर रहा था। नीतू को देख उसने घड़ी पर नज़र मारी और आयुषी को बताया कि दीदी ने खाना पैक कर दिया है अब वो जा रहा है, मां के पास।

फोन रखकर वैभव ने नीतू से खाने का थैला पकड़ा और कार में रख लिया।

बैंक के गेट पर अवंतिका की गाड़ी देख एक बार तो राम प्रकाश चौंक गया पर अगले ही पल समझ आया तो दौड़ कर गेट खोला और कार के पास जाकर खड़ा हो गया।

"मां अंदर ही हैं?" खाने का बैग गाड़ी से निकालते हुए वैभव ने पूछा।

"जी, जी भैया।" कहकर राम प्रकाश ने बैंक का अंदर वाला गेट खोल दिया। छोटा सा मकाननुमा ऑफिस, जिसका पहला रूम छोड़कर दूसरे रूम पर नेमप्लेट लगी थी। मिसेज अवंतिका चौधरी।

वैभव ने हौले से नॉक किया, काम में डूबी अवंतिका ने हल्के से सिर ऊपर किया मगर निगाह नीचे फाइल पर ही थी, कुछ सेकेंड बाद निगाह उठाई तो बुरी तरह चौंक गई।

"अरे बिट्टू तू यहां?"

साथ में बैठे दूसरे लोगों ने भी मुड़ कर पीछे खड़े वैभव को एक साथ देखा।

"आ जा वहां क्यों खड़ा है?" अवंतिका ने अपने बगल में पड़ी कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा।

स्टॉफ की आंखों में प्रश्न देख हंसते हुए अवंतिका ने वैभव का परिचय करवाते हुए कहा, "ही इज़ माय सन, वैभव!"

केबिन में बैठे सभी धीरे-धीरे कुर्सियां छोड़कर खड़े हो गए और बारी-बारी से वैभव के बगल से गुजरते हुए अवंतिका के चैंबर से बाहर निकल गए।

अपनी पूरी बत्तीसी दिखाता हुआ वैभव अवंतिका के पास आकर बैठ गया। अवंतिका ने घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया। फटाफट ऑफिस में छोटी टेबल पर उनका लंच लग चुका था। अवंतिका ने आज ना जाने कितने अरसे बाद लंच किया था।

वैभव सामान समेट कर घर जा चुका था। अवंतिका फिर से काम में व्यस्त हो गई थी। सहकर्मियों में सुगबुगाहट थी किसी को अंदाज़ा नहीं था कि अवंतिका इतने बड़े लड़के की मां है। हालांकि अवंतिका ने एक दो बार ऑफिस ज़िक्र किया था कि बेटा लखनऊ में हैं मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है। फिर भी सामने से देखकर जूनियर क्लर्क बबिता से रहा ना गया, "मैडम को देखकर लगता नहीं ना इनके बच्चे इतने बड़े होगें।" उसने धीरे से फुसफुसाकर बगल में बैठी अपनी सहयोगी रीना से कहा तो उसकी आंखे चमक उठी, "सच में यार कितना हैंडसम बेटा हैं ना मैडम का, इनकी तो हाइट कोई खास नहीं है, पर बेटा छह फुट से कम नहीं होगा!"

"हां छह फुट से ज्यादा ही हाइट लगी मुझे तो, एकदम सिद्धार्थ मल्होत्रा लगता है।"

अवंतिका का प्रभावशाली व्यक्तित्व उनके बेटे वैभव की तुलना में आज हल्का पड गया था। किसी आंखों में, तो किसी की जबान पर वैभव की ही प्रशंसा के भाव तैर रहे थे।

उप्रेती जी,बड़े बाबू जो बैंक के सबसे पुराने कर्मचारी थे। उन्होंने तो अवंतिका से ही कह दिया, "वैभव बाबू की पर्सनालिटी निखर गई है मैडम, पिछली बार देखा था तब से अब तक तो बहुत बदल गए हैं।"

अवंतिका ने मुस्कुराकर उत्तर दिया, पिछली बात आप जब मिले थे तब ट्वेल्थ के एग्जाम दे रहा था। पांच साल हो गए,उप्रेती जी।"

"जी,जी मैडम" कह कर अपनी फाइल समेट कर बाहर निकल आए थे।

अवंतिका ने अपना स्वभाव ही ऐसा बना लिया था, सामने वाले से कभी कोई अभद्रता तो नहीं करती थी परंतु इतने सीमित शब्दों में बाद करती कि अगले को उसकी बात से कोई सिरा ही ना मिलता जिससे बात आगे बढ़ाई जा सके। अकेली औरत का जीवन यूं भी तपोवन सा हो जाता है,जिससे पर कदम कदम पर भटकाने वाले मिलते हैं ज़रा सी बेख्याली से नाम खराब करने का अवसर लोगों के हाथ लग जाया करता है।

अपना दामन हमेशा उसने ऐसी बेकार की चीज़ों से बचाकर रखा था। इसी लिए बाहरी दुनिया से उसका व्यवहार न के बराबर था। उसकी सारी छुट्टियां सिर्फ बिट्टू के लिए होती थीं। कभी किसी पिकनिक पार्टी या ऑफिस से बाहर होने वाले किसी भी कार्यक्रम का हिस्सा नहीं बनी। इतने छोटे से शहर में,जहां सब एक दूसरे को जानते हैं,वहां भी उसने किसी से भी परिचय औपचारिकता से आगे नहीं बढ़ने दिया।अपने आप को बहुत सीमित करके रखा था अवंतिका ने।

इतने सालों के साथ के बाद भी, नीतू कितना कुछ कह लेती है, लेकिन उनके अतीत और अकेले रहने के बारे में उसकी भी कभी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई ना कभी उसने किसी तरह की कोई जिज्ञासा ही जताई।