हिंदी फ़िल्मों की शायद सबसे बड़ी विशेषता जो उसे अन्य देशों के फ़िल्म उद्योगों से अलग करती है वो उसका गीत- संगीत ही है।
फ़िल्म में कथानक होता है, एक से बढ़कर एक खूबसूरत लोकेशंस होती हैं जिनकी नयनाभिराम फोटोग्राफी होती है, किंतु फिल्मी दृश्यों को देर तक याद उनके गानों के सहारे ही किया जाता है। रोज़ फिल्मों का साउंडट्रैक कोई नहीं सुनता पर उनके गाने घर - घर में सुने जाते हैं। गीतों की ये मनभावन पुरकशिश अदायगी हमें उन चेहरों के ज़रिए याद रहती है जो पर्दे पर उन्हें अदा करते हैं। न याद रहता है गीतकार का चेहरा, न संगीतकार का, याद रहता है तो बस एक्टर।
दिलीप साहब आज यदि घर- घर वासी हैं तो इसमें उन दिलकश गानों का बड़ा योगदान है जो उन्होंने अपनी फ़िल्मों के ज़रिए लोगों तक पहुंचाए। ये कमाल उनके अभिनय का ही है जो उनके कई बेहतरीन गीत अमर हो गए। यकीन न हो तो आप ख़ुद देखिए।
ये गीत भला कोई भुला सकेगा?
"उड़ें जब - जब जुल्फ़ें तेरी कुंवारियों का दिल मचले"...
"नया दौर" फ़िल्म का ये गीत कभी घर - घर बज कर उस दौर के युवाओं की पहचान बन गया। अब तक स्त्री आकर्षण की व्याख्या में ही बंधे गीतकार ने जैसे इस गीत में युवकों के आकर्षण की एक नई ज़मीन तोड़ी।
फ़िल्म "लीडर" का गीत "तेरे हुस्न की क्या तारीफ़ करूं कुछ कहते हुए भी डरता हूं, कहीं भूल से तू न समझ बैठे कि मैं तुझे मुहब्बत करता हूं" भी एक बेहद नशीली सी अभिव्यक्ति है।
दिलीप कुमार के देश भक्ति के गीतों को भी चेहरा दिया। "ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का, इस देश का यारो क्या कहना" और "अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं, सिर कटा सकते हैं लेकिन सिर झुका सकते नहीं" जैसे गाने फिज़ाओं में हमेशा रहेंगे और इनके साथ लोगों को इनके गीतकार - संगीतकार याद आएं या न आएं दिलीप कुमार ज़रूर याद आयेंगे।
"मैं हूं बाबू जेंटलमैन... लंडन से आया मैं बन ठन के" और "साला मैं तो साहब बन गया" जैसे गीत दिलीप कुमार की छवि में एक नया बदलाव लेकर आए। जहां कभी दिलीप कुमार और सायरा बानो को देख कर ऐसा लगता था कि ये दोनों अपनी- अपनी इमेज में दो विपरीत ध्रुवों की तरह हैं वहीं सबके देखते - देखते ये दोनों पर्दे पर भी ऐसे लगने लगे मानो एक दूसरे के लिए ही जन्मे हों। ये बदलाव एक ताज़ा बयार की तरह था और बेमिसाल अदाकारी से पैदा हुआ था।
भारतीय सिने दर्शक ये अच्छी तरह जानते हैं कि जब फ़िल्म के पर्दे पर दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे...या मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे तो फ़िर मेरी चाल देख ले...अथवा नैन लड़ जई हैं तो मनवा मां कसक होई बे करी... जैसे गीत बजते हैं तो जनता को तत्काल ये याद आ जाता है कि भारत एक ग्राम्य संस्कृति केंद्रित देश है जहां तीन चौथाई जनसंख्या गांवों में ही निवास करती है। लेकिन ऐसा भी तभी होता है जब सामने कोई बेहतरीन कलाकार हो जो माहौल को जीवंत कर देने का हुनर जानता हो। अन्यथा फिल्में भी महज़ खेल तमाशा बन कर रह जाती हैं। दिलीप कुमार ने देखने वालों को ये समझ भी दी कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि भावनाओं को जीने और ज़िंदगी को समझने का तरीक़ा भी है। ये बात भी चंद उन्हीं कुछ बातों में शुमार है जो किसी एक्टर को कलाकार बनाती हैं। ऐसे कलाकार भी गिने चुने होते हैं। वरना तो फ़िल्मों का रेला और कलाकारों की भीड़ है ही।
"जिंदगी के आईने को तोड़ दो, इसमें अब कुछ भी नज़र आता नहीं" से लेकर "राह बनी ख़ुद मंजिल" तक का सफ़र सिनेमा ने दिया है।