Jivan ka Ganit - 2 in Hindi Fiction Stories by Seema Singh books and stories PDF | जीवन का गणित - भाग-2

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जीवन का गणित - भाग-2

भाग - 2

"सारा प्यार यहीं लुटा देंगी क्या?" नीतू की शरारत भरी आवाज़ कानों में पड़ी तो अवंतिका का ध्यान गया… उसकी आंखों से से आंसुओं की धारा बह रही थी।

एक सजग अधिकारी होने के साथ ही बेहद संवेदन शील मां भी थी वह।

वैभव ने मां को एक हाथ से कंधे से पकड़ा और दूसरे हाथ में उसकी शॉल और बैग थामा और दोनों कमरे में भीतर आ गए।

अवंतिका ने आज घर आकर हमेशा की तरह कपड़े नहीं बदले थे। बिट्टू के साथ आकर सोफे पर बैठ सेंटर टेबल पर पैर टिका लिए।

बिट्टू मां की बगल में ही बैठ गया।

"सफर ठीक रहा तेरा?"

"हां, एकदम बढ़िया...काठगोदाम तक तो सोता आया हूं।" वैभव ने हंसते हुए बताया। उसकी हंसी से पूरा घर गूंज गया। हमेशा चुप रहने वाले घर को वैभव की हंसी बहुत रास आ रही थी।

नीतू चाय बनाकर ले आई वे दोनों वहीं बैठे चाय के साथ अपने अपने अनुभव एक दूसरे को सुनाते रहे। अचानक वैभव कुछ याद करके बोला,"एक मिनट मां, आपके लिए कुछ है…"

तेज़ी से कमरे में गया और अपने बैग में से एक पैकेट निकाल कर मां के हाथ में पकड़ा दिया।

"क्या है ये?" उत्सुकता से अवंतिका ने पैकेट को उलट पलट कर देखते हुए वैभव की ओर देखा।

"खोलिए तो सही!" वैभव वहीं नीचे कालीन पर अवंतिका के सामने बैठ कर उसी को देख रहा था,जो गिफ्ट हाथ में पकड़कर किसी छोटी बच्ची की तरह उत्साहित हो गई।

पॉलिथीन से निकाल कर गुलाबी रंग की पैकिंग को फाड़ा तो उसके अंदर से गहरे स्लेटी रंग की चिकन वर्क की साड़ी निकली। जिसे देखकर अवंतिका मुग्ध हो गई," कितनी सुंदर है ये तो बिट्टू!"

"पसंद आई आपको? मुझे पता था आपको जरूर पसंद आएगी!"

वैभव ने खुश होते हुए कहा।

दोनों की आवाज़ें सुनकर नीतू भी कमरे में आ गई।

उसे सामने देख अवंतिका ने वैभव की लाई साड़ी उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "देख अच्छी हैं ना?"

"बहुत अच्छी है आपके ऊपर बहुत अच्छी लगेगी।"

नीतू ने खुश होते हुए कहा।

नीतू को तो साड़ी से कहीं ज्यादा अच्छी लग रही थी आंटी की खुशी, जो वैभव के घर आने से उनके चेहरे पर लगातार बनी हुई थी।

अकेली रहती आंटी पर कभी-कभी बहुत प्यार आता था। ना अपने खाने की ज्यादा चिंता करती थीं ना किसी और चीज़ की। नीतू ने जब जो बनाया खा लिया। कितनी बार रात का खाना नहीं खाती थीं। वह पूरा खाना बनाकर मेज़ पर लगा जाती थी। सिर्फ केसरोल से निकाल कर अपनी प्लेट में डाल कर खाने भर का काम होता था। अपने आप में डूबी अवंतिका कभी खाती और कभी बिना खाए ही सो जाती। नीतू सुबह आकर जब खाना वैसे का वैसा रखा देखती तो अवंतिका पर गुस्सा करती। अवंतिका टालते हुए कहती, "भूख नहीं थी, मन नहीं था, अकेले खाया नहीं जाता।" इन सबका नीतू ने बड़ा आसान सा इलाज़ ढूंढ लिया। वह अवंतिका के साथ रहने आ गई थी। उसके आने से अवंतिका को साथ मिल गया था और नीतू को सहारा। वैसे भी कौन कोई उसके आगे पीछे था।

नीतू मुश्किल से उन्नीस बीस साल की थी जब अवंतिका के पास काम मांगने आई थी। अवंतिका को काम करने वाली जरूर थी और नीतू को काम की। एक अनजानी सी डोर ने उन दोनों को बांध लिया था। नीतू के मासूम चेहरे और दुखद अतीत ने अवंतिका को उससे जोड़ दिया।

मां बाप बचपन में ही गुज़र गए थे नीतू के अपना कहने को सिर्फ एक बूढ़ी नानी थी। नानी ने पास के ही गांव में नीतू का रिश्ता कर दिया। शादी हुई ससुराल गई पर कोई सुख मिला ही नहीं कभी उसे। पति शराब पीता था, सास मार मार कर काम करवाती थी वह सहन करती रही इस उम्मीद में कभी पति संभलेगा उसकी सुध लेगा। मगर उसे न सुधरना था न ही सुधरा। सास की मार खा खाकर नीतू ढीठ हो गई थी। अब उसकी मार से भी उसको कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक मन करता काम करती और जब जी उकता जाता तो घूमने निकल जाती। अकेली भटकती रहती कभी जंगलों में कभी चाय के बागानों में। वहीं राम प्रकाश मिला था उसे। वन की चंचल हिरनी सी नीतू को दूर से देखता और खुश होता रहता।

एक दिन सास कहीं बाहर गई थी नीतू को घर की देखभाल के लिए छोड़ गई। नीतू ने घर साफ़ किया खाना बनाया,कपड़े धोयेऔर नहाने लगी। तभी उसका ससुर घर वापस आ गया। आधे अधूरे कपड़ों में नीतू को पाकर उसके भीतर का जानवर जाग गया। उससे किसी तरह बच बचा कर भागती हुई चाय के बागान तक पहुंच गई थी नीतू। दो दिन वहीं चाय की टपरी के पीछे छुपी रही अपना घर कोई था ही नहीं जो कहने को आसरा था वहां वापस जाने की हिम्मत नहींं हुई। उसकी दुख भरी कहानी जान-सुनकर राम प्रकाश उसे अपने साथ ले आया था। अपने घर में नहीं रख सकता था क्योंकि उसका अपना परिवार था। परिवार में मां थी पिता था पत्नी थी और तीन छोटे-छोटे बच्चे थे। उन सबके बीच नीतू को कैसे ले जाता। और मन में जितनी दया थी उतनी हैसियत ना थी जो उसे कहीं अलग रखा लेता।

नीतू घरों का काम करने लगी थी। दिन में एक बार उससे मिलने आ जाता दोनों मिलकर सुख दुख बांट लेते। वक्त गुज़र जाता। उसके कुछ समय बाद ही अवंतिका का यहां ट्रांसफर हो गया। अवंतिका ने कामवाली चाही और राम प्रकाश नीतू को ले आया। बस उसी दिन से नीतू अवंतिका की सब कुछ बनती चली गई। पहले पहल सिर्फ हेल्पर थी,मगर जब नीतू ने अवंतिका की अपने खाने के प्रति लापरवाही देखी तो वह कुक भी बन गई अवंतिका की। धीरे-धीरे सारी जिम्मेदारियां नीतू ने अपने ऊपर लेली थीं अवंतिका की और उसके घर की।

पति शादी और परिवार के नाम पर जितना कुछ भुगत चुकी थी कि उसे इन सब रिश्तों से नफरत हो गई थी। वह बहुत खुश थी अपनी आंटी के साथ उनके घर में।

"नीतू, खाने में क्या देर है?" अवंतिका ने पूछा तो नीतू किचन से निकल कर कमरे में आ गई।

"आप लोग बात कर रहे थे तो लगाया नहीं, खाना तो कब का बना चुकी हूं! बस दो मिनट में लगा देती हूं।" कहते हुए वह खाना लगाने की तैयारी करने लगी।