संसार परिवर्तनशील है, जो वस्तु आज है, कल वह उस अवस्था में नहीं रह सकती। समय बदलता है व समय के साथ साथ मनुष्य की बुद्धि, विचार और उसके कार्यकलाप भी बदल जाते हैं। भारत में एक समय ऐसा भी आया जब ऐश्वर्य, धनधान्य और अनंत महिमा संपन्न भारतवर्ष का भाग्काश विदेशी आक्रांताओं से आच्छादित हो उठा। देश का सौभाग्य -सूर्य प्रभावहीन सा दृष्टिगोचर होने लगा। हम आश्रय हीन, निरालम्ब और असहाय बनकर मूक पशु की भांति, अत्याचार और अन्याय सहन करते रहे। समय ने पलटा खाया ।भारतीयों में चेतना और स्फूर्ति फैली और जनजीवन में जागरण का उद्घोष हुआ। विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध ,आत्म संगठन के विचार जनता के मानस- सागर में हिलोरा लेने लगे। परिस्थितियों से विवश मृतपय भारतीय जाति ने फिर करवट ली और अंगड़ाई ले कर उठ बैठी क्योंकि तब तक भारतीय समाज मानव अधिकार के प्रति जागरूक हो चुका था।
द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका का परिणाम संपूर्ण विश्व भुगत चुका था। भावी युद्धों को रोकने एवं विश्व शांति स्थापित करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। उस समय मानव अधिकारों के हनन का प्रश्न संपूर्ण विश्व के समक्ष था। आधुनिक समाज में सभी को, मानव जीवन के मूल अधिकार देने की बात कही जाती रही है। राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस प्रकार के प्रावधान बनाए गए, जिससे कोई व्यक्ति दूसरे के मानव अधिकारों का हनन न कर सके। अतः संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक और सामाजिक परिषद् ने अपने प्रथम अधिवेशन में फरवरी 1946 में मानव अधिकार आयोग की स्थापना की। तथा महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को सार्वभौमिक मानव अधिकारों की घोषणा का प्रस्ताव स्वीकृत कर ,मानव अधिकारों को महत्व प्रदान किया गया। तभी से 10 दिसंबर, विश्व में"--
मानव -अधिकार -दिवस "--के रूप में मनाया जा रहा है।
स्पष्ट है कि मानव अधिकार शिक्षा भारत के लिए ही नहीं वरन किसी भी देश के लिए अत्यंत आवश्यक है। मनुष्य अपनी उन्नति के लिए सृष्टि के प्रारंभ से ही प्रयत्नशील है ।उसे पूर्ण मानसिक शांति, शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त हुई। शिक्षा के द्वारा उसकी सामाजिक व आर्थिक उन्नति हुई और वह आगे बढ़ने लगा ।वास्तव में बिना शिक्षा के मनुष्य को, ना अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान होता है और नही उसकी आंतरिक वाहय शक्तियों का विकास होता है। भारतीय शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना है और यह तभी संभव है, जब भारतीय शिक्षा में मानवाधिकार शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाए।
शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मनुष्य बनाना, उसमें आत्मनिर्भरता की भावना भावना एवं देशवासियों का चरित्र निर्माण करना है। देश के स्वतंत्र हो जाने पर ,हमें ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता थी, जो देश के लिए आदर्श नागरिक, कुशल कार्यकर्ता एवं भावी सेनानी उत्पन्न कर सकें, जो प्रत्येक व्यक्ति की नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, एवं राजनीतिक शक्तियों के विकास में पूर्ण योगदान दे सके।
नव युवकों की जैसी शिक्षा व्यवस्था होगी, देश का भविष्य भी वैसा ही होगा । प्रत्येक देश का उत्थान उसकी शिक्षा प्रणाली पर निर्भर करता है। अतः भारत में इस समय शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो भारतीयों को उचित नागरिक बनने की शिक्षा दे सके। उचित नागरिक से तात्पर्य है कि व्यक्ति अपने स्वयं के प्रति तथा अपने सहयोगियों के प्रति उत्तरदायित्व को निभा सके। वह ऐसा व्यक्ति हो ,जो अपने अधिकारों और कर्तव्यों के संबंध में जागरूक हो,। उसमें सामाजिक, आर्थिक, तथा राजनीतिक समस्याओं को वास्तविक रुप से एवं व्यवहारिक रूप से समझने की क्षमता हो। जीवन के प्रति सृजनात्मक रूप रखता हो एवं उसने सामाजिकता की भावना का विकास हो गया हो। अतएव भारतीय जनतंत्र को ,राज्य-- शिक्षा इस प्रकार प्रदान करनी चाहिए जिससे एक नागरिक इन सब योग्यताओं से पूर्ण हो जाए। भारत में प्रजातंत्र उसी समय स्थायी हो सकता है ,जब यहां पर दी जाने वाली शिक्षा उचित नागरिकता का विकास करें। अतः भारत में मानव अधिकार शिक्षा की अत्यंत आवश्यकता है। भारत में मानव अधिकार शिक्षा का अभी जितना प्रसार है ,वह पर्याप्त नहीं है, बल्कि इस दिशा में और महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने चाहिए।
मानव अधिकार शिक्षा द्वारा धर्म तथा जाति -निरपेक्षता के संबंध में, विचारों को संगठित किया जा सकता है। देश के विभिन्न राज्यों के नागरिकों के बीच सद्भावना बढ़ाई जा सकती है । भारत में मानव -अधिकार -शिक्षा के कारण ही आज यह स्थिति है कि जनता शासन सत्ता को अपने चुने हुए प्रतिनिधि के हाथ में देना चाहती हैं। जिससे-,मनमानी करने पर वह उसे निकालकर अपना दूसरा प्रतिनिधि चुन सके।
इतनी बड़ी जिम्मेदारी को हाथ में लेना जनता के सामने एक विकट समस्या है। इस समस्या को सुलझाने के लिए आवश्यक है कि वह अपने अधिकारों और कर्तव्यों को भली-भांति समझ पाए। इन बातों को समझ जाने पर ही जनता अपने लाभ की बात समझ सकती है। यह केवल मानवाधिकार शिक्षा द्वारा ही संभव है अतः देश की सरकार चलाने में उनकी समस्याओं को सुलझा ने एवं व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए मानव अधिकार शिक्षा परम आवश्यक है।
भारत देश वर्तमान स्थिति में आर्थिक, राजनीतिक एवं नैतिक पहलुओं में तो शैथिल्य है ही, परंतु असामाजिक तत्वों का बाहुल्य, मानवीय पक्षों का ह्रास, अनियमित रहने की भावना, कर्तव्य पराड़्गमुखता, पाश्चात्य शैलियों का अंधानुकरण आदि ऐसे कुछ विषाक्त सत्य है जिनसे देश में भीतर ही भीतर मानो घुन लग गया हो। देश खोखला होता जा रहा है, तो भारत का भविष्य क्या होगा? कहा नहीं जा सकता। लोग अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, मर रहे हैं, पर ,---"हमारा कुछ कर्तव्य भी है "---इसे लोग सोचना ही नहीं चाहते। ऐसा केवल इसलिए हैं, क्योंकि भारत में मानवाधिकार शिक्षा का जो व्यापक स्वरूप होना चाहिए ,वह नहीं है। यद्यपि भारतीय संविधान की आधारशिला में उदारता, समानता और भ्रातृत्व जैसे आदर्श एवं अनुपम गुण हैं।
भारतीय संविधान जाति तथा धर्म आदि के भेदभाव को दृष्टि में न रखकर समस्त भारतीय नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करता है। संविधान की दृष्टि में न कोई बड़ा है न छोटा, न कोई धनवान है और न कोई धनहीन। तथापि भारत में नागरिकता का विकास जितना होना चाहिए उतना नहीं हो पाया है इसका केवल एक ही कारण है कि मानव अधिकार शिक्षा पर अभी और ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
भारतीय संविधान के द्वारा नागरिकों को कुछ महत्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं । भारतीय संविधान के द्वारा भारतीय नागरिकों को छ: प्रकार के मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं।
(१)--समानता का अधिकार---संविधान एवं कानून की दृष्टि में भारत के सभी नागरिक समान है। राज्य उनमें धर्म, जाति, वंश, लिंग, भाषा एवं जन्म स्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं कर सकता। राज्य प्रत्येक व्यक्ति को योग्यता के आधार पर शिक्षा, नौकरी व्यवस्था ,आजीविका उपार्जन के समान अवसर प्रदान करता है।
(२) स्वतंत्रता का अधिकार------प्रत्येक नागरिक को लिखने, पढ़ने ,भाषण देने, निवास करने, व्यापार- व्यवसाय एवं संपत्ति अर्जित करने की स्वतंत्रता प्राप्त है।
(३)--शोषण के विरुद्ध अधिकार----_--इस अधिकार का उद्देश्य समाज में फैले हुए शोषण को दूर करना है ।
(४) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार------भारत के प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा अनुसार अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता दी गई है।
(५)--संस्कृति एवं शिक्षा का अधिकार------प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपनी भाषा, लिपि, एवं संस्कृति बनाए रखने का अधिकार है।
(६) संवैधानिक उपचारों का अधिकार -----अपने मूल अधिकारों की रक्षा के लिए नागरिकों को न्यायालय में जाने का अधिकार है।
इसके अलावा भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को अन्य कई सामाजिक अधिकार भी प्राप्त है। सामाजिक अधिकारों में सबसे प्रमुख अधिकार मनुष्य को जीवित रहने ,व निश्चिंत होकर जीवन -यापन कर सकने का अधिकार प्राप्त है। इसके अलावा सामुदायिक जीवन का अधिकार, धर्म संबंधी अधिकार एवं काम करने का अधिकार प्राप्त है। भारतीय संविधान अपने प्रत्येक नागरिक को विचार और भाषा की स्वतंत्रता प्रदान करता है। चाहे वह स्त्री हो या पुरुष प्रत्येकभारतीय नागरिक को यह मताधिकार प्राप्त है।
जो देश जितना उन्नत और समृद्ध होता है उसके नागरिकों को उतने ही अधिकार प्राप्त होते हैं। अतः भारत में मानव अधकार शिक्षा को जन आंदोलन का रूप देना चाहिए।
आदर्श नागरिक में कुछ गुणों का होना बहुत आवश्यक है । हमारी भारतीय सभ्यता बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के सिद्धांत पर आधारित है। ---"आत्मवत् सर्व भूतेषु"---आदि वाक्यों पर जनता विश्वास करती है । यह मानव अधिकार शिक्षा के कारण ही संभव हो सका है कि भारत आज पूंजीवादी देश नहीं है। अमीरों द्वारा गरीबों का शोषण नहीं हो रहा है।
जिस वृक्ष का बाल्यावस्था में सम्यक् सिंचन होता है ,वह भविष्य में पल्लवित और पुष्पित होता हुआ एक न एक दिन संसार को सौरभ मय अवश्य बना देता है। आज का विद्यार्थी ही कल का नागरिक है । उन्हें मानव अधिकार से परिचित करा कर, पाठ्यक्रम में नागरिक शास्त्र के अंतर्गत मानव अधिकार का ज्ञान देकर उनको जागरूक व गुणी इंसान बनाया जा सकता है।
मानव अधिकार शिक्षा से ,नागरिकों में जनतंत्रात्मक नागरिकता की भावना का विकास होता है। योग्य, सच्चे एवं ईमानदार नागरिकों के ऊपर ही प्रजातंत्र का भविष्य निर्भर करता है। मानव का बहुमुखी विकास करना, नेतृत्व की भावना का विकास करना एवं सामाजिकता की भावना का विकास करना,-_--- मानव अधिकार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य हैं । अतः यह हमारे भारतवर्ष के विकास एवं उसकी उन्नति के लिए अत्यधिक आवश्यक है।
डॉक्टर सुबोध अदावल इस विषय में लिखते हैं कि-----
जनतंत्र वादी शिक्षा ,---मानवाधिकार शिक्षा के माध्यम से ,देश के सभी नागरिकों में कुछ ऐसे गुण समान रूप से पैदा करने का प्रयत्न करती है जिससे व्यक्ति जनतंत्र वादी राज्य के नागरिकों के अधिकारों तथा कर्तव्यों का पालन कर सकें वह अपने नैसर्गिक गुणों के विकास के साथ ही साथ सामाजिक दायित्व को भी निभा सकें।
आज का भारतीय समाज बहुत अधिक जटिल हो गया है। यह बहुत सी ऐसी संस्थाओं से मिलकर बना है ,जिनमें कोई विचारों की कठोरता और अपवर्तन शीलता है। देश की एकता व प्रगति में यह सब विद्रोहात्मक प्रवृत्तियां एक रुकावट की दीवार बनकर खड़ी हुई है। ऐसी दशा में शिक्षक के सामने, सबसे महत्वपूर्ण कार्य है कि देश में एकता, भाईचारा ,मैत्री तथा प्रेम की भावना को प्रोत्साहित करें। जनता में रुचियों की एकाग्रता को जन्म और व्यक्तिगत जातिगत संप्रदायगत से ऊपर उठकर राष्ट्र और मानव कल्याण की भावना को प्रोत्साहन दे।
देशकी प्रगति में विद्यार्थियों का महत्वपूर्ण योगदान है अतः विद्यार्थियों को आवश्यक रूप से मानवाधिकार शिक्षा दी जानी चाहिए।
अंत में हम कह सकते हैं कि राज्यों को ,भारत देश की शिक्षा- प्रणाली में हर प्रकार से सहायता करनी चाहिए ,ताकि राज्य के नागरिकों को उत्तम शिक्षा मिल सके और वे सामाजिक दायित्वों का भली-भांति निर्वाह कर योग्य नागरिक बन सकें और सामाजिक कल्याण में पर्याप्त योगदान करें इसके लिए मानव अधिकार शिक्षा का प्रचार प्रसार किया जाना परम आवश्यक है।
इति