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विवाह के पूर्व ही माँ-बाबा को बताना पड़ा था सब कुछ | कुछ नहीं कहा उन्होंने !मूक, मौन यंत्रणा को झेलते हुए दो प्रौढ़ अपना कर्तव्य निबाहते रहे | और ---वह उस छटपटाहट को महसूस करती रही | झेलती रही, भीतर की घुटन से लिपटी उसकी आत्मा कुछ छंट जाने की प्रतीक्षा करती रही | परंतु सब व्यर्थ—उसे राजेश के साथ जाना था, गई | सभी पति के घर जाते हैं –विवाह के लगभग एक वर्ष तक भारत ही में थी राजेश के साथ ! उसके प्रयत्न में कोई बाधा नहीं आई थी, वह करता ही रहा विदेश जाने का प्रयत्न ! जब पैसे की परेशानी हुई तो माँ –बाबा ने वह फर्ज़ भी पूरा किया, वह पहले ही जान गई थी ऐसा ही होगा | पता नहीं क्यों महसूस करती थी कि ऐसा ही होना चाहिए, हुआ | परंतु, होने के तुरंत बाद ही उसे मेंटल शॉक लगा, वैसे लगना नहीं चाहिए था | जिस बात की पहले से ही परिकल्पना की गई हो, उसके परिपक्व होने का सामने आ जाने की बात बड़े ही सहज ढंग से ही लेनी चाहिए थी उसे --!!
पर ऐसा होता नहीं है बहुधा, बात सामने आने पर ही हमें महसूस होता है कि हम टूट रहे हैं और पहले तैयार की गई पृष्ठभूमि कुछ काम नहीं आती | भानुमति की भी काल्पनिक मूर्ति खंडित हो गई थी | उसने सोचा था काश ! राज उसकी परिकल्पना को झूठा साबित कर देता ! काश !वह किसी भी प्रकार विदेश जाने का सारा खर्च स्वयं वहन करता तो कहीं एक स्थान पर वह जीत जाती कि राज स्व्यंसिद्ध है | उसके अपने सच बड़े ही खोखले थे | माँ-बाबा के सामने हुई बातें बड़ी ही अजीब, झूठी ! जो कुछ था, वो सामने था, उसके, सबके ----
भानुमति के लिए ‘क्रांतिकारी’ शब्द चुना गया था | माँ–बाबा उसे सदा इसी संज्ञा से विभूषित करते| ‘बड़ी क्रांतिकारी लड़की है !’पुराने रीति-रिवाज़ों, ग्रंथियों, पुरातन चोचलों को तोड़ने का साहस वही कर सकी थी | समय के साथ रूढ़ियों से टकराने का साहस भानुमति ने ही किया था | फिर भी उसमें अदम्य विनम्रता रही थी | उसका कथन था –“रूढ़ियों को तोड़ना है, सभ्यता को नहीं“अत: क्रांतिकारी शब्द का प्रयोग करते समय माँ-बाबा यदि कभी झुँझला उठते तो कभी गर्वित भी होते थे |
यदि यह कहा जाए कि भानुमति की चर्चा करते समय उनके मन में पुत्री प्राप्त करने का गर्व अधिक रहा था तो अनुचित न होगा | लेकिन, राज से मिलने, प्रेम की उत्कंठा को स्वीकार करने तथा विवाह के बीच क्रांति न जाने किन दिशाओं की गर्मीली आंधियों में गुम हो गई थी | वह स्वयं ही नहीं जान सकी थी | जहाँ विवाह के समय राजेश अत्यंत प्रफुल्लित था, भानुमति बिल्कुल शांत !उसकी इस शांति को अन्य लोगों ने बेशक उसकी विनम्रता ही समझा हो, माँ-बाबा तो समझ ही चुके थे कि उनकी इकलौती बेटी अपनी ही भूल के पिंजरे में फँस चुकी थी | दूसरों के लिए क्रांति करने वाला उसका मन उसके अपने लिए न जाने कहाँ दुबककर बैठ गया था |
अच्छा ! वह विरोध क्यों न कर पाई होगी ?क्या इसलिए कि वह राज से बेंतिहा प्यार करती थी ? फिर प्यार में शक और संदेह की गुंजाइश कहाँ?परंतु संदेह तो विवाह से पूर्व ही उसकी आत्मा में गहरे रम चुका था|
लाखी चाय का प्याला ले आई थी –
“दीदी--“
“हाँ—“
लाखी चाय का प्याला पकड़कर अपनी सूती साड़ी समेटकर उसके सामने ज़मीन पर ही पसर गई |
“अरे ! ये क्या ?”
“क्यों--?”
“ये बैठ क्यों गई तू --?”
“ऐसे ही ---“ लाखी कभी-कभी ढीठ बन जाती थी |
“जा –न, काम नहीं करना है --?”
“हो जाएगा दीदी –आप कविता लिखेंगी न ?”
भानुमति हँस पड़ी ---“क्यों?”
“लगता है –“
“अच्छा !”
“हूँ –“
“तब आज खाने की छुट्टी --?”
“नहीं, सब हो जाएगा दीदी –“
“तो, जा न छोड़ मुझे अकेली ---“
“तब आप ज़रूर कविता लिखेंगी—“
“तू जानती है, तब तो जा न ---“
“अच्छा ! लिख लेंगी तो सुनाएंगी न ---?”
“सुनती हूँ न हर बार ---“
“हाँ, वो –तो ---“
“फिर --? दीदी पर विश्वास नहीं है--?”
“कैसी बात कहती हैं ?”बोलते हुए लाखी अनमनी –सी वहाँ से उठ खड़ी हुई और धीमे कदमों से बाकी बचे हुए कम समेटने लगी | दरअसल, लाखी वह सब जान गई थी जो उसके हृदय को मथ रहा था इसलिए उसके पास बैठकर उसका मन कहीं और ले जाना चाहती थी | किसी भी बात में, किसी भी विषय पर ---