Apang - 1 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | अपंग - 1

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अपंग - 1

समर्पित –

‘सुशीला’ की शीलवती

प्रकृति

और ‘सरला’ की सरलता को

अपनी दो माँ सी ननदों को जो एक ही माह में इस दुनिया को छोड़कर परम तत्व में विलीन हो गईं | 

जो अदृश्य रूप में भी मेरी साँसों में रची-बसी हैं और मेरी दाहिनी, बाईं आँख बनकर सब कुछ देख-दिखा रही हैं!

============ उपन्यास से ===========

मेरी आत्मा के भीगे हुए कागज़ पर

बेरंगी स्याही से उतर आए हैं

कुछ नाम

जो बिखरते सूरज के समान लाल हैं

और ---

मेरे मन !मैं तुझे क्या कहूँ –

पागल ?

बुद्धिमान ?

या और कुछ ?

हर पल

हर क्षण

बंद गोभी की भाँति

एक के बाद एक

परत उतरता

तू---

मेरा असली रूप सामने ले आता है –

ऐसा क्यों है कि ख़ुश होते हुए भी तुम

कुछ यादों के धुंधलके को चीरकर

अचानक ही रो पड़ते हो ---

‘अपंग’में पिरोए ये काव्ययांश व्यक्ति-मन को गोभी की तरह परत दर परत उघाड़ते हैं और असली रूप सामने ले आते हैं | वह रूप भले हमारे परिवेश में या स्वयं में क्यों न छिपा हो | लेकिन प्रामाणिक बात यह है कि लेखिका की आत्मा के भीगे हुए कागज़ पर जो बेरंगी स्याही से कुछ नाम उभर आए हैं, वे इस रचनात्मक फलक पर स्वमेव तैर आते हैं | ऐसा इसलिए होता है कि उसकी निर्मिति लेखिका के ही यादों के धुंधलके को चीरकर हुई है | विश्वास है यह उपन्यास मानसिक अपंगता की दुखती नब्ज़ की चारागरी कर पाएगा | 

डॉ. द्वारिकप्रसाद साँचीहर

अपनी बात !

अपंगता केवल शारीरिक ही नहीं होती वरन कभी-कभी शारीरिक अपंगता के बजाय मानसिक अपंगता इतनी दुष्कर हो जाती है जो मनुष्य के संपूर्ण जीवन को अपंग कर डालती है | यह मानसिक अपंगता मनुष्य की अपनी सोच से ही उत्पन्न होने वाली वह ‘दुर्घटना’ होती है जी जीवन भर उससे एक ‘बैसाखी’ की तलाश करवाती है | 

बैसाखी की तलाश में लटकते हमारे पात्र हमारे इर्द-गिर्द ही घूमते रहते हैं और कभी-कभी अपनी दयनीय कथा हंसे स्वयं ही कह जाते हैं | इस लघु उपन्यास की कथा इसी प्रकार के पात्रों की ‘बात’ है जो समाज के ‘अपंग’ वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है | 

मेरा पाठक-वर्ग मेरी बात से सहमत हो या न हो यह उस पर निर्भर करता है परंतु यह वास्तविकता है कि ‘अपंग’ पात्रों से हमारा समाज भरा पड़ा है | पात्र स्वयं को खोजने में असफ़ल नज़र आते हैं | 

 

अपंग

1

‘ॐ जय जगदीश हरे’ गा-गाकर रुक्मणि का गला बैठा जा रहा था | चीख़-चीख़कर भगवान को रिझाने की प्रक्रिया में उसका तन-मन मानो बेसुध हो उठा था | पुजारी जी अपनी समाधि में तल्लीन हो उठे थे | आँखें बंद, माथे पर त्रिपुंड, सिर पर लंबी छोटी जो कुत्ते की दुम सी हीली चली जारही थी | रह-रहकर उनका स्वरूप या कहें कि थुल-थुल शरीर शरीर मचल उठता और उनकी सौंदर्य वर्धक चुटिया महारानी उनके घुटे हुए सिर पर ता-ता-थैया कर उठती | 

और शेष श्रद्धालुजनों का तो कहना ही क्या ! कोई एक आँख तो कोई दोनों आँखें मूँदे हुए आरती की धुन पर सिर हिलाने का भरसक प्रयास कर रहा था | भानुमती भी गई थी मंदिर में कुछ श्रद्धा-सुमन लेकर | पर वहाँ पहुँचकर उसे लगा कि संभवत: यहाँ आना उसकी त्रुटि ही रही होगी | जिन लोगों को उसने अपनी आँख-कान से उम्र के लंबे हिस्से में देखा सुना हो उनके लिए फिर से कुछ और देखने-सुनने को शेष ही कहाँ रह जाता है | उम्र के एक लंबे हिस्से की इमेज छोटे-छोटे क्षण भर के दृश्यों से तो नहीं टूट पाती

उसकी अंजुरी के पुष्प थरथराने लगे और मन ही मन दूर से भगवान की मूर्ति को प्रणाम करके वह पीछे लौट चली| मन में कहीं आशंका जन्म ले चुकी थी कि मंदिर के द्वार से लौटकर कहीं उसने पाप तो नहीं किया | आख़िर भारतीय संस्कारों में जन्म लेकर भारतीय संस्कारों में पली युवती और सोच भी क्या सकती है| सिवा इसके कि जो कुछ उसने किया है, वह पाप तो नहीं ? वो भी भगवान के मंदिर में !

वापिस लौटते हुए उसके कदम बहुत ही शिथिल हो गए और मरे हुए कदमों से वह घर के बरामदे में आ पहुँची | लाखी अभी तक बिस्तर समेट रही थी | उसे देखकर तुरंत लपकी;

“दीदी”

उसने कुछ उत्तर नहीं दिया तो वह तुरंत सीढ़ियाँ उतरकर उसके पास चली आई| 

“तबीयत तो ठीक है न ?”

“हाँ”

“फूल भी?”

उसने शिथिल दृष्टि से देखा उसकी अंजुरी वैसी ही मुद्रा में थी और अब तक दो-एक फूल उसमें अटके हुए थे | 

“ले, पीछे तुलसी के पौधे में डाल दे| ”

लाखी ने उसकी अंजुरी से फूल उठा लिए | 

“आप ऊपर जा सकेंगी ?”उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से भानुमती के मुख को ताका | 

“हाँ—आं, मुझे कुछ नहीं हुआ है री --| ”

पर लाखी जानती थी भानुमती को क्या हुआ होगा | वह पहले से ही भयभीत सी थी कि एक दिन ऐसा होगा | लाखी भानुमती के मायके की सेविका थी और बचपन से ही उसने भानुमती को देखा व उसके स्वभाव को पहचाना था| 

छोटी सी ही थी कि भानु दीदी का विवाह हो गया था और वे विदेश चली गईं थीं| लाखी का भी पंद्रह वर्ष की आयु में विवाह कर दिया गया था | जब भी कभी भानुमती का पत्र आता था उसमें हमेशा यही लिखा रहता –

“माँ ! लाखी की माँ से कहो उसे पढ़ाएँ, ब्याह-शादी की बात अभी से न करें | ब्याह कोई बहुत बड़ी बात नहीं, हो ही जाएगा | ”

भानुमती की माँ लाखी की माँ को बुलाकर बार-बार पत्र सुनाती परंतु संस्कारों की विवशता के सामने हम सदा ही झुके हैं, झुकते रहे हैं, झुक रहे हैं | लाखी की माँ अपने पति को न समझा सकी और पंद्रह वर्ष की उम्र में उसे एक पैंतीस वर्ष के पुरुष के गले मढ़ दिया गया था| 

भानुमती ने खूब दुखी होकर विदेश से पत्र लिखा था –

“कब बदलाव आएगा माँ ? कब समझेंगे ये लोग कि क्या कर रहे हैं ?”

भानुमती को लाखी की शादी की बहुत दुख था | पर क्या करती उसका अपनी शादी पर ही क्या ज़ोर चला था जो लाखी की शादी पर चलता ! उसका अपना प्रेम-विवाह उसकी आँखों के सम्मुख ढीठ की तरह अड़ा रहता था |