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गालिम और सिंगी की प्रेम कहानी:
पुनाखा जोंग से गासा रोड पर एक किलोमीटर आगे नदी के किनारे तीन मंजिला मिट्टी का सात सौ साल पुराना घर दिखाई देता है। ये कहानी है गासी लामा सिंगी और चांगुल बूम गालिम की।
गालिम, पुनाखा के एक अमीर किसान की बेटी थी। नदी के किनारे मिट्टी का एक तीन मंजिला घर है। अब भूटान सरकार द्वारा इस घर को हेरिटेज साइट का दर्जा दे दिया गया है।
गालिम के घर जैसा तीन मंजिला घर यह अपने समय के बड़े अमीर किसान का घर हुआ करता था। सिंगी, वह तिब्बत सीमा पर बसे गांव गासा के एक साधारण परिवार का युवक था।
गालिम और सिंगी में प्यार हो गया। यह एक अमीर और गरीब की प्रेम कहानी थी। कहते हैं गालिम बहुत खूबसूरत थी। गालिम पर इस इलाके के जमींदार देब का दिल आ गया। उसने गालिम से विवाह करने की इच्छा अपने एक सहायक को बताई। उस सहायक को गालिम और सिंगी के प्रेम के बारे में जानकारी थी। इसलिए उसने सिंगी को गालिम से दूर करने की साजिश रची।
सिंगी को किसी काम से गासा भेज दिया गया। इसके बाद देब ने गालिम से विवाह का प्रस्ताव उनके पिता को भेजा। एक बड़े जमींदार से विवाह का प्रस्ताव पाकर पिता खुश हुए क्योंकि उन्हें गालिम के प्रेम के बारे में पता नहीं था।
पर गालिम ने अपने पिता को सिंगी के प्रति अपने प्रेम की बात बताई। साथ ही इस बात का भी खुलासा किया कि वह गर्भवती है। यह सब कुछ पिता के लिए दुःख देने वाला था।
नाराज पिता ने गालिम को अपने घर से निकाल दिया। इसके बाद गालिम मोचू नदी के तट पर असहाय घूमती रही। इस दौरान वह सिंगी के प्रेम में विरह के गीत गा रही थी।
साथ ही वह हर आते-जाते लोगों को अपना संदेश गासा में सिंगी तक पहुंचाने के लिए आग्रह करती थी। पर अपने खराब सेहत और गर्भवती शरीर के कारण गालिम जल्द ही बीमार पड़ गई। कहते हैं कि गालिम के साथ संवेदना जताने के लिए मोचू नदी की धारा भी धीमी पड़ गई।
एक राहगीर ने गालिम की हालत देखने के बाद गासा जाकर सिंगी को उसका संदेश सुनाया। गालिम का यह हाल जानकर सिंगी दौड़ा-दौड़ा पुनाखा की ओर चल पडा। पर उस रात गालिम ने एक बुरा सपना देखा।
सिंगी के पुनाखा पहुंचने तक गालिम रोते-रोते दम तोड़ चुकी थी। गालिम के पास पहुंचने के बाद सिंगी ने भी अपने आखिरी सांस ली। इस तरह दो प्रेमी इस दुनिया में नहीं मिल सके पर दूसरी दुनिया में मिलन के लिए कूच कर गए।
परन्तु गालिम और सिंगी की प्रेम की दास्तां सुनाता गालिम का घर आज भी अपनी जगह पर मौजूद है। वैसे कई सालों से यह घर खाली है। गालिम के परिवार से जुड़े अगली पीढ़ी के लोग अभी भी इस घर के आसपास के घरों में रहते हैं।
अब भूटान सरकार की योजना गालिम के इस घर को संग्रहालय में तब्दील करने की है। गालिम और सिंगी की प्रेम कहानी पर भूटान में दो बार फिल्में भी बन चुकी हैं। साल 2011 में बनी ‘सिंग लेम’ नामक भूटानी फिल्म सुपर हिट रही थी।
देश कोई भी हो, हीर-राँझा हो या रोमियो-जूलियट प्रेम की दास्तां तो हर जगह से जुड़ी है। कुछ हम तक पहुँच पाती है तो कुछ अंधेरों में गुम हो जाती हैं। प्रेम फिर भी अपनी उज्जवलता के साथ चमकता रहता है।
सोनम से बातें करते-करते कब वक्त बीत गया पता ही नहीं चल। रास्ते में ठंड बहुत बढ़ गई थी। शाम का समय बढ़ती ठंडक बादलों का सिमटना और जाते सूरज का पर्वतों को एक अलग ही रंग में रंग देना कितना अद्भुत था! इसे मेरी आँखें कभी भूल नहीं सकतीं।
मैं आज पहली बार लौटते समय उदास हो गई थी। प्रकृति का ये रूप मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। आज शाम के समय प्रकृति का ये रूप अविस्मरणीय था। एक जादू जैसा!
पूरी घाटी बहुत शांत लग रही थी। वो भी मेरी तरह मेरे जाने से दुःखी लग रही थी। ठंड ने एक अजीब सी ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली थी।
हरियाली के कितने रंग होते है?
हर पेड़ के अलग,
हर पत्ती के अलग,
दिन के हर प्रहर में अलग!
सुबह के समय लगता है।
पत्तियाँ नाच रहीं हैं।
झूम रहीं हैं।
गा रहीं हैं।
मिल रहीं हैं।
खिलखिला रहीं हैं।
जैसे-जैसे दिन ढलान की तरफ जाता है।
ऐसा लगता है जैसे वो सब खामोश हो जाती है।
सूरज से बिछड़ने का दर्द छुपा नहीं पाती हैं।
वो उसे विदा होते देखती है।
पर उदास हो जाती हैं।
रात जब आती है।
तो कभी पूरे चाँद को ले आती है,
कभी अधूरे से काम चलाती है।
पत्तियाँ सब सह जाती हैं।
चाँदनी रात में वो फिर धीरे-धीरे गुनगुनाती है।
प्रेम के गीत गाती पर जुदाई को न भूल पाती है।
ये चाँद भी तो कब पूरा होता है?
कई रातों अधूरे से ही काम चलाना पड़ता है।
अमावस के अँधेरे में पत्ते सहम जाते हैं।
एक दूजे का हाथ थाम बस रात काट लेते हैं।
यहाँ सब जुदाई सहते हैं।
पत्ते हों या हम,
सब खामोश हो जाते हैं।
सूरज हो या जंगल,
सबके दुःख अलग-अलग होते हैं।
आज ये पत्ते मुझे अपने जैसे लगने लगे,
खामोश थे, पर मेरे दर्द में शामिल से दिख रहे थे।
आज प्रकृति फिर मेरे पास आ गई,
मेरे कानों में अपनी बात कह गई।
हम हरदम मुस्कुरायें ये किसी के बस में नहीं है।
यहाँ जुदाई तो सब सहते हैं।
कभी सूरज को तो कोई पेड़ को अलविदा कहते हैं…
हम जुदा हो रहे हैं,
पर तुम् अफ़सोस मत करना!
हर जगह हम दिखते हैं।
हमें याद करके,
किसी पेड़ से बात कर लेना।
कुछ अहसास तो मिल ही जायेंगे।
जो अगले पड़ाव तक तुम्हें जीवन दे जायेंगे।
एक जादुई समा से हम बाहर निकल रहे थे।
एक बार फिर कुछ छूटा,
कुछ टूटा,
मैंने यादों के पत्तों को समेटा,
अपने खज़ाने को छुआ,
आज उसे कुछ भारी पाया,
एक मुस्कुराहट चेहरे पर आ गई,
मैं एक बार फिर जंगल से बाहर निकल गई…
करीब आठ बजे हम थिम्पू पहुँचे। अभी पारो जाने में एक घण्टा और लग जायेगा। मेरे फोन की घण्टी बजी। देखा तो आमा का फोन था।
वो पूछ रहीं थीं – “मैं कहाँ हूँ? कैसी हूँ? कब घर लौट रही हूँ?”
“ मैं अच्छी हूँ! अभी हम थिम्पू से आगे बढ़ रहे हैं, करीब एक घण्टे में पारो पहुँच जायेंगे।”
हमारे अपने ही हमको देरी होने पर फोन करते हैं। आमा भी तो मेरी अपनी ही है। अपनों को चिंता तो स्वाभाविक ही होती है। अपने सिर्फ़ वो नहीं जो खून, रिश्तों या देश की दीवारों से बंधे है। वो सब हमारे अपने हैं जो हमारे और हम जिनके दिलों में जीते हैं।
प्रेम की कोई दीवार नहीं होती। वही तो प्रेम है जो कुछ भी न देखे, सिर्फ़ व सिर्फ़ अपनापन देखे! आज रात के समय पारो पहुँचने पर दूर से द्जोंग दिखा। जिसकी रोशनी रंग बदल रही थी। सतरंगी रोशनी में चमकता वो नज़ारा बहुत अच्छा लग रहा था।
उसे देखते ही मैं कह उठी- “ये तो बहुत सुंदर लग रहा है!”
“आपको फोटो लेनी है क्या?”
“हाँ, गाड़ी रोक लिजिए!”
“आप फोटो ले लेंगे क्या?” मैं अब थकान महसूस कर रही थी।
“जरूर!” कहकर सोनम ने मेरे लिए कुछ फोटो लिए।
आज के दिन के साथ का सोनम को धन्यवाद देकर, उन्हें शुभ रात्रि कहकर मैं अपने कमरे की तरफ जा रही थी। एक दिन समाप्त हुआ। कुछ अद्भुत यादों के साथ…
26/9/18
पारो में आज मेरा आखरी दिन था। आज के दिन मैं कहीं बाहर जाना नहीं चाहती थी। मेरे होमस्टे के पास का नजारा बहुत सुंदर था। बाहर नदी बहती थी। खूबसूरत गुलाबी फूलों से भरे मैदान थे।
मैं वहां पैदल जाना चाहती थी। पारो का मार्केट बहुत सुंदर था। जहाँ से मैं रोज गुजरती थी। मगर मैंने वहां से कुछ खरीदा नहीं था। आज मैं आराम से वहाँ घूमना चाहती थी।
आज का दिन इत्मीनान का दिन था। सुबह नाश्ता करके मैं पहले मार्केट गई। पूरे मार्केट को घूम कर देखा जो मुझे बहुत सुंदर लगा। पारंपरिक शैली के भवन में नीचे की दुकानें और ऊपर खाने के लिए रेस्टोरेंट हैं। अधिकतर जगह ऐसा ही है।
आज यहाँ एक रेस्टोरेंट में मैंने भारतीय थाली वाला खाना खाया। जो बहुत स्वादिष्ट था। साथ ही उसकी मात्रा इतनी थी कि आधा मेरा रात का खाना हो गया। वो थाली ₹400 की थी।
एक बार मैंने थिम्पू में पूरी, आलू की सब्जी खाई थी। जो सिर्फ ₹90 की थी। उसमें चार भटूरे जितनी बड़ी पूरियाँ थी। मैंने सिर्फ दो खाईं थी। बाकी दो शाम को हमारे होमस्टे के श्वान ने खाई थी।
दुकानों में मुख्यतः हैंडीक्राफ्ट के सामान थे। जिसमें कढ़ाई किये हुए पर्स, मफ़लर, बुद्ध की अनगिनत तरह की प्रतिमाएं, सजावटी सामान, जिसमें कुछ लकड़ी पर नक्काशी वाले थे। तो कुछ पेंटिंग किये हुए थे। इन दुकानों में सामान देखना एक तरह से म्यूजियम जाने जैसा ही था। साथ ही यहाँ महिलाओं के लिए आकर्षक ज्वेलरी भी थी।
कुछ जगह भूटान के पारंपरिक खाने का सामान भी यहां मिलता है। महीनों तक रखा जा सकने वाला चीज़ (दो इंच के आयताकार टुकड़े) जो सुखा हुआ एक माला की तरह यहाँ बिकता है। जिसे हम चिंगम की तरह खा सकते हैं। तरह-तरह के नूडल्स, मसाले, बहुत सारी चीजें यहाँ थी।
मैंने दो पर्स खरीदे। लोग कहते हैं भूटान महंगा है मगर मुझे ऐसा नहीं लगा। हाथ की कढ़ाई का पर्स ₹400 में मिला, जो मुझे ठीक लगा। दूसरा पर्स ₹300 का था।
यहाँ पर स्टोन ज्वेलरी बहुत सुंदर मिलती है। अचानक मुझे याद आया, मैंने टाइगर नेस्ट के नीचे भी ऐसे कई दुकानें देखी थी। जहाँ महिलाएं यह सारा सामान एक ओटले (चबूतरे) पर बैठ कर बेचती हैं।
स्वाभाविक है वह थोड़ा सस्ता होगा, पारो के मार्केट में दुकानों पर सामान की कीमत से वहाँ मुझे कुछ तो कम ही मिलेगा। हम पैसे बचाने के लिए कहाँ और कितने पैसे खर्च करते हैं? इसका हिसाब तो हास्यास्पद होगा! मैंने एक टैक्सी ली। टाइगर नेस्ट गई वहाँ पर मैंने ज्वेलरी खरीदी।
बस, 15 मिनट रुकना था। उतने ही पैसे आने-जाने के टैक्सी वाले को दिए। अपना सामान खरीदा और वापस आ गई। अभी यह हिसाब लगाने की इच्छा नहीं है कि यह सब सस्ता पड़ा या नहीं? मुझे अच्छा जरूर लगा!
मैंने दो झुमके व एक माला खरीदी जो मुझे बहुत वाज़िब लगी। ₹150 के झुमके (एक जोड़ी) और 300 की माला।
मैंने अपने कमरे पर आ कर वह सामान रखा। कॉफी पी और बाहर टहलने के लिए निकली। हमारे होमस्टे में एक नवविवाहित दंपत्ति आकर ठहरे थे। वो भी वहीं बाहर टहल रहे थे। हम लोगों में हेलो के आदान-प्रदान के साथ बातचीत हुई, तो उन्होंने कहा कि “वे फूलों के खेतों के पीछे जो नदी बह रही है। वहाँ जाना चाहते हैं।”
मैं भी तो वहीं जाना चाह रही थी। हम एक साथ आगे बढ़े। 3-4 खेतों में से जाने के बाद भी हमें नदी की ओर जाने का रास्ता नहीं मिला।
हमने एक महिला से कहा “क्या वह हमें यहाँ का रास्ता समझा सकती हैं?” (जिन स्थानीय लोगों को अंग्रेजी नहीं आती हैं उन्हें अपनी बात समझाना आसान नहीं होता है।) मैंने आमा को फोन भी लगाया मगर हमें रास्ता नहीं मिला। हर खेत के बाद एक फेंसिंग थी।
एक महिला ने हमें कहा कि “यदि हमें नदी की तरफ जाना है तो थोड़ा आगे जाना होगा। वहीं से रास्ता मिलेगा।” हमसे आगे बड़े, आगे रास्ता तो था; मगर बहुत मुश्किल था।
एक ऊंची पत्थरों की दीवार को पार करके घुटने तक पानी में से चल कर, बहुत सारे पत्थरों के ऊपर चल कर जाने के बाद बहती नदी हमसे मिल पाई। शाम होने को थी। ठंडी हवा, ढलता सूरज और नदी का कलकल करता, बहता पानी एक बहुत ही सुंदर समा बाँध रहे थे।
पत्थरों पर से चलकर, घुटने तक पानी से निकल कर फिर से उस दीवार को पार करके जब हम बाहर आए, तो हम तीनों ने एक ही बात कही कि “हमें एक दूसरे का साथ था। इसलिए हम वहाँ पहुँच पाये।” मैं उनके बगैर या वह दोनों भी मेरे बगैर पहुंचाने की हिम्मत नहीं करते।
मेरी इस यात्रा में आज किसी का साथ मेरे अंतिम दिन को महका गया। अपनी इस हिम्मत पर हम हँसते- मुस्कुराते वहाँ से बाहर निकले। मैंने उन दोनों से विदा ली और एक लंबी वॉक पर आगे बढ़ चली। रोज रात को जब मैं लौटती थी तो मैं यहाँ पर लोगों को वॉक करते हुए देखती थी। मुझे पैदल चलना बहुत अच्छा लगता है।
यह देश, सुरक्षा और सुंदरता की एक शानदार मिसाल है। यहां सड़कों पर लाइट नहीं है। उसके बावजूद कई महिलाएं शाम के समय बड़े आराम से वॉक करतीं हैं। शायद हम जैसे पर्यटक ही यहाँ शाम के समय घूमना बहुत पसंद करते हैं। मुझे भी आज यहाँ अपना घूमना बहुत अच्छा लग रहा था।
कमरे में आकर मैंने शाम का खाना खाया। आमा और कुलू आज मेरे कमरे में आए। हम दोनों ने बहुत सारी बातें कि आज मेरा आखिरी दिन था तो यकीनन बातें तो बहुत सारी होनी ही थीं। हम दोनों ने घर परिवार की अपने जीवन की बातें की।
आज दो महिलाएँ, दो माँ आपस में बात कर रही थीं। आमा अपनी पूरी ऊर्जा के साथ अपना जीवन चला रही हैं। होमस्टे के साथ बेटियों की ज़िम्मेदारी एक अकेले जीवनसाथी के लिए आसान नहीं होती है।
फिर भी जीवन को अपने पूरे समर्पण के साथ जीना, मुस्कुराते हुए आगे बढ़ना आज हम महिलाओं के व्यक्तित्व का एक हिस्सा ही है।
आज पूरे विश्व में महिलाएँ अपनी घर-बाहर की ज़िम्मेदारियाँ बड़ी लगन, समर्पण से पूरी कर रही हैं। आमा भी उनमें से एक ही है। एकदम भोली, प्यारी, अनूठी!
आमा मेरे लिए तीन उपहार लाई थी जिसमें से एक टाइगर नेस्ट वाला मैग्नेट, एक शुभ चिन्हों वाला शो पीस और एक भूटान का हाथ से बुना हुआ कपड़ा जो अपने चटकीले रंगों के कारण बहुत सुंदर लग रहा था। मेरे जीवन में आमा मेरी पहली होस्ट हैं जिन्होंने मुझे इतने सुंदर उपहार दिये। इतने प्रेम और सुंदर उपहारों के लिए धन्यवाद तो बहुत छोटा था।
पर हां, फिर भी धन्यवाद तो जीवन के हर पल का हर उस लम्हें का है; जो हमें खुशी देता है सुकून देता है जीवन को जीने की ताकत देता है!
अपनी यादों की पोटली को भूटान के प्राकृतिक, सांस्कृतिक सौंदर्य और आमा के स्नेह से भर कर मैंने जो पाया उसे शब्दों में बयान तो कर रही हूँ। पर पता नहीं कितना कर पाऊँगी? जितना महसूस किया वह सब शब्द समझ पाएं जरूरी नहीं!
आज की सुबह मुझे भूटान से अपनी वापसी शुरू करनी थी। सुबह नाश्ता किया। आमा को सुबह जल्दी उठा कर विदा लेना ठीक नहीं लगा। उनका दिन बहुत मेहनत से भरा होता है।
मेरे पास भूटान की सिम है तो मैं थोड़ी देर बाद उनसे बात कर सकती हूँ। धनेश मुझे बाहर तक विदा करने आये। टैक्सी से मैं बस स्टैंड पहुँची। यहाँ से आधे घण्टे बाद मेरी बस फुनशीलोंग जाएगी। करीब पांच घण्टे का रास्ता होगा।
हमारी बस ठीक समय पर चल दी। ये वही रास्ते है जो मुझे भूटान लाये थे। हमारी बस एक जगह खाने के लिए रुकी। यहाँ शाकाहारी भोजन नहीं था। मैंने एक बिस्किट का पैकेट लिया।
वहीं घूम रही बिल्ली पर नजर गई तो उसकी दोनों आँखों का रंग अलग-अलग था। ऐसा मैं पहली बार देख रही थी। वहाँ अधिकतर घरों में कुत्ता व बिल्ली साथ-साथ रहते हैं।
बचपन से एक साथ पलने के कारण वो आराम से साथ में रह पाते हैं। करीब एक बजे हम फुनशीलोंग पहुँचे। इस बार यहाँ ठहरने का इंतजाम आमा ने ही करवा दिया था। मैं पहले जिस होमस्टे में ठहरी थी वो आज खाली नहीं था।
इस होटल में मैंने फोन लगाया रास्ता समझने के लिए। उन्होंने मुझे रास्ता समझाया। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं दस मिनिट में पहुँचने वाली हूँ।’ बस से उतरकर टैक्सी लेने में कुछ समय लग गया।
इतने में होटल से फोन आ गया- ‘आपको रास्ता ढूंढने में कोई तकलीफ तो नहीं हो रही है?’
‘अरे नहीं, हम बस पहुंचने ही वाले हैं।’
होटल के बाहर ही एक युवक मेरे इंतजार में खड़ा था। जिसने बड़े स्नेह से मेरा स्वागत किया। एक युवती आई वो मुझे मेरे कमरे तक ले गई। साथ ही मुझसे पूछा- “मैं चाय या कॉफी क्या लेना पसंद करूँगी?”
-“मैं पहले थोड़ा आराम करूँगी। फिर खाने का ऑडर देती हूँ।”
मैंने आराम किया। फिर खाना मंगवाया जो बहुत अच्छा था। उसके बाद वही युवती रजिस्टर लेकर आई। मेरे एडमिशन की औपचारिकता पूरी करने। तब मुझे याद आया कि ये सब तो हमेशा रिशेप्शन पर ही हो जाता है। उसके बाद ही हम कमरे में जाते हैं। यहाँ ये अपनापन मुझे अच्छा लगा।
मेरे फोन कि घण्टी बजी। आमा का फोन था। ‘मैंने उनको सुबह उठाया क्यों नहीं? वो मुझसे मिलकर मुझे विदा करना चाहती थी।’ जिसका हम दोनों को अफसोस रहा। हम दोनों ने कुछ बातें की। मुझे पारो की याद आ रही थी। अपना मन मैंने पारो से दूर करने के लिए बाहर जाने का सोचा।
अब शाम के समय भी हो गया था। मैं बस स्टैंड गई, जो हमारी होटल से बहुत पास था। मुश्किल से पाँच मिनट का ही रास्ता था। अगली सुबह मुझे सिलीगुड़ी जाना था। जिसकी बस का समय और टिकट का मुझे पता करना था।
बस स्टैंड पर जाकर मैंने टिकट ली। मेरी बस सुबह साढ़े सात बजे की थी। बस स्टैंड के पास सब्जी मार्केट था। जहाँ से मैंने कुछ फल खरीदे और मैं वापस अपने कमरे पर आ गई। आज घूमने का मेरा मन नहीं था।
मेरे पास समय था मैं चाहती तो फुनशीलोंग के बाजार को देख सकती थी। पर अब मुझे अपने कमरे में ही जाने का मन था। मैंने शाम का खाना खाया आराम किया। अगली सुबह जल्दी उठी। अपना सामान पैक किया। होटल के कर्मचारियों से रात को ही बात हो गई थी कि वे सुबह इतनी जल्दी नहीं उठ पाएंगे। यदि मैं किसी को जगाऊँ तो वह मुझे चाय बना कर दे देंगे।
मैंने उन्हें तभी कह दिया था कि “मैं सुबह चाय बस स्टैंड पर पी लूंगी। आप मेरा बिल वगैरह सब रात को ही क्लियर कर दीजिए। मेरे लिए परेशान न हों!”
सुबह मैं उठी अपना सामान लेकर होटल से बाहर निकली। आज यहाँ से पैदल ही मैं बस स्टैंड तक पहुंची। बस में बैठी यहाँ से 5 घंटे का सफर करके करीब 1:00 बजे मैं सिलीगुड़ी पहुंच गई।
सिलीगुड़ी से टैक्सी ली और बागडोगरा के हवाई अड्डे पर पहुंच गई। आज यहाँ बहुत गर्मी लग रही थी। मौसम में परिवर्तन कुछ ज्यादा ही था। भूटान बहुत ठंडा और यहां बहुत गर्मी लग रही थी।
करीब चालीस मिनट में हम सिलीगुड़ी से बागडोगरा के हवाई अड्डे पर पहुंच गए। हवाई अड्डे पर मैं करीब चार घंटा पहले पहुंच गई थी। मेरी फ्लाइट शाम को साढ़े पांच बजे की थी। मैंने हवाई अड्डे के लाउंज में खाना खाया। पाँच बजे मैंने अपने हवाई जहाज में बोर्ड किया।
करीब साढ़े सात बजे हम दिल्ली आ गये। दिल्ली में टर्मिनल एक पर हमारा विमान उतरा। वहाँ से बाहर निकलते समय मैंने एक सुरक्षाकर्मी से पूछा –“यहां से मेट्रो का कोई रास्ता है क्या?”
उसने कहा- “मुझे यहां से शटल टर्मिनल तीन तक ले जाएगी। वहाँ से मुझे मेट्रो मिल जाएगी।”
उसकी बात सुनकर मैंने कहा “इससे तो बेहतर है, मैं टैक्सी लेकर दिल्ली रेलवे स्टेशन चली जाती हूँ!”
उस कर्मचारी ने बड़े हक व अपनत्व से कहा- “अरे मैडम, टैक्सी से जाने पर बहुत ज्यादा समय लगेगा। अभी आठ बजे का समय है। इस समय बहुत सड़कों पर बहुत ज्यादा भीड़ है। आप मेट्रो से जाओगी तो बीस मिनट में रेलवे स्टेशन पहुंच जाओगी।”
उसकी बात सही थी। मैंने मुस्कुराकर कहा- “ठीक है! मैं टैक्सी नहीं लेती हूँ। मेट्रो से ही जाती हूँ। मुझे एक बार फिर से बताइए कि मुझे शटल कहाँ से मिलेगी? मुझे किस तरफ जाना है?”
उन्होंने मुझे दोबारा पूरे धैर्य से पूरा रास्ता समझाया। (जहाँ भीड़ ज्यादा हो वहाँ किसी का अपनत्व भरा सहयोग एक धन्यवाद का भाव लाता है।) दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचकर मैंने खाना खाया और अपनी ट्रेन पर पहुंच गई। रात को करीब एक बजे मैं ग्वालियर वापस आ गई।
भूटान एक सुंदर, अनुशासित, स्नेह से भरा देश है। जो अपने पर्यटकों का दिल खोलकर स्वागत करता है। जिसके पास उद्योग, कारखाने न के बराबर हैं। जो अपनी ऑर्गेनिक खेती, हाइड्रो पावर (जो भारत के सहयोग से चलता है), हैंडीक्राफ्ट और पर्यटन के बल पर अपनी अर्थव्यवस्था को आगे ले जा रहा है।
भूटान, भारत के छोटे भाई जैसा ही है। आकार, उद्योग उसके पास सब कुछ कम ही है। बड़ा है तो उसका दिल, देशप्रेम जो वहाँ के लोगों के व्यहवार में दिखता है और जो हमें उनसे मिलता है। काश! हम भी अपने देश में आये पर्यटकों को ऐसा ही प्रेम और स्वच्छ देश दे पायें। ये उम्मीद तो हम अपने आप से कर ही सकते हैं!
भारत, एक ऐसा देश जिसमें हर प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता तो समायी ही है। हर प्रदेश का रंग परस्पर इतना धुल- मिल गया है कि उनको अब हमारी जीवनशैली से अलग कर पाना असंभव है।
कश्मीर की कढ़ाई हो या दक्षिण व बनारस का सिल्क, लखनवी चिकन हो या चंदेरी की साड़ियाँ, महाराष्ट्र की पावभाजी हो या गुजराती फाफडे, डोसा हो या बिरयानी सब हर जगह अपने आप को स्थापित कर चुके हैं।
हमनें भी करवाचौथ हो या होली किसी को एक जगह से बाँध कर रखना भी कब चाहा? लोहड़ी पर पूरी कॉलोनी के लोग आग के आगे नृत्य करते और खाना खाते हैं। उस समय हम अपनी दीवारों को याद करना पसंद नहीं करते हैं।
क्रिसमस हो या केक हमारे बच्चे सब पसन्द करते हैं। अब महाराष्ट्र की दुल्हन राजस्थानी चनिया-चोली ज्यादा पसंद कर सकती है।ऐसा देश, जो कुछ नया बहुत जल्दी स्वीकार करता और सीखता है। वो क्या पर्यावरण से प्रेम करते हुए पर्यटकों को एक साफ, अनुशासित माहौल नहीं दे सकता है?
यकीनन, हाँ! बस जरूरत है एक बार कमर कस लेने की। अपने लक्ष्य निर्धारित करने की फिर हमें कोई भी पीछे नहीं छोड़ सकता।
कारगिल के समय दान-दाताओं की अंतहीन कतारों ने ये साबित किया था। हम अपने देश, सैनिकों के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। आज वो जुनून एक बार फिर जाग जाये।
हमारा भारत, जिसे प्रकृति का आशीर्वाद उसके पर्वतों, सागर, रेगिस्तान, मैदानों, नदियों, झीलों, झरनों, असंख्य वनस्पतियों के रूप में मिला है। वो भारत आज अपने पर्यटन स्थलों को, पर्यावरण को, संजोने लगे।
जैसे हम अमीर हो या गरीब अपना घर बहुत लगन से सजाते हैं; वैसे ही हम अपने देश की अमूल्य धरोहरों को भी सम्मान दें! वसुन्धरा को सम्मान देने पर, उसकी कद्र करने पर वो हमारा कर्ज़ नहीं रखती है। अपने अनन्त हाथों से हम पर आशीर्वाद ही बरसाती है जिससे हमारे लिए सुख, समृद्धि के कई रास्ते भी खुलते हैं।
पर्पल पॉपी को अपना राष्ट्रीय फूल मानने वाला देश अपनी अंनत हरियाली के बावजूद जन्मदिन पर पेड़ का तोहफा देने की परम्परा को निभाता है।
पूरे विश्व में पर्यावरण को सरंक्षित करने के कई अभियान चल रहे है। ऐसे में भूटान इन समस्याओं से जूझने से पहले ही हरियाली को सम्मान देकर अपने आप को सुरक्षित करके पर्यटकों को लुभाता हैं। अपने इस पड़ोसी से हमारे कई तरह के लेन-देन चलते हैं। हम भी इससे कुछ सीख सकते हैं वो है प्रकृति का सम्मान!
भूटान की यात्रा मेरे लिए एक कैनवास पर बने अद्भुत चित्र को देख कर अपने साथ ले आने जैसी ही रही। वो ‘मुस्कुराती हरियाली’ की पेंटिग हमेशा मेरे साथ ही रहेगी। मेरी यादों को महकती, मुझे फिर अपने पास बुलाती। कुछ और नए स्थान देखने के लिए, प्रकृति को कुछ और जीने के लिए…