भाग १ ...
विनोद को फ़िल्में देखने का बहुत शौक़ था । उसका बस चलता, तो रोज़ एक फ़िल्म देख लेता । लेकिन तब, यानी १९७० के दशक में तो कई फ़िल्में छोटे शहरों और कस्बों तक में भी चार-छः हफ्ते चल ही जाती थीं, कुछ तो दस-बारह हफ़्ते भी । वैसे विनोद के लिए यह कोई अड़चन थी ही नहीं । फिल्म अगर बहुत ऊबाऊ न हो, तो दोबारा देख लेता, ठीक-ठाक हो, तो तिबारा, और बहुत धाँसू हो, तो फिर गिनती ही छूट जाती । असली चुनौती थी, टिकट के पैसों का बन्दोबस्त करना, जो बिल्कुल आसान नहीं था ।
ओड़िशा के राउरकेला शहर के पास टाटा कम्पनी का यह एक छोटा ' टाउनशिप ' था, क्वारीसाइडिंग । १९६० और ७० के दशक में यहाँ बहुत चहल-पहल थी । यहाँ की खानों से डोलोमाइट के अयस्क का उत्खनन किया जाता था । फिर उसका शोधन होता था, जिसके बाद छोटे पत्थरों के आकार में खण्डित कर, भारतीय रेल की मालगाड़ियों में लाद दिया जाता था, और टाटा कम्पनी के ही जमशेदपुर-स्थित इस्पात के कारखाने में भेज दिया जाता था । वहाँ इसको लोहा और अन्य धातुओं के साथ मिश्रित कर इस्पात के विविध प्रकार के उत्पाद बनते थे । वैसे, राउरकेला में भी एक बहुत विशाल इस्पात कारखाना था, लेकिन यह केन्द्र सरकार द्वारा संचालित स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इन्डिया के अधीनस्थ था, सो इसके लिए अयस्क और धातु अन्य खानों से आते थे ।
इस टाउनशिप में करीब दो सौ कर्मचारी थे और इन सबके रहने के लिए कम्पनी की ही तरफ़ से घर बने हुए थे । छोटे-बड़े सब मिलाकर एक सौ दस घर थे, जिन्हें तीन कॅम्पों में व्यवस्थित किया गया था । रेलवे लाइन के निचली तरफ़ " नीचे कॅम्प " था, जिसमें अधिकांश मैनेजर और अन्य अधिकारी वर्ग के लोग रहते थे । फिर दूर, एक कोने में मुख्य कार्यालय के पास " साइड कॅम्प " था जिसमें ज़्यादातर मज़दूर रहा करते थे । और बीच में, रेलवे लाइन के ठीक ऊपर, एक विशाल पठार पर स्थित था " ऊपर कॅम्प ", इस पूरे टाउनशिप का सामाजिक केन्द्र, इसकी धड़कन, सभी तरह की हलचल और मिर्च-मसाले का उद्गम-स्थान ! इस कॅम्प में बीच के लोग रहते थे, बाबू, निरीक्षक, वगै़रह । हाँ, तीनों कॅम्पों में एक बात में समानता ज़रूर थी...., प्रकृति की दी हुई मिट्टी में, जो देश के अन्य खान-खदानों वाले इलाकों की ही तरह विशेष थी, पिंगल और धूमर रंगों का सम्मिश्रण ।
श्री सत्यनारायण सिंह क्वारीसाइडिंग टाउनशिप के इसी ऊपर कॅम्प में रहते थे । टाटा कम्पनी के सबसे पुराने मुलाज़िमों में इनकी गिनती होती थी । मुग़लसराय के मूल निवासी थे । अब, यहाँ बाईस साल घिसने के बाद वे ' सीनियर सेक्शन सुपरवाइज़र ' के पद तक पहुँच पाए थे । वैसे अभी उन्हें रिटायर होने में तेरह साल बाक़ी थे, लेकिन इससे आगे पदोन्नति की आशा भी कम ही थी । सत्यनारायण जी आकांक्षावादी नहीं थे, जिसका एक कारण यह भी था कि अपने काम के बारे में उनका ज्ञान सीमित था और कौशल संकुचित, और अपनी इन दोनों कमज़ोरियों से वे ख़ूब वाकिफ़ थे । लेकिन उन्हें इस अभाव का कोई अफ़सोस न था, क्योंकि वे परिश्रमी भी थे और ईमानदार भी । सोचते थे, कि ग़नीमत है, सैंतालीस की उम्र में यहाँ तक तो पहुँच गए ! इसके बाद और तेरह साल घिस कर कम्पनी से ग्रॅच्युटी, प्रोविडेंट फण्ड और थोड़ा-सा पेंशन लेकर रिटायर होने में उनकी परिपूर्णता थी । उनको फ़िक्र थी, तो अपनी सन्तानों के पालन-पोषण की, कि किसी तरह बेटियों की शादी करा दें, और बेटों की सनद पूरी करवा कर उनको नौकरी में जमा दें, हो सके तो टाटा कम्पनी में ही । इनके चार बच्चे थे, पहले बेटी, फिर बेटा, फिर बेटी, और आख़िर में फिर बेटा । एक प्रत्यावर्ती विद्युत्-तरंग की तरह । बड़ी बेटी, मंजू, उन्नीस बरस से छः महीने ऊपर थी, कॉलेज जाती थी । मध्यम कद की, साँवली, सुकुमार-सी, शान्त और संयमित । और दो वर्षों के अन्दर उसकी शादी करनी थी, सो सत्यनारायण जी और उनकी धर्मपत्नी अभी से जुटाने में लग गए थे, पैसे भी और बिरादरी में ' उचित ' सम्बन्धों की सूची भी । सन्तानों की श्रृंखला में दूसरे स्थान पर था, विनोद । शौक़िया, मनमौजी, हरफ़नमौला...., सब कुछ । समस्त ललित और विलासमय धातुओं का समेकन । अठारह साल की उम्र, उस पर से क़ुदरत की बख़्शी हुई रंगीन तबीयत । पिछले साल हायर सेकेंडरी पास करके अब बी.ए. प्रथम वर्ष में था । उसके बहुरंगी और चंचल जीवन में अगर किसी एक बात में स्थिरता थी, तो इम्तिहान के नतीजों में । पाँचवीं क्लास से लेकर अब तक, सौ-सौ नम्बर की सभी परीक्षाओं में हमेशा एक-से और सम्मानजनक परिणाम ही आते थे, न पैंतीस से कम, न चालीस से ज़्यादा । लेकिन ये आगे-पीछे की बातें विनोद को कभी छू नहीं पाईं । ' आज है तो जहां है,' यही उसके जीवन का सम्पूर्ण दर्शन-बोध था ।
वैसे, विनोद जैसे लोगों की शौक़ीनी के लिए क्वारीसाइडिंग टाउनशिप में भी फ़िल्में दिखाई जाती थीं, टाटा कम्पनी के ही सौजन्य से । हर ऐतवार की शाम सात बजे किसी एक कॅम्प में, लोहे के दो पतले खम्भों के बीच छोटा परदा बाँधकर, यह मनोरंजक सरगर्मी सम्पन्न की जाती थी । देखने वाले खड़े होकर, या घर से लाए मोढ़ा-कुर्सी पे बैठकर, या फिर ज़मीन पर टाट बिछाकर देख लेते थे । लेकिन विनोद को यह रास नहीं आता था । एक तो पुरानी फ़िल्में ही दिखाई जाती थीं, उस पर से अक़सर रंगीन फ़िल्म भी सितासित हालत में आती थी, और वो भी १६ मिलीमीटर की रील में सिकुड़ कर ! इसलिए विनोद की नज़र हमेशा राउरकेला शहर की ही तरफ़ लहराती थी । वहाँ दूर-दूर ही सही, पर चार सिनेमा हॉल थे । उनमें से एक में तो अक़सर अंग्रेज़ी फ़िल्में ही लगती थीं, जो करोड़ों भारतीयों की तरह विनोद के भी पल्ले नहीं पड़ती थीं । हाँ, अगर " उस तरह " की अंग्रेज़ी फ़िल्म हो, तो फिर दोस्तों के साथ जाकर देखने का मज़ा ही कुछ ख़ास होता था । और फिर ऐसी फ़िल्मों में भाषा या संवाद से क्या लेना-देना, सब कुछ तो बस देखकर ही समझ आ जाता था । विनोद ने अभी दो दिन पहले ही एक हिन्दी फ़िल्म देखी थी, लेकिन मज़ा नहीं आया था । कुछ ज़्यादा ही गम्भीर–सी थी, उस पर से धीमी गति की, नीरस-सी... ।
सत्यनारायण जी को दफ़्तर से रोज़ दोपहर के खाने के लिए लंच-ब्रेक मिलता था, साढ़े बारह से एक बजे तक । घर क़रीब ही था, सो जल्दी आकर खा लिया करते थे । बैठक के अलावा इस क्वार्टर में एक सोने का कमरा, एक ग़ुसलखाना, रसोई, छोटा-सा आँगन, आँगन में तुलसी, और सामने एक छोटा दालान था । छः जनों के इस कुनबे की इसी घर में निबाही होती थी, जिसमें सुविधाएँ अल्प थीं, लेकिन सुभगता अपार । तो, सत्यनारायण जी अक़सर खाना खाकर दालान में दो घड़ी आराम करने बैठते थे । उनका शारीरिक आकार-प्रकार कुछ ऐसा ख़ास था कि उसे किसी भी ख़ास वर्ग में दर्ज नहीं किया जा सकता था । न गोरे, न काले, न साँवले...., हाँ, जब बहुत आवेशित हो जाते थे, तो गेहुएँ रंग की छटा झलकने लगती थी । न लम्बे, न ठिगने, न मझले कद के । न मोटे, न पतले, न बीच के । कन्धों की चौड़ाई कम, लेकिन रुण्ड काफ़ी विस्तृत । चेहरे से न सुन्दर, न कुरूप, न औसतन । कुछ सात वर्ष पूर्व जब उनके बालों में सफ़ेदी आने लगी थी, तब उन्होंने तो उस ओर ध्यान नहीं दिया था, लेकिन पत्नी की असह्य नुक्ताचीनी से तंग आकर उन्होंने उस सफ़ेदी को छुपाने के लिए मेहँदी लगाई थी, बस, एक बार । उसके बाद मेहँदी का रंग भी आधा ही उतरा । इसलिए अब उनके बालों में तीन रंगों की विविधता थी, काला, सफ़ेद और धूसर ।
तो, इन आराम की घड़ियों में पान चबाते हुए विनोद के बारे में चिन्तन करते थे । उनको अपने बेटे के इस फिल्मी शौक़ को लेकर बहुत परेशानी होती थी । सोचते थे, ये भी कोई तरीक़ा है जीने का ? इस उम्र में तो सिर्फ़ पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना चाहिए । उन्होंने ख़ुद बचपन से लेकर जवानी तक एक ही फिल्म देखी थी, ' पर्बत पे अपना डेरा ' , वर्ष १९४४ में, जब वे डिप्लोमा कर रहे थे । और उसके बाद अभी पाँच साल पहले, १९६९ में, राजेश खन्ना द्वारा अभिनीत फिल्म ' आराधना ' । और वो भी इसलिए कि पूरे देश में हलचल मच गई थी इस फिल्म के बारे में, और ख़ासकर इस नए, सनसनी मचा देने वाले अभिनेता को लेकर । ख़ैर, सत्यनारायण जी के लिए फ़िल्में देखना पैसों और समय की बर्बादी के अलावा एक संस्कार-भ्रष्टा हरक़त थी । इसलिए वे विनोद को स्वयं कभी पैसे नहीं देते थे । और विनोद उनसे पैसे माँगने से डरता उतना नहीं था जितना कतराता था, क्योंकि एक तो पैसे मिलते नहीं थे, ऊपर से हर बार उसे अपने बाबूजी से पूरी आचार-संहिता पर प्रवचन सुनना पड़ता था । वो तो विनोद की माँ की करुणा और पुत्र-मोह का परिणाम था कि वे किसी तरह अपने पति को मना लेती थीं, यह कहते हुए कि " अरे, लड़का जवान हो रहा है, गरम खून है, फिल्म ही तो देखना चाहता है, देख लेने दीजिए । कहीं आवेग में आकर पढ़ाई छोड़ दी, तो आपके प्रोमोशन की ही तरह इसकी भी अन्तिम प्राप्ति हायर सेकेंडरी ही रह जाएगी । " और कोई पुरुष होता तो इस तीखी कटूक्ति का आघात शायद सह न पाता । लेकिन सत्यनारायण जी का मर्म-स्थल नौकरी और घर-गृहस्थी के दो पाटों के बीच घिसते-घिसते कब का विलीन हो चुका था । और उसकी जगह घर कर लिया था एक कठोर और यथार्थपरक भौतिकवाद ने । इसलिए उनकी आँखों के सामने केवल अपने बेटे की भावी दुर्दशा का दृश्य छा जाता था, बेरोज़गारी और कंगाली का... । सो, वे अनमने-से होकर अपना सिर हिला देते थे । तब उनकी पत्नी को उन पर बहुत अनुराग आता था और अपनी कर्कश आवाज़ को कुछ हल्का कर कहतीं, " अपना बेटा है, एक बार डिग्री के आख़िरी साल की पढ़ाई में उलझ जाए, तो ये सब शौक़ अपने आप कम हो जाएँगे । ग़नीमत मनाइए, सिगरेट-शराब की लत नहीं लगी । " और वे अपना स्थूल व्यक्तित्व लेकर रसोई में चली जातीं । लेकिन उनके इस दूसरे वाक्य का सत्यनारायण जी पर उल्टा ही असर पड़ता । और मन में एक कीड़ा बन जाता, कि हो न हो, जब लड़का फ़िल्में देख रहा है, तो ज़रूर तम्बाकू, वगै़रह का शौक़ भी पालता होगा । उन्होंने दफ़्तर में सुना था कि सिगरेट-बीड़ी पीने वालों के होंठ काले हो जाते हैं, और दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा के छोरों पर भी काले दाग बन जाते हैं । इसलिए वे घर में आते-जाते विनोद को ग़ौर से देखते । होंठ और हाथ की उँगलियाँ तो ठीक थीं । फिर विनोद के दाँतों पर भी ध्यान देते, कि कहीं खैनी-गुड़ाखू चबा तो नहीं रहा है । यहाँ भी सब ठीक ही था । तब वे कोई न कोई बहाना बनाकर विनोद के बिल्कुल क़रीब जाते और सूँघने लगते, कि अगर शराब पी है तो बदबू ज़रूर आएगी । शुरू में तो विनोद ने समझा कि उसके बाबूजी को साँस फूलने की तकलीफ़ शुरू हो गई है । बाद में वह असल बात समझ गया । और अलग बैठकर हँसता ही रहा, कि पिता हों तो उसके बाबूजी जैसे, बेटे पर हमेशा नज़र गाड़ कर रखने वाले । वैसे विनोद को ऐसी कोई लत न थी ।
खै़र, शरद-ऋतु के इस धूपायित दिन भी सत्यनारायण जी दालान में बैठे हुए ऐसा ही कुछ सोच रहे थे । और इधर विनोद ने आज ही एक ख़ास हिन्दी फिल्म देखने का मूड बना लिया था । उसके दोस्त किसी और काम में व्यस्त थे, सो उसने अकेले ही देख डालने का निश्चय कर लिया था । जैसे-जैसे दोपहर का समय क़रीब आता गया, विनोद का उत्साह भी बढ़ता गया, और साथ में बेचैनी भी । क्योंकि फ़िल्म देखने के लिए दो चीज़ों की ज़रूरत पड़ती थी । एक तो पैसे, दूसरी, सिनेमा हॉल तक जाने के लिए साइकिल । विनोद तीन से छः बजे वाला मैटिनी शो ही पसन्द करता था, क्योंकि इसमें आने-जाने की सुविधा थी । शाम छः बजे वाले शो के लिए उसके बाबूजी न उसका जाना पसन्द करते, न साइकिल ले जाने देते । सत्यनारायण जी को अपनी नौकरी और परिवार के अलावा किसी चीज़ से लगाव था, तो अपनी साइकिल से । अभी दो साल पहले ही उन्होंने ' रॉली ' साइकिल खरीदी थी, पूरे दो सौ पचासी रुपए खर्च करके । बहुत शिद्दत और चाव से उसको रखते थे । रोज़ दफ़्तर भी उसी पर आया-जाया करते थे ।
अब विनोद आस-पास मँडराने लगा । सत्यनारायण जी समझ गए कि लड़का फिर से फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बना रहा है । उसको साइकिल देने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि उनसे कहीं ज़्यादा विनोद उसका ध्यान रखता था, रोज़ चमकाता था । आज पैसा मिलना भी तय हो गया, लेकिन उस वक़्त घर में सभी के बटुए और पर्स खाली थे । सत्यनारायण जी दफ़्तर को निकल गए, और आज तो ख़ास दिन था, पगार मिलने का । आज के दिन घर लौटने में देर हो ही जाती थी । फिर भी विनोद ने सब्र कर लिया और पाँच बजे फिर तैनात हो गया । उसने तो कमर कस ही ली थी, कि जैसे भी हो, आज फ़िल्म देखनी ही है । एक अन्तिम बार आईने में ख़ुद का निरीक्षण किया । पाँच फुट दस इंच का कद, लमछड़-सा गठाव, गेहुआँ रंग, पतली-सी मूँछ, जो तब के मशहूर अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा की नक़ल करने का अंजाम था, दाढ़ी बनाई हुई, और बाल न लम्बे, न छोटे । नाक-नक्शे से पिता पर गया था । हल्के भूरे रंग की लम्बी आस्तीनों वाली क़मीज़ जिस पर गाढ़े रंग की लकीरें थीं, आड़ी और सीधी । ऊँट के रंग की पतलून और पाँवों में स्पोर्ट्स वाले सफ़ेद जूते, सफ़ेद मोजों के साथ । कमीज़ हमेशा पतलून के अन्दर डली रहती थी और ऊपर से कसी हुई बेल्ट । बाँई जेब में पैसे, दाहिनी में इत्र छिड़का हुआ रुमाल, पीछे की जेब में कंघी और दाहिनी कलाई पे घड़ी । तो इस तरह पूरा तैयार होकर बैठा था वह, कि बाबूजी आएँ, माँ को महीने भर के खर्चे का हिस्सा दे दें, और उस रक़म में से माँ उसे ढाई रुपए दे दे, सिनेमा हॉल में सेकंड क्लास के टिकट के लिए । ऊपर से चाय-पानी के पैसे वो माँगता ही नहीं था । यह विनोद की दूसरी ख़ासियत थी, कि लालची नहीं था ! खै़र, शाम हुई, लेकिन बाबूजी के आने में बहुत देर हो रही थी । तब माँ ने अलमारी के किसी कोने में से अपनी गुप्त राशि से निकाल कर उसे पैसे दे दिए ।
शाम के शो के लिए जब भी जाना पड़ता, विनोद रेलगाड़ी से ही जाता । क्वारीसाइडिंग के अठारह किलोमीटर पीछे एक और स्टेशन था, बिरमित्रपुर । शाम की पसींजर गाड़ी इसी बिरमित्रपुर से निकलकर आती थी और क्वारीसाइडिंग ५.३३ पर पहुँच जाती थी । सिर्फ़ दो मिनट रुक कर ठीक ५.३५ पर छूटती थी । और पन्द्रह मिनट में नौ किलोमीटर की दूरी तय कर राउरकेला पहुँचा देती थी । हमारे देश में यातायात के इस सबसे सुगम और सस्ते साधन का उपयोग करते हुए टिकट खरीदना कई लोगों के सिद्धान्तों के ख़िलाफ़ होता है । विनोद सिद्धान्तवादी तो नहीं था लेकिन समझदार ज़रूर था । उसे लगता था कि भारतीय रेल एक सार्वजनिक सेवा है, और सेवा हमेशा निःशुल्क ही होती है । इसलिए इसके लिए पैसे भरना उस सेवा-भाव का अपमान होगा, जो एक जागरूक नागरिक को शोभा नहीं देता । खै़र, स्टेशन उसके घर से सिर्फ़ चार सौ गज़ दूर था और वह दस मिनट पहले ही पहुँच गया ।
क्रमशः ......