" इधर पंच पांडव की हत्या करने के बाद महर्षि वेदव्यास के पास आकर अश्वत्थामा ने हत्या के प्रयश्चित करने हेतु आज्ञा मांगी। तब महर्षि वेदव्यास ने बताया कि प्रायश्चित उन्हें करना ही होगा क्योंकि उन्होंने जिनकी हत्या की वो पंच पांडव नहीं थे , वो पांचो द्रोपदी के पुत्र थे। यह सुनकर अश्वत्थामा क्रोध से उबलने लगा और बोले कि प्रायश्चित करेंगे लेकिन पंच पांडव की हत्या के बाद। तब अश्वत्थामा ने देखा कि पांचो पांडव श्री कृष्ण के साथ उनकी तरफ ही आगे बढ़ रहे हैं। यह देखकर वो थोड़ा आश्चर्य में पड़ गए एवं डरते हुए उन्होंने ब्रह्मास्त्र का आह्वान कर दिया तथा उसे छोड़ने से पहले बोले कि सभी पांडवो का नाश हो।
यह बोलकर अश्वत्थामा ने पांडवों की ओर ब्रह्मास्त्र चला दिया। अर्जुन ने देखा कि एक अग्नि पिंड उनकी तरफ ही आ रहा है यह देखकर अर्जुन ने अपने सारथी श्रीकृष्ण से इसका उपाय जानना चाहा। तब श्री कृष्ण ने अर्जुन को भी ब्रह्मास्त्र छोड़ने के लिए कहा क्योंकि केवल ब्रह्मास्त्र ही ब्रह्मास्त्र को रोक सकता है। अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बात मानकर वही किया। तुरंत ही महर्षि वेदव्यास ने अपनी शक्ति के द्वारा दोनों ब्रह्मास्त्र को रोक दिया एवं बोले कि वह दोनों इतने बड़े योद्धा होने पर भी क्या यह नहीं जानते हैं कि ब्रह्मास्त्र का प्रयोग युद्ध में नहीं किया जाता। यह अस्त्र अगर एक दूसरे से टकराया तो पूरी सृष्टि का नाश हो सकता है। तब महर्षि ने दोनों को ही अपने ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाने का आदेश दिया। अर्जुन ने तुरंत ही अपने ब्रह्मास्त्र को वापस बुला लिया लेकिन अश्वत्थामा को केवल ब्रह्मास्त्र चलाना पता था लेकिन उसे वापस बुलाना नहीं। यह बात महर्षि वेदव्यास पता चलते ही वो अश्वत्थामा पर बहुत क्रोधित हुए तथा कहा कि वो तुरंत ही ब्रह्मास्त्र का पथ बदल दे। उस वक्त भी अश्वत्थामा के मन में प्रतिशोध की अग्नि जल रही थी। उन्होंने कहा है कि ब्रह्मास्त्र का पथ पांडव वंश के तरफ ही जाएगा। अगर पंच पांडव ना सही तो उनके भविष्य के बीज को मैं समाप्त कर दूंगा। इसके बाद अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र ने जाकर अभिमन्यु की गर्भवती स्त्री उत्तरा के गर्भ को आघात किया। इसके कारण उत्तरा के गर्भ का संतान जन्म लेने से पहले ही मृत हो गया। श्री कृष्ण ने इस घटना को अपने दिव्य दृष्टि से देख लिया था। इसी वजह से बहुत ज्यादा क्रोधित होने के कारण श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि समय के अंत तक तुम भटकते रहोगे और किसी भी जगह, किसी पुरुष के साथ तुम्हारी बातचीत नहीं हो सकेगी। तुम्हारे शरीर से पीब और लहू की गंध निकलेगी इसलिए तुम मनुष्य के बीच नहीं रह सकोगे और दुर्गम वन में ही भटकते रहोगे। इसके बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन को आज्ञा दिया कि वह अश्वत्थामा की मणि को निकाल ले। अर्जुन उसके तरफ ही आगे बढ़ रहा था लेकिन तब तक अश्वत्थामा अपनी गलती को समझ चुका था एवं खुद से ही अपने मस्तक से मणि को निकालकर श्री कृष्ण के हाथ में रख दिया। अश्वत्थामा इसके बाद श्री कृष्ण के सामने हाथ जोड़कर इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए बिलखते रहे जब श्री कृष्ण ने कहा कि या कोई श्राप नहीं बल्कि यह उसके निम्न कार्य का दंड है , जिसका उसे भोग करना ही होगा। वह मणि ही अश्वत्थामा के शक्तिशाली होने के कारण था। मणि बिना अश्वत्थामा साधारण मनुष्य जैसा ही है। उस दिन से ही महाभारत का अश्वत्थामा आज तक अपने घाव भरे शरीर को लेकर भटकते हुए श्राप दंड को भोग रहा है। उसे अमरत्व मिल गया था लेकिन वह अब केवल शक्तिहीन अमरत्व है। यह दंड कितना कष्ट कारक है ये वही जान सकता है जो इसे भोग रहा है।
उस बूढ़ी महिला ने और भी कुछ बताया था। उस व्यक्ति को उन्होंने यहां कई बार देखा था। जिस बौद्ध तांत्रिक संन्यासी ने बूढ़ी महिला को इस मठ में लाया था , उस सन्यासी के साथ उस बड़े शरीर वाले आदमी का सामान्य परिचय था। वह सन्यासी कई जड़ी बूटियों को एकत्रित करके उस दीर्घ शरीर वाले व्यक्ति को अपने घाव पर लगाने के लिए देते थे लेकिन सन्यासी की मृत्यु के बाद उस व्यक्ति को इस मठ के आसपास फिर नहीं देखा गया। क्योंकि अश्वत्थामा को श्री कृष्ण ने यह श्राप दिया था इसीलिए वह हिमालय में उपस्थित बद्रीनाथ की ओर जाता रहता है क्योंकि बद्रीनाथ में स्वयं श्री विष्णु रहते हैं। और जिस स्थान पर श्री विष्णु व श्री कृष्ण रहते हैं , वह जगह वैकुंठ में परिवर्तित हो जाता है।
देवादिदेव महादेव का आशीर्वाद रुपी पुत्र होने के कारण अश्वत्थामा कैलाश की ओर भी जाते रहते हैं क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि कैलाश जाने पर मनुष्य के पाप का बोझ कम हो जाता है। वह व्यक्ति मठ से कुछ ही दूरी पर उत्तर - पूर्व में उपस्थित एक रुद्राक्ष के जंगल से रुद्राक्ष का संग्रह करने आता है। लेकिन इतने सारे रुद्राक्ष को ले जाकर आखिर वह व्यक्ति क्या करता है इस बारे में वह बूढ़ी महिला कुछ भी नहीं बता पाई।
लगभग दो-तीन दिन बाद मैंने बौद्ध मठ को छोड़कर कैलाश की ओर फिर से यात्रा शुरू किया। बूढ़ी महिला ने मुझे प्रेम पूर्वक आशीर्वाद दिया था तथा मुझे बहुत सारा खाना भी दे दिया था। उन्होंने किसी पेड़ का जड़ भी मुझे दिया था और कहा था कि हिमालय में रहते वक्त इस जड़ को मैं हमेशा अपने पास ही रखूं क्योंकि उस जड़ के कारण शरीर गर्म रहता है। इसके बाद मैंने बूढ़ी महिला को प्रणाम करके पूर्व की ओर कैलाश पथ पर चल पड़ा। "
इतना बता कर तांत्रिक रुद्रनाथ शांत हुए। तांत्रिक की बातों को सुनते वक्त आश्चर्य से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया था। मैंने तांत्रिक से पूछा ,
" इसका मतलब, नदी के किनारे वाली झाड़ी में महाभारत के अश्वत्थामा आकर रह रहे हैं? "
" केवल तुम ही इस बात को जानते हो इस बारे में किसी को मत बताना। "
" नहीं बताऊंगा लेकिन क्या यह संभव है? "
" संभव असंभव का तुम कितना ही जानते हो। जीवन का अधिकांश वक्त ही तो तुम सब ऑफिस और घर - बार में बिता देते हो। जिस दिन अपनी लकीर से बाहर निकलोगे उस दिन देखोगे कि इस पृथ्वी पर ऐसा बहुत कुछ होता है जो साधारण मनुष्य के कल्पना से भी बाहर है। उस समाचार को तुम्हारे आंगन में गिरे हुए सुबह की समाचार पेपर में नहीं पाओगे। "
" इसके बाद क्या हुआ,क्या आप कैलाश तक पहुंच गए? "
" हाँ, लक्ष्य जब बना लिया था तो उससे पहले रुकने वाला मनुष्य मैं नहीं हूं। इसके बाद ही बार-बार मन में महादेव का बुलावा सुनाई दे रहा था। उस बुलावे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन मैं इतना समझ गया था कि जिस बौद्ध मठ में मैंने आश्रय लिया था वह महापवित्र ज्ञानगंज मठ नहीं है क्योंकि महापवित्र ज्ञानगंज मठ में निम्न तांत्रिक क्रियाएं नहीं होती। लेकिन इस बौद्ध मठ में ऐसा होते हुए मैंने अपनी आंखों से देखा था। मठ को छोड़े हुए लगभग 2 दिन हो गया था। बूढ़ी महिला के द्वारा दिया गया जड़ अपना कार्य बखूबी कर रहा है। उतनी जबरदस्त ठंड में शरीर को गर्म रखना कोई खेल नहीं लेकिन उस जड़ की वजह से मेरे शरीर से मानो आग निकल रहा था। शरीर गर्म रहने के कारण कार्यक्षमता भी तेज हो गया था। बूढ़ी महिला के द्वारा दिया गया खाना तब भी थैले में कुछ बचा हुआ था। 2 दिन बाद मैं मानसरोवर के पास पहुंच गया। समुद्र तल से इतने ऊपर मीठे पानी का स्रोत का रहना कैसे संभव है , क्या यह तुम्हारे समाचार पेपर से पता चल जाएगा क्योंकि तुम्हारे द्वारा देखा गया समाचार पेपर विज्ञान व चिंताशक्ति है लेकिन इन सभी से ऊपर एक दिव्यता विराजमान है जिसे हम भगवान व ईश्वर कहते हैं। मानसरोवर के जल में कई सारे सफेद हंस घूम रहे थे। वह दृश्य सचमुच स्वर्गीय था। जिसने इसे नहीं देखा वह इस बारे में कभी सोच भी नहीं सकता। इसके ऊपर कुछ दूरी पर दक्षिण - पूर्व की तरफ राक्षसताल झील उपस्थित है लेकिन इसका पानी खारा है। मानसरोवर के दूसरी तरफ सीना चौड़ा किए खड़ा है विशाल कैलाश पर्वत। आसपास के क्षेत्र में कई सारे बौद्ध लामा के दर्शन हो रहे हैं। वो सभी अपने हाथ में जप यंत्र को घुमाते हुए मानसरोवर के आसपास ही टहल रहे थे। तिब्बती लोग कैलाश को कँगरिंगबोके या कँगरिंगपोचे कहते हैं। उन सभी लोगों को देखकर मैंने समझा था कि हिंदू और बौद्ध दोनों के अंदर कैलाश के प्रति भक्ति भाव समान है। पूरा दिन वहां पर बिताकर मैं शाम के वक्त एक तिब्बती गुफा में जा पहुंचा। वहां से ही मुझे महापवित्र ज्ञानगंज मठ के रास्ता का पता मिला था। लेकिन आज उस बारे में रहने देते हैं इस घटना को मैं तुम्हें कभी और सुनाऊंगा। आज बहुत ज्यादा थकान लग रही है। "
तांत्रिक रुद्रनाथ अघोरी ने आज के लिए बस इतना ही बताया इसके बाद में अपने घर चला आया। घर लौटते वक्त नदी के किनारे वाले उस बड़े झाड़ी में मैंने एक बार देखा था लेकिन अद्भुत बात यह है उस दीर्घाकाय साधु बाबा का दर्शन फिर नहीं हुआ। अब मेरे सामने उनके यहां पर आने का मतलब स्पष्ट हुआ। श्री कृष्ण के श्राप के कारण आज भी वो दंड भोग रहे हैं। यह स्थान गढ़मुक्तेश्वर महाभारत के वक्त कभी हस्तिनापुर का भाग हुआ करता था। अश्वत्थामा महादेव के बहुत बड़े पुजारी थे क्या पता वो यहां पर महादेव के मंदिर में पूजा करने आए हों। क्या पता श्राप के बाद गढ़मुक्तेश्वर के जंगलों में उन्होंने समय बिताया हो व यहाँ कई सारे गुप्त स्थानों के बारे में जानते होंगे। हालांकि इसके बाद वह साधु कहीं भी नहीं दिखा क्या पता वो फिर कहीं चले गए हों?......
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पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर उपाध्याय ने डायरी के पन्नो से अपना चेहरा उठाया और फिर आदित्य की ओर देखकर बोले ,
" प्रत्यक्ष प्रमाण ना पाने पर भी कहीं ना कहीं लिखित अवस्था में तो प्रमाण मिला। इतने सालों तक पहाड़ , जंगलों में घूमकर भी मैं जिस बारे में कुछ भी नहीं जान पाया उसका अस्तित्व सचमुच है इसके बारे में मुझे आज पता चला। जो भी हो अब मुझे यह सोचकर सुकून मिला है कि मैं इतने सालों तक किसी माइथोलॉजी के पीछे नहीं भागा था। प्रैक्टिकल ना हो लेकिन किसी कागज में तो अश्वत्थामा का जिक्र मिला , अब मैं सुकून से अपनी आंखें बंद कर सकता हूं। "
इसके बाद आदित्य के सर पर हाथ रखकर स्नेह पूर्वक प्रोफेसर बोले ,
" तुमने अपने दोस्त के पास से इस लेख को लाकर मुझे दिया इसीलिए आज मुझे इतना सुकून प्राप्त हुआ है। Thank you my son, thank you very much...
समाप्त...