Mamta ki Pariksha - 16 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 16

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ममता की परीक्षा - 16



खिलखिलाते हुए साधना ने अपनी पतली कलाई पर बंधी घड़ी देखी और फिर गोपाल की तरफ देखा जो एकटक उसी की तरफ देख रहा था। मानो उस की हाँ का इंतजार कर रहा हो।
अपने तय समय से दस मिनट अधिक हो गया था और बस का अभी कहीं कोई पता न था।

'कहीं ये लड़का सही तो नहीं कह रहा ? शायद सही ही हो, झूठ क्यों कहेगा ? और फिर कॉलेज ही तो जाना है, इसमें उसका क्या फायदा ? चलो चलते हैं। बस के चक्कर में कहीं देर हो गई तो पंडित मैडम बहुत डाँटेंगी। आज इकोनॉमिक्स के इम्पोर्टेन्ट नोट्स देने वाली हैं वो।' सोचती हुई हाथ में किताबें लिए उन्हें सीने से लगाये साधना बस की कतार से बाहर आ गई और बढ़ने लगी कार की तरफ कि तभी पीछे से बस ने आकर जोर जोर से हॉर्न बजाना शुरू कर दिया।

कार के पीछे आती बस देखकर साधना किताबें संभाले उन्हें बाय बाय कहती किसी हिरणी सी कुलांचे मारती हुई बस में सवार हो गई। बस में भीड़ नहीं थी सो उसे बैठने की जगह भी मिल गई। कार के पीछे खड़ी बस का ड्राइवर जोर जोर से हॉर्न बजाए जा रहा था लेकिन ये दोनों महानुभाव थे कि हाथ आये अवसर के निकल जाने के गम में अंधे बहरे हो गए थे। उन्हें न तो कुछ दिखाई दे रहा था और न ही कुछ सुनाई दे रहा था। बस वाले के हॉर्न की आवाज सुनकर चौराहे से एक हवलदार दौड़ते हुए आया और बस के ड्राइवर की तरफ डंडा फटकारते हुए बोला, "क्या बात है ? क्यों शोर मचा रहे हो ?"

"साहब ! आपको भी कम दिख रहा है क्या ?" ड्राइवर ने ढिठाई से गोपाल और जमनादास की तरफ इशारा करते हुए हवलदार से बोला।

"ठीक है, ठीक है ! समझ गया तुम्हारा मतलब, लेकिन अगर वो खड़े हैं तो तुमको क्यों तकलीफ हो रही है ? ..चलो ! बस पीछे लो !" कहकर वह अपनी सिटी से बस के पिछवाड़े जाकर ठोंकने लगा। ड्राइवर ने बस थोड़ी पीछे की और फिर स्टीयरिंग दाएँ काटते हुए बस को सड़क के मध्य की तरफ मोड़ दिया।
बस के जाते ही हवलदार अपना डंडा फटकारते हुए कार की तरफ बढ़ा। जाती हुई बस की तरफ एकटक देखते हुए गोपाल की आँखों के सामने अपना डंडा लहराते हुए हवलदार ने कार के बोनट पर हल्के से ठकठकाया।

चालक सीट की खिड़की की तरफ से जमनादास ने अपना सिर बाहर निकाला और रौबदार आवाज में उस हवलदार को आवाज लगाई, "ओ हवलदार ! तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई कार पर डंडे से ठोंकने की ? इसकी कीमत मालूम है तुमको ? सुनोगे तो पतलून गीली हो जाएगी !"

"ओए लड़के ! एक तो गलती करता है और ऊपर से ज़बान भी लड़ाता है ? क्या यही सब पढ़ने कॉलेज जाते हो ?" हवलदार के अहम को ठेस लगी थी, लेकिन इससे अधिक कर भी क्या सकता था ? सामने रईसजादों से जो पाला पड़ा था।

उन्हें समझाते हुए बोला, "तुम्हारे गाड़ी की कीमत से हमारा कोई लेना देना नहीं ! हमने तो इसलिए डंडा फटकारा था क्यों कि तुम्हारी गाड़ी बस स्टॉप के सामने खड़ी है और यह कानूनन अपराध है।.. समझे ?"

"पहले तो तुम ये समझ लो कि हम क्या पढ़ने जाते हैं इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं रहना चाहिए। अपना काम करो और अपनी औकात में रहो,.. समझे ? और दूसरी बात कि कानून में हर गलती के लिए जुर्माना मुकर्रर है। अगर हमारी गलती है तो तुम जुर्माना वसूल सकते हो। हमारी गाड़ी पर डंडा ठोंकने का हक तुमको किसने दिया ?" जमनादास ने अपना रौब झाड़ते हुए उसे उल्टे डांट पिलाई।

तभी दूसरी तरफ से गोपाल हवलदार के नजदीक आते हुए बोला, "हवलदार ! ज्यादा टाइमपास ना कर। सीधा मुद्दे पर आ। बता तेरा कितना जुर्माना हुआ यहाँ गाड़ी खड़ी करने का ?"

"जाओ .. तुम लोग शरीफ लगते हो, इसलिए छोड़ देता हूँ, लेकिन आइंदा ध्यान रखना.. मेरे चंगुल में मत फँसना ! छोड़ूँगा नहीं.. हवलदार बजरंगी नाम है मेरा !" हवलदार ने उदारता दिखाते हुए बोला।
"अरे क्यों बहाने बना रहा है हवलदार ? आज तो मैं तुम्हें छोड़ूँगा नहीं ! वर्दी क्या मिल जाती है तुम लोग अपने आपको जनता का मालिक समझने लगते हो। भूल जाते हो कि तुम्हारी ड्यूटी क्या है ? तुम्हारी ड्यूटी है जनता की सेवा करना और जो तुम्हारे कामों में अड़ंगा लगाए उसके लिए कानून ने कुछ नियम कायदे बनाये हैं और उसके अनुसार तुम उन्हें दंडित भी कर सकते हो, लेकिन मनमानी करने का हक तुमको किसने दिया ? मैं यहाँ बस स्टॉप के सामने गाड़ी खड़ी रखने का दोषी हूँ। इसका जुर्माना मैं भर दूँगा लेकिन तुमने मेरी गाड़ी पर डंडे से मारकर जो हजारों का गुनाह किया है उसका क्या ?" कहते हुए गोपाल ने जेब से दस रुपये का एक नोट उसकी तरफ फेंकते हुए बोला, " ये लो जुर्माने की रसीद बना दो और हमारी गाड़ी पर डंडा फटकारने के एवज में हमें एक हजार रुपये का हर्जाना दे दो।"

"क्या कह रहे हो ? हजार रुपये मैं क्यों दूँगा ? मैंने थोड़े न कुछ गलत किया है ?" हवलदार गोपाल की बात सुनकर चकरा गया था।
"अबे तो डंडा क्या तेरे भूत ने मारा था गाड़ी पर ?" गोपाल ने दबाव बनाना जारी रखा।

" नहीं .. नहीं ! मैं कहाँ से लाऊँगा इतने पैसे ? इतनी तो मेरी तनख्वाह भी नहीं !.. नहीं, मैं नहीं दे सकता इतने पैसे ! ..एक काम करो, ये लो अपने पैसे और निकल लो यहाँ से। आईन्दा फिर ऐसी गलती नहीं करना।" बजरंगी ने उनका ही दस रुपये वाला नोट उन्हें वापस करते हुए फिर से अपना धौंस दिखाना चाहा।

"तो तुम ऐसे नहीं मानोगे ? लगता है तुम्हारी शिकायत अब बड़े साहब से करनी होगी।.. वो क्या नाम है उनका ?....बृजलाल कमिश्नर अंकल ! हाँ वही .. शाम को पिताजी से मिलने हमारे बंगले पर आनेवाले हैं। ... क्या नाम बताया था अपना ? बजरंगी हवलदार.. और बक्कल नंबर ?" कहते हुए गोपाल कार से निकलकर बजरंगी की तरफ बढ़ा, "वो क्या है न कि जब कमिश्नर अंकल पिताजी से मिलने आएंगे न शाम को, तो तुम्हारी थोड़ी सी तारीफ कर देंगे ! बस ! उसके बाद तो जो करना है कमिश्नर अंकल करेंगे।"

कमिश्नर का नाम सुनते ही बजरंगी की घिघ्घी बँध गई। वह गिड़गिड़ा पड़ा, "नहीं. नहीं ! ऐसा न करना ! मेरे दो छोटे छोटे बच्चे हैं। चाहो तो मेरे पास जो है सब ले लो लेकिन कमिश्नर साहब से मेरी शिकायत मत करना। मैं बरबाद हो जाऊँगा। पूरे पाँच हजार रुपये घूस देकर किसी तरह यह नौकरी मिली है।"
कहते हुए उसने जेब से पर्स निकाल कर उनके सामने रख दिया। पर्स में कुछ दो और पाँच रुपये के नोट पड़े हुए थे। गोपाल ने उन्हें निकालकर गिना, .. कुल बासठ रुपये थे। उन्हें निकालकर अपने हाथों में लहराते हुए बोला गोपाल, "यही है.. यही है न तुम्हारी औकात ? और चल देते हो हम जैसों से उलझने।"

सभी नोटों को वापस पर्स में रखकर पर्स बजरंगी की तरफ फेंकता हुआ गोपाल दूसरी तरफ से कार में बैठते हुए बोला, " चल यार जमना ! इस खूसट ने तो आज दिमाग ही खराब कर दिया।"
और फिर कार की खिड़की से बाहर सिर निकालते हुए वह बजरंगी से मुखातिब होते हुए बोला, "आगे से ध्यान रखियो ! किसीसे भी पंगे न ले लिया करो, समझे !"
उसी समय जमनादास ने गाड़ी आगे बढ़ा दिया था।

कार हवा से बातें करती फर्राटे से कॉलेज की तरफ दौड़ रही थी। अभी कॉलेज लगभग दो किलोमीटर दूर था कि तभी वही बस जिसमें साधना बैठ कर गई थी सड़क के किनारे खड़ी हुई दिखी। बस के पीछे कार खड़ी कर के जमनादास ने बस के आसपास देखा। वहाँ ड्राइवर और कंडक्टर के अलावा और कोई नहीं था। दोनों मिलकर बस के पहिये को खोल रहे थे जिसका टायर पंचर हो गया था। शायद सभी यात्री आसपास के रहे होंगे या पैदल चल दिए होंगे।

तभी गोपाल ने कहा, "अरे यार जमना ! वो पिले कुरतेवाली भी तो इसी बस से आई थी न ? फिर गई कहाँ ?"

"अरे चल !.. गई होगी पैदल ! तू तो उसके पीछे ही पड़ गया है।" कहते हुए जमनादास ने कार आगे बढ़ा दी।

"अरे, तू नहीं समझेगा यार !.. क्या चीज है वो ! सचमुच मैं तो पागल हो गया हूँ उसके लिए।" कहते हुए गोपाल ने अपने सीने पर हाथ रखते हुए ऐसी अदा से ठंडी आह भरी थी कि कार चलाते हुए जमना भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सका।

कार लगभग दो फर्लांग ही आगे बढ़ी थी कि अचानक गोपाल चिल्लाया, "अरे यार.. रुक रुक !" और खिड़की से सिर निकालकर पीछे की तरफ देखने लगा। जमनादास ने कार सड़क के किनारे खड़ी कर दी थी।

क्रमशः