Bhutan Ladakh aur Dharamshala ki Yatraye aur Yaadey - 8 in Hindi Travel stories by सीमा जैन 'भारत' books and stories PDF | भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 8

Featured Books
Categories
Share

भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 8

8…

नम्बर प्लेट का फोटो:

25/9/18

आज मुझे पुनाखा जाना था। पुनाखा की नदी के किनारे बना मठ मुझे बहुत सुंदर लगता था। आज उसे देखने जाना मेरे लिए रोमांचकारी अनुभव था। इस मठ की कुछ तस्वीरें मैंने पहले देखी थीं। तब से इस स्थान को देखने का बहुत मन हो रहा था। आज उस जगह जाना मेरे लिए बहुत खुशी की बात थी।

सोनम मुझे दो दिन से मेरे होमस्टे से आकर ले जाते थे। उन्हें पता था कि मैं अपनी इस यात्रा के बारे में एक पुस्तक लिखने वाली हूँ। तो वो मुझे यहाँ से जुड़ी कई जानकारियाँ देते रहते थे। आज पुनाखा जाते समय हम पहले थिम्पू रुके। यहाँ से हमें पुनाखा का परमिट लेना था। 

साथ ही मुझे पर्यटन विभाग जाना था। जहाँ से मुझे भूटान से जुड़ी हुई ज्यादा से ज्यादा जानकारी मिलने की उम्मीद थी। मैं अपने परमिट के लिए आवेदन करने के बाद वहाँ जाना चाह रही थी। मैं परमिट का फॉर्म भर रही थी। एक सुंदर संयोग हुआ कि मेरे साथ चार भारतीय और थे; जो अकेले थे।

अधिकारी ने हमसे वही बात कही कि “आप अकेले हैं? तो आपको एक पत्र लिखकर देना पड़ेगा।”

मेरे साथ जो युवती थी जब उससे अधिकारी ने पूछा कि “क्या आप अकेली हैं?”

तो उसने बड़ी बुलंद आवाज में कहा “यस सर!”

 जैसे एक सैनिक कहता है मुझे उसकी आवाज की बुलंदी बहुत अच्छी लगी। हम अकेले हैं तो इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। इसको हम बड़े गर्व से स्वीकार कर सकते हैं कि हम अकेले हैं।

 मुझे अपनी उस आवाज की याद आई, जब मुझसे पूछा गया था तो मैं थोड़ा-सा परेशान-सी हो गई थी। जीवन सीखने का नाम है। हर घटना एक संदेश देती है। बात यह है कि आप उसे कितना समझ पाते हैं। कितना सीखते हैं।

 हम सभी भारतीयों ने मिलकर एक दूसरे से पूछ कर अपनी-अपनी अर्जी लिखी। अधिकारी को आवेदन देने के बाद उन्होंने कहा –“तीन घंटे बाद आकर अपना परमिट ले जाए!”

 अधिकतर लोग जो पूनाखा जाते हैं, रात वहीं ठहरते हैं। पर मैं ऐसी किसी तैयारी से नहीं गई थी। मुझे तो वापस पारो जाना था। एक ही जगह ठहरना मुझे पसन्द है। बार-बार जगह बदलना, सामान पैक करना मुझे थका देता है।

या यूँ कहें कि एक ही जगह से लगाव के साथ रहना मुझे पसन्द है। यही फर्क है अकेले यात्रा करने का हम अपने निर्णय आराम से ले सकते हैं। अभी तो सुबह के दस बजे हैं। यदि तीन घंटे बाद परमिट मिलेगा तो शायद मुझे देरी हो जाएगी। मगर फिर वही बात हम व्यवस्था के आगे कुछ नहीं कह सकते। मेरा दूसरा काम, मुझे पर्यटन विभाग जाना था। वहाँ के लिए रास्ता पूछते-पूछते मैं ऑफिस पहुंची।

एक बहुत बड़ा, साफ सुंदर भूटान के पर्यटन स्थलों की तस्वीरों से सजा विभाग मुझे मिला। वहां के अधिकारियों से जब मिली और मैंने जब उनसे इस विभाग से जुड़ी पुस्तकों की बात की तो उन्होंने कहा “अब यहाँ से पुस्तक का प्रकाशन बंद हो चुका है। मगर जो पहले प्रकाशित हुई थी। उनमें से कुछ पुस्तकें हमारे पास है। वह हम आपको दे देते हैं।”

मैं अपने साथ कई सारी पुस्तकें लेकर आई। जो मेरे इस पुस्तक के लेखन में मेरी सहयोगी बनी और मैं भूटान के पर्यटन विभाग को इसका धन्यवाद देती हूँ। पुस्तकें लेकर बाहर निकल ही रही थी कि सोनम का फोन आ गया “मैडम आपका काम हो गया?”

मैंने कहा “हाँ, यहाँ से पुस्तकें तो मिल गई है। मगर परमिट तो तीन घंटे बाद देने को कह रहे हैं।”

“मैडम आप परमिट ऑफिस पहुँचे। मैं भी वहीं पहुँच रहा हूँ। मुझे तीन सवारियाँ मिल गईं हैं। जब हम वहाँ ऑफिस में जाकर विनती करेंगे तो आपको परमिट जल्दी मिल सकता है।”

 मैं ऑफिस पहुंची अंदर जाकर परमिट से जुड़ी कोई बात पूछती उससे पहले एक महिला अधिकारी ने कहा- “उस ट्रे में आपके परमिट रखे हैं। आप उन्हें ले सकते हैं।”

मैं बहुत खुश! अपना परमिट लेकर बाहर निकली। यह काम तो ऐसा हुआ कि मेरा एक पल भी खराब नहीं हुआ।

मुझे धनेश ने कहा था कि “आप पर्यटक ऑफिस परमिट अप्लाई करने के बाद ही जाये। क्योंकि पूनाखा से लौटते समय थिंपू में सब कुछ बंद हो चुका होगा।”

धनेश की बात सही निकली। यहाँ फिर वही बात अपने पूरे दिन का कार्यक्रम सभी लोगों के साथ जब हम डिस्कस कर लेते हैं। तो उसके बहुत फायदे होते हैं। 

जब मैं गाड़ी में बैठी तो सोनम ने कहा “मैडम आप बहुत लकी हैं! आपको परमिट भी जल्दी मिल गया और मुझे तीन सवारियां भी।” (मैं साझा टैक्सी पसन्द करती थी। हमारे पैसों की बचत से मुझे कोई परहेज़ नहीं था)

थिम्पू से बाहर निकलते ही घने पेड़ों ने हमारा स्वागत करना शुरू किया। पुनाखा के इस रास्ते पर बादल हमारे साथ ही चल रहे थे। अपनी खिड़की से हाथ बाहर निकाल कर उन्हें छूना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। इस ऊंचाई पर आकर बादल कितने हल्के और कितने करीब थे। और हाँ, उनका रूप भी बदल गया था। 

जीवन के भाव भी कुछ ऐसे ही है जब नीचे से बादलों को देखो तो वह बहुत घने रुई के पहाड़ लगते हैं। मगर पास जाओ तो ठंडी हवा का एहसास, एक हल्की सी धुंध जो हमारे साथ ही चल रही है। बस ऐसे ही लगते हैं।

जीवन के सुख-दुख, हमारी हार-जीत सब कुछ ऐसी ही है। दूर से बहुत बड़ी लगती है। पास जाओ तो बस एक एहसास रह जाता है। घनापन खत्म हो जाता है। प्रकृति से बड़ा कोई गुरु नहीं! बात बस, समझने की और उसे महसूस करने की है।

कार अपने वेग से भाग रही थी। पीछे बैठे तीनों साथी बौद्ध भिक्षु थे। सोनम ने मुझसे कहा- “अगर आप इनसे कुछ पूछना चाहती हैं, तो पूछ सकती हैं।”

सोनम ने उनको भूटानी में मेरे बारे में बताया। मैंने उनसे कुछ सवाल पूछे - वो कितने समय से मठ से जुड़े हैं? मठ में क्या, कैसे नियम हैं? क्या वह अपने घर मिलने जा सकते हैं? क्या खाने-पीने के निर्धारित समय होते हैं? क्या वह कभी बाजार सामान खरीदने जा सकते हैं?

  • वोतीनों करीब पाँच साल से मठ से जुड़े थे।
  • सुबहउठना, अध्ययन करना। हर चीज के नियम हैं।
  • नहीं, वोअपने घर नहीं जा सकते हैं।
  • येनियम तो एकदम पक्के हैं।
  • हाँ, उन्हेंबाजार जाकर अपनी जरूरत का सामना लाने की छूट है।

 वह मेरे सवालों के जवाब दे रहे थे मगर बार-बार सोनम को मेरे सवालों को अंग्रेजी से भूटानी में उनको समझाना पड़ रहा था। जो पहाड़ी रास्तों पर एक चालक के लिए ठीक नहीं है। साथ ही सोनम पीछे बार-बार देख रहे थे। ये सब देखकर मैंने उनसे ज्यादा सवाल नहीं पूछे। रास्ते में दोचुला पास आया। यहाँ रुककर हमने कुछ फ़ोटो लिए।

15*दोचुला पास

थिंपू से पुनाखा के रास्ते पर 25 किलोमीटर दूर दोचूला पास है। समुद्रतल से इस स्थान की ऊंचाई 3,020 मीटर है। यहां पहुंचते ही ठंडी हवा के झोंके ने हमारा स्वागत किया।

यहां पर बौद्ध मंदिर एवं 108 स्तूपों का समूह देखने लायक है। उल्फा उग्रवादियों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त 108 सैनिकों की याद में इसका निर्माण किया गया है। यहां से हिमालय की बर्फीली चोटियों के शिखर बहुत सुंदर लग रहे थे। 

कुछ आगे जाने पर राज परिवार का निजी मन्दिर दिखाई दिया जो दूर पर्वतों के बीच बहुत सुंदर लग रहा था। रास्ते में मैं सोनम से बात करती रही। उससे मुझे कईं जानकारियाँ मिली। यहाँ शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा पूर्णतः मुफ़्त में राजतंत्र की ओर से दी जाती है।

 स्कूली शिक्षा के बाद यदि किसी प्रतिभावान विद्यार्थी को विदेश पढ़ने जाना है। तो सरकार उसका खर्च भी वहन करती है। हालांकि भूटान में भी कुछ कॉलेज हैं, जहाँ विद्यार्थी अपनी आगे की शिक्षा जारी रखते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के साथ भी यही बात है कि भूटान में जितने अस्पताल हैं, वहाँ के बाद यदि विदेश में इलाज की आवश्यकता है तो सरकारी खर्च पर वह व्यवस्था की जाती है।

 शासन से जुड़े यह दो फायदे- जनता को शिक्षा व स्वास्थ्य यदि राजा की तरफ से मिल जाए तो यह एक बहुत बड़ी राहत की बात है। अच्छी सड़कें, शासन व्यवस्था जो पूरे अनुशासन से चलती है। आम जनता व देश की प्रगति के लिए यह एक बहुत बड़ी ज़रूरत है।

 इससे ज्यादा व्यवस्था से उम्मीद करना ठीक भी नहीं, हमारी जिंदगी की प्रगति हमारे हुनर, हमारी प्रतिभा पर टिकी होती है। यहाँ की व्यवस्था आम जनता को जो दे रही है वह उम्मीद से ज्यादा है। सोनम की तीन बहनें थिम्पू के सरकारी विभाग में कार्यरत हैं। माता-पिता पास ही किसी गाँव में रहते हैं। वो खेती पर निर्भर है।

16*पुनाखा द्जोंग

पुनाखा नगर पुनाखा जिले का प्रशासनिक केंद्र है। वर्ष 1955 तक पुनाखा भूटान की राजधानी थी। इसके बाद भूटान की राजधानी थिम्पू स्थानांतरित हो गयी। पुनाखा से थिम्पू की दूरी 72 किलोमीटर है।

 पुनाखा से थिम्पू कार से जाने में लगभग 3 घंटे समय लगता है। थिम्पू की अपेक्षा पुनाखा में सर्दियों में कम सर्दी और गर्मियों में अधिक गर्मी रहती है।

भूटान में पुनाखा सफ़ेद और लाल चावल के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। यहां की फ़ोचू (नर) और मोचू (मादा) नदियों की घाटी में ये दोनों प्रकार के चावल पैदा होते हैं। यह दोनों नदियां भूटान की महत्वपूर्ण नदियां हैं।

रितषा गाँव

इस गांव के घर की दीवालें तालाब की मिट्टी से बनी हैंl लेकिन इनकी नींव पत्थरों से तैयार की जाती है। मकान दो मंजिले से अधिक नहीं बनाये जाते हैं। घरों के आस -पास गृह उद्यान और चावल की खेती होती है। गृह उद्यानों में सब्जियाँ और फलों के वृक्षों का रोपण किया जाता है। फलों में पपीता और संतरा के पौधों की अधिकता रहती है। सर्दियों में पुनाखा के किले में केंद्रीय भिक्षु संस्था का आवास रहता है।

 शाही बौद्ध मठ – पुनाखा जोंग

दोचुला पास से चलने के बाद पुनाखा से पहले गुरुथांग नामक कस्बा आता है। यह मोचू नदी के किनारे है। पुनाखा भूटान की प्राचीन राजधानी थी। यहाँ शहर में बाजार के नाम पर कुछ ज्यादा दिखाई नहीं देता है।

 गुरुथांग बाजार से 5 किलोमीटर आगे जाने पर पोचू और मोचू नदियों के संगम पर पुनाखा जोंग दिखाई देता है। यह भूटान का शाही बौद्ध मठ है। वह जोंग नदी के उस पार है। वहां जाने के लिए नदी पर पुराना लकड़ी का पुल बना हुआ है। यह पुल बड़ा ही सुंदर है। पुल से पानी में मछलियों को देखा जा सकता है।

नर व मादा नदी की बात मैंने पहली बार यहाँ सुनी। जिस नदी का जलप्रवाह तेज है, पाट चौड़े हैं वो नर है। अपेक्षाकृत कम पाट व प्रवाह वाली मादा है। इन दोनों के संगम के बाद इस नदी का वेग व पाट काफी चौड़े हो जाते हैं।

द्जोंग को दो नदियों के बीच में बनाने के पीछे सुरक्षा का कारण अहम् रहा था। जो इसे बाहरी आक्रमण से बचाने की सोच पर टिका था।

जोंग में प्रवेश के लिए भारतीय नागरिकों को 300 रुपये का टिकट लेना अनिवार्य है। साथ ही हमें एक गाइड मिल जाता है जो अधिकतम दस लोगों को अपने साथ लेकर चलता है। वह बड़े आराम से हमारे सवालों के जवाब देते हैं व हमें द्जोंग की विस्तृत जानकारी भी देते हैं।

टिकट लेकर लकड़ी के सुंदर पुल को पार कर हम पुनाखा जोंग के परिसर में पहुंच गए। कोई 20 सीढ़ियां चढ़ने के बाद मठ का विशाल प्रवेश द्वार है। दोनों तरफ दो विशाल धर्म चक्र और दीवारों पर बुद्ध के जीवन कथा से जुडी विशाल पेंटिंग।

इसके बाद हम विशाल आंगन में पहुंच गए हैं। हमारे गाइड हमें बताते हैं कि इस जोंग के आंतरिक हिस्से में तीन भाग हैं। इसमें आप पूजा स्थल और बौद्ध भिक्षु निवास क्षेत्र में नहीं जा सकते। मुख्य मंदिर और उसके आंगन क्षेत्र में घूम सकते हैं।

पुनाखा जोंग का निर्माण 1637-38 में प्रथम रिनपोछे नागवांग नामग्याल द्वारा करवाया गया। यह भूटान का तीसरा सबसे पुराना और दूसरा सबसे बड़ा जोंग माना जाता है।

वास्तव में पुनाखा जोंग भूटान के राजघराने का प्रशासनिक केंद्र 1955 तक हुआ करता था। इसके पास में ही भूटान का पुराना राजमहल स्थित है। 1955 में राजधानी थिंपू में जाने के बाद भी इस जोंग का महत्व बना हुआ है।

मुख्य मंदिर के अंदर गौतम बुद्ध आचार्य पद्म संभव और नागवांग नामग्याल की प्रतिमाएं हैं। बड़ी संख्या में थंगक पेंटिंग हैं। यहां आंतरिक फोटोग्राफी पर प्रतिबंध है। मंदिर की सजावट भव्य है। चटकीले रंगों का अद्भुत प्रयोग इस मंदिर को बहुत सुंदर बना देता है। हाथ की कढ़ाई से बने बुद्ध के रंगीन फोटो के लिए कारीगरों की जितनी प्रशंसा की जाए कम ही है। 

नागवांग नामाग्याल को बोरार्ड लामा के रूप में जाना जाता है। वह एक तिब्बती बौद्ध लामा थे। उन्हें एक राष्ट्र राज्य के रूप में भूटान के विकास व समृद्धि के लिए जाना जाता है।

 साल 1651 में पुनाखा में ही उनकी मृत्यु हो गई। इस जोंग में उनकी कुछ स्मृतियां संरक्षित हैं। जिन्हें यहाँ बहुत पवित्र माना जाता है। उसे देखने की अनुमति केवल राजा व मुख्य लामा को ही होती है। साथ ही भूटान की प्रगति व शांति के लिये उनकी स्मृतियों का यहाँ होना भी माना जाता है।

पुनाखा जोंग में करीब 1000 बौद्ध भिक्षु रहते हैं। इनमें बड़ी संख्या में बाल लामा भी हैं। भूटान के हर राजा की शादी पुनाखा के जोंग में होती है। साल 2013 में भी जिग्मे खेशर की शाही शादी के लिए राजधानी थिंपू से 71 किलोमीटर दूर पुनाखा में 17वीं शताब्दी के एक किले को पहले दुल्हन की तरह सजाया गया था।

 शाही शादी में करीब 1500 लोग इकट्ठा हुए। शाही शादी 100 बौद्ध भिक्षुओं की विशेष प्रार्थना के साथ आरंभ हुई। शादी सुबह चार बजे से शुरू होकर करीब दो घण्टे तक चली। शादी के बाद नरेश और महारानी ने किले के बाहर एक मैदान में जमा हजारों लोगों के साथ मिलकर नृत्य किया। शादी के जश्न में आए लोगों को भूटान की 20 घाटियों से आए 60 बेहतरीन रसोईयों के हाथों का बना हुआ पारंपरिक भूटानी भोजन परोसा गया।

हमारे गाइड ने हमें बताया कि उन्होंने जो सफेद शॉल पहना है वो साधारण व्यक्ति पहन सकता है। जिसे केबने (Kabney )कहा जाता है। केसरिया पीला वस्त्र राजा व मुख्य लामा ही पहन सकते हैं। राजा लाल रंग का केबने अपने राज्याभिषेक के समय पहनते हैं।

हम जब पुनाखा जा रहे थे और जब लौट रहे थे तो हमें शाही परिवार की गाड़ियाँ दिखीं। जिसके सम्मान के रूप में सोनम ने झट से हमारी कार सड़क के एक किनारे कर ली। दो बातें मुझे अच्छी लगी।

 एक राजा के लिए सम्मान, दूसरा जो इससे भी बड़ा कारण है कि राजा के लिए यातायात को रोका नहीं जाता है। बस एक पल का सम्मान फिर सब अपनी गति पकड़ लेते हैं। 

द्जोंग को देखने के बाद हम सस्पेंशन ब्रिज पहुँचे। तब तक शाम होने को थी। उसे दूर से ही देखकर हम वापस थिम्पू की ओर लौट चले।

मेरे पास जो किताबें थी उनमें भूटान से जुड़ी बहुत सारी जानकारियाँ थी। सोनम मुझसे बोले- “मैडम ये तो आप कमरे में जाकर पढ़ लीजिए। अभी मैं आपको यहाँ की एक प्रेम कहानी सुनाता हूँ: