woman in the market in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | बाज़ार में स्त्री

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बाज़ार में स्त्री


आज सिर्फ स्त्री ही नहीं पूरी मनुष्य जाति बाजार के केंद्र में है। बाजार में पहले पुरूषों का वर्चस्व था फिर स्त्रियों ने उसमें दखल दिया और पुरूषों को आत्मालोचन,आत्मनिरीक्षण का मौका दिया |एक समय था जब मैदानी इलाकों में स्त्रियों का बाजार जाना भी वर्जित था |बाजार में दुकान लगाना या उस पर बैठना तो दूर की बात थी |इससे पुरूष की तौहीन होती थी |हाँ ,कहीं-कहीं निम्न वर्ग की गरीब स्त्रियाँ हाट-बाज़ारों में साग-भाजी ,मछली आदि बेचती हुई दिखती थीं |चूड़िहारिनें,मनिहारिनें व आदिवासी जाति की स्त्रियाँ स्त्रियों के शृंगार से संबन्धित वस्तुएँ घर-घर घूम कर बेचती थीं | बाद में स्त्रियों की छोटी-मोटी दूकानें भी दिखाई देने लगीं |चाय-पकौड़ी ,खुदरा राशन ,पान आदि की कई दुकानें स्त्रियों की होने लगीं |पर दुकान करने वाली ये स्त्रियाँ ज़्यादातर या तो गरीब विधवाएँ होती थीं या फिर निकम्मे शराबी पति की पत्नियाँ |मेरे कस्बे में ऐसी स्त्रियों को ‘मुदिआइन’ कहा जाता था |इन मुदिआइनों को समाज में बहुत इज्जत से नहीं देखा जाता था क्योंकि उनकी दुकानों पर पुरूषों का आना-जाना भी होता था |वे ज्यादा आजाद मानी जाती थीं क्योंकि वे अपनी जरूरतों के लिए किसी पुरूष की मुहताज नहीं होती थीं | जबकि वे श्रमजीवी स्त्रियाँ होती थीं और कड़ी मेहनत से जीवनोपार्जन करती थीं | आज मैदानी भागों में स्त्रियाँ स्वाधीन होने की इस दिशा में कदम बढ़ा चुकी हैं |दस्तकारी,हस्तकलाऔर पाकशास्त्र के अपने कौशल को हाट-मेलों व प्रदर्शनियों में दिखाने लगी हैं | ये वे औरते हैं जो पहले नौकरी के अभाव या घर के प्रतिबंधों के कारण कुछ कर नहीं पाती थीं |उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में मैदानी इलाकों की तरह वर्जनाएँ नहीं थी वहाँ स्त्रियाँ बाजार चलाती थीं | शिलांग से सिक्किम तक ,बागडोगरा से दार्जिलिंग तक स्त्रियाँ ढाबे-होटल चलाती ,रेडीमेट कपड़े बेचती दिख जाती थीं |आज भी उनके हाट और मेले में स्त्रियों का बर्चस्व होता है |जिसके कारण वे अपने लिए मजबूत आर्थिक आधार जुटा लेती हैं |यही कारण है कि वे अधिक स्वतंत्र दिखाई देती हैं |उनके काम को रोकने वाला वहाँ कोई नहीं होता |वे स्त्रियाँ घर के भीतर बैठकर खाने वाली स्त्रियों को चुनौती देती हैं | इंफाल के ‘इमा मार्केट’ भारत का अकेला ऐसा बाजार है जहां महिलाओं का वर्चस्व कायम है| यह एक ऐतिहासिक बाजार है और यहां की हर दुकान में महिला व्यापारी देखी जा सकती हैं| इस बाजार में मर्दों को काम नहीं करने दिया जाता है|इमा बाजार का अर्थ है 'मां का बाजार' और इसे ‘नुपी कीथल’ के नाम से भी जाना जाता है| इस बाजार में तकरीबन 4000 महिला व्यापारी काम करती हैं|यहां सब्जी-फल से लेकर हर घरेलू सामान मिलता है|
मुगल काल में अकबर के प्रयासों से आगरे के किले के सामने मैदान में मीना बाजार लगना प्रारंभ हुआ। शुक्रवार को पुरुष वर्ग पांच बार की नमाज में व्यस्त रहता था। इस दिन किले में और किले के आसपास पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। सारे मैदान में महिलाएं दुकान सजाकर बैठती थीं और महिलाएं ही ग्राहक बनकर आ सकती थीं।अकबर का आदेश था कि प्रत्येक दरबारी अपनी महिलाओं को दुकान लगाने के लिए भेजे। नगर के प्रत्येक दुकानदार को भी हुक्म था कि उनके परिवार की महिलाएं उनकी वस्तुओं की दुकान लगाएं। इस आदेश में चूक क्षम्य नहीं थीं। किसी सेठ और दरबारी की मीना बाजार में दुकान का न लगाना अकबर का कोपभाजन बनना था।धीरे-धीरे मीना बाजार जमने लगा। निर्भय बेपरदा महिलाएं खरीद-फरोख्त को घूमती थीं |मीना बाजार चलता रहा।
यहाँ एक बात समझना जरूरी है कि ये स्त्रियों के निजी हाट-बाजार थे जो किसी विश्व बाजार की मुहताज नही थे | आज विश्व बाजार का बोलबाला है और विश्व बाजार की अपनी संस्कृति है जिससे सबसे अधिक हानि स्त्री को ही है। यूँ तो विकसित संस्कृति इसे स्त्री स्वत्रंता का नाम दे रही है पर अप्रत्यक्ष रूप से वह अपने शोषण के तंत्र को ही और अधिक मजबूत कर रही है ।स्त्री को इसी षड्यंत्र को समझना है |विश्व बाजार तमाशा रचता है, और इस तमाशे का मोहरा स्त्री होती है| साथ ही वह इस तरह का भ्रम भी पैदा करता है ,जिससे यह धारणा बने कि यह सब कुछ लोकहित में ही घटित हो रहा है| इस क्रम में फिल्म, विज्ञापनों, आइटम गीतों, खेल के नाम पर होने वाले आईपीएल जैसे आयोजनों, तथा दूसरे अन्य आयोजनों के नाम पर बाजार के नाम पर स्त्री की एक नई छवि स्थापित करने की कोशिश की जाती है|खेल के बाजारीकरण के भारतीय संस्करण ‘इण्डियन प्रीमीयर लीग’ (आईपीएल) को एक उदाहरण के तौर पर लेते है - आईपीएल का आयोजन खेल को उपभोक्ताओं के सामने परोसने का रहता है जिसमें मनोरंजन की पर्याप्त उपलब्धता हो|यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इस क्रम में बाजार के हक में एक नए तरह की राष्ट्रीयता को रचने का भी प्रयास किया जाता है|
विज्ञापनों में भी महिलाओं के दो रूप प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। एक तो पूर्णतः बाजारवाद जिसमें महिला का उत्तेजक व अश्लील रूप देखने को मिलता है और दूसरा पूर्णतः पारम्परिक, सामंती मूल्यों को जारी रखने के रूप में |जिसमें घर और पितृसत्तात्मक संस्कृति को बनाये रखने का भाव पूर्णरूप से दिखाई देता है,जितने भी घरेलू उत्पादों के विज्ञापन हैं उनमें महिलाओं का वही पारंपरिक सांस्कृतिक रूप दिखाया जाता है। ऐसे घरेलू उत्पादों के विज्ञापनों की पूरी थीम ही श्रम विभाजन को स्पष्ट समझाती है । उदारीकरण और वैश्वीकरण के चलते बाजार ने इस व्यवस्था के पितृसत्ताई -सामंती मूल्यों को कायम रखने का पूरा प्रयास किया है तो दूसरी तरफ यह भी समझना होगा कि पूंजीवाद ने अपने फायदे के लिए स्त्री को, स्त्री स्वतन्त्रता की एक झूठी चयनशीलता दी है ।वास्तव में यह एक प्रकार का भयावह मतिभ्रम है जहाँ महिला की वास्तविक मुक्ति नगण्य है क्योंकि स्त्री-मुक्ति के रास्ते को भूमंडलीकरण ने बेहद भ्रामक मोड़ दिया है ।
बिखरे हुए बालों में लुटी पिटी सी स्त्री , बेहद कम कपड़ो में शेविंग क्रीम या कंडोम बेचती स्त्री ,सजी संवरी ,रिश्तों की पूजा करती गृहणी मिडिया में स्त्रियों के कुछ स्थापित मानक है एक तरफ साँस्कृतिक एकाधिकार से बिंदी और बुरके में घुटती स्त्री तो दूसरी तरफ प्रचार में खुद को आइटम(उत्पाद) कहलाने की भावना में क्लबों और डिस्को में थिरकती स्वतंत्रता पाती स्त्री , स्त्री मुक्ति कामना पर इन दोनों व्यवस्थाओं ने स्त्री को धोखे में रखा है l संस्कृतिक सामंतवाद की घुटन से आजाद होने की भावना, स्त्री को बाजारीकरण की तरफ धकेल रही है जो उसकी स्वतंत्रता व मुक्ति कामना का प्रयोग उसको उत्पाद बनाने के लिए करती है l स्त्री पुरूषों की नज़रों से खुद को तौला करती है l एक ओर पुरुष शरीर को बलिष्ठ मांसल बना कर खुद को अधिकाधिक काम उपभोग के लिए तैयार करता हैं तो वहीँ नारी चेहरे पर लीपापोती करती है ,दुबली होती है , गोरी होने के प्रयास में रहती है, कुल मिला कर स्त्री वह सब करती है जो वह नहीं है बल्कि पुरुष उसे बनाना चाहता है , असल में स्त्री जितनी दयनीय, कमजोर और पुरुष द्वारा स्थापित चरित्र और सौन्दर्य की परिभाषाओं को स्वीकारेगी उसके प्रति उतने ही यौन अत्याचार बढ़ते जाएँगे |निश्चित ही जबरन यौन संसर्ग एक अमानुषिक कुकृत्य है लेकिन इसको स्त्री की अस्मिता से जोड़ देने पर स्त्री स्वयं का ही नुकसान करती है,एक तो वह पितृसत्तात्मक समाज को यह सन्देश देती है कि यह मेरी दुखती रग है इस पर वार करो और तुम विजयी बनो|दूसरा स्त्री मानस में संसर्ग को अस्मिता से जोड़ने से उपजा यह डर पुरुष को शक्तिशाली शिकारी होने का एहसास करता और चारदिवारी में परतंत्र रखने का प्रासंगिक ब्लैकमेलिंग विकल्प भी उपलब्ध करा देता है lबाजार ने स्त्री की मुक्ति कामना को ख़ुद के फायदे के लिए भुना लिया है ,जहाँ वह अंतिम छोर पर होती हुई भी व्यवस्था के बीचो-बीच उत्पाद हो जाने को खड़ी है l
लिंगाधारित व्यवस्था में खड़ी विभिन्न संस्थाओं और उसके घटकों ने स्त्री अधीनस्थता का पूरा लाभ उठाते हुए वैश्वीकरण के दौर में महिलाओं के श्रम और देह को अपने मुनाफे में बदल दिया है । विज्ञापनों और फिल्मों में इसकी बड़ी भूमिका है। विज्ञापनों में महिला का जैसा प्रस्तुतीकरण हो रहा है उस पर गंभीर प्रश्न खड़ा होता है कि आखिर उत्पाद क्या है और किसको बेचा जा रहा है ? महिला के इतने विकृत चित्रण को उत्पाद बिक्री का जरिया बनाने में कौन से कारण और मानसिकता कार्यरत है । अयोग्य सामानों को बेचने में महिला की देह का नियोजित ढंग से प्रयोग किया है । पुरुष उत्पादों के विज्ञापनों में महिला माडल को इतने निर्लज्ज तरीके से दिखाते हैं , जो ब्रांडेड परफ्यूम या अंडरवियर के कारण पुरुष का चेहरा चुंबन से भर देती है , संभोग तक कर लेती है। ऐसे विज्ञापन सिखाते हैं कि सुंदर महिला उसी पुरुष को चाहेगी जिसके पास कीमती ब्रांडेड उपभोक्ता वस्तुएँ हैं । वास्तव में इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने औरत को उपभोक्तावाद के घेरे में जकड़ लिया है ।

दरअसल इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि बड़ी-बड़ी विज्ञापन एंजेसिया इसी मानसिकता के वशीभूत होकर विज्ञापन बनाने मे लगी हुई है। तमाम कंपनियाँ सौन्दर्य के नए मानक परोस रही हैं इसी सौन्दर्य जिज्ञासा यानि ‘ब्युटि मिथ’ को जगाकर वे इनकी जेबों से पैसा निकालने में भी सफल हैं । साँवले रंग को गोरा कैसे बनाया जाए ,इसके लिए दर्जनों ब्रांड के उत्पाद बाजार में मौजूद हैं |ऐसे उत्पादों की कंपनियों में विज्ञपनों के द्वारा कड़ी प्रतियोगिता देखने को मिलती है जो बड़े से बड़े दावे के साथ किसी भी साँवली स्त्री को गोरा बनाकर उसके जीवन को ऊंचाई देते नजर आते हैं ।गोरा बनते ही लड़की में आत्मविश्वास आता है,अच्छी जॉब मिलती है , कल तक शादी के लिए लड़का राजी नहीं था गोरा बनते ही अब वह उस लड़के को शादी के लिए इंकार करती है , क्योंकि अब हर रूप में वह पूरी तरह से सक्षम है । इस संदर्भ में नाओमि वुल्फ़ अपनी किताब ‘ब्यूटी मिथ’ में लिखती हैं –“सौन्दर्य मिथ ने महिला की स्वतंत्रता को मोड़कर उसके चेहरे और देह में बदल दिया । जब महिला को अधूरा बताया जाता है तो ब्यूटी मिथ शुरू होता है । कॉस्मेटिक्स आते हैं ,कपड़े-लत्ते , फैशन उसकी पहचान के नाम पर आते हैं । सौन्दर्य मिथ ने महिला को झूठी चयनशीलता दी है ”सौन्दर्य पात्रता को प्रतिष्ठित करने वाले विज्ञापनों की भरमार से स्त्री -स्थिति के समाजशास्त्र को बहुकोणीय रूप में देखने की अनिवार्यता को किसी भी तौर पर अनदेखा नहीं किया जा सकता । इस प्रकार के अनेक विज्ञापनों में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक इन सभी दृष्टिकोणों के समावेश के बिना किसी भी तरह जड़ तक नहीं पहुंचा जा सकता । आज मुक्त बाजार और पाशविक उपभोक्तावाद ने लोगों की घेराबंदी की है जिससे बच पाना एक चुनौती से कम नहीं है। ठीक यही मानसिकता विज्ञापनों में महिलाओं की भूमिका भी तय करती है । यह लिंग - भेद पर आधारित इस पितृसत्तात्मक विचारधारा की देन है जो आज की अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखते हुए सम्पूर्ण व्यवस्था से बहुत ही नजदीक से जुड़ाव रखती है

घरेलू रोजमर्रा की चीजें जैसे-डिटरर्जेण्ट पाउडर, मिर्च, हल्दी (मसालों) बर्तन धोने के उत्पादों आदि के विज्ञापनों में पुरूषो की उपस्थिति दर्ज होने पर उनका पुरूषाई वर्चस्व कायम रखा जाता है। ठीक यही प्रक्रिया अन्य घरेलू उत्पादों के विज्ञापनों में भी दिखाई पड़ती है जैसे मसालों के विज्ञापनों को ही लें तो ऐसे विज्ञापनों में मसालों की गुणवत्ता स्वाद के तौर पर बताने के लिये स्त्री को खाना बनाते हुए दिखाया जाता है और पुरुष इन विज्ञापनों में खाते हुए,खाने की तारीफ करते हुए दिखाया जाता है |
महिलाओं के संदर्भ में विज्ञापनों पर विचार करें तो मूल रूप से बाजार की उन्मुखता का जिक्र पूरी तरह से जरूरी है।1990 के दशक में उदारीकरण के प्रभाव सामने आये वैसे कार्यक्रम तो 1980 के दशक से ही प्रारंभ हो चुके थे। उदारीकरण और वैश्वीकरण के आने पर बाजारवाद को हावी होने का भरपूर मौका मिला जिसके चलते इस देश की अर्द्धसामन्ती व्यवस्था के पारम्परिक सामंती मूल्यों को भुनाकर उन्हें मुनाफे का यंत्र बना दिया गया। इसलिए आज बीस अरब का कॉस्मेटिक्स उद्योग है ,तीन सौ अरब का कॉस्मेटिक्स सर्जरी उद्योग है, और सात अरब का पॉर्न उद्योग है । यह उद्योग उस भ्रामकता पर टिके हैं जो विज्ञापनों या कहा जाए मास-मीडिया के द्वारा प्रेषित की जा रही है । जिसे ‘अनावश्यक मांग’ पैदा करना कहा जाता है ।पुरूषो के उत्पादों के विज्ञापनों में महिलाओं की कामोत्तेजक प्रस्तुति इसी का भयानक अंग है। बाजारीकरण की विचारधारा ने पुंसवादी समाज की इसी नस को पकड़कर अपने बाजार की मजबूती को बरकरार रखने में अपार सफलता अर्जित की है। पर्दे की दुनिया में महिलाओं को उनके बौद्धिक स्तर पर नही वरन् दैहिक स्तर पर पेश किया जाता हैं क्योंकि महिलाओं को एक वस्तु के रूप में, देह के रूप में मानने सामन्ती मूल्य आज भी समाज में जड़ कियें हुए है। इस प्रक्रिया में तो सबसे अधिक विज्ञापनों ने स्त्री की देह को विज्ञापन बना डाला है। इन सभी विज्ञापनों का लक्ष्य मुख्य रूप से मध्यम वर्ग ही है। विज्ञापनों में दिखायी जाने वाली ब्रांडेड वस्तुएं निम्न वर्ग की पहुच से बाहर है। उदाहरण के तौर पर एक रिक्शा चालक या मजदूर किसी भी ब्रांडेड बनियान की जगह किसी छोटी -मोटी दुकान से कोई सस्ती और किफायती बनियान ही खरीदेगा यह भी हो सकता है कि वह बनियान ही न पहने केवल कमीज से ही काम चलाये। कहने का तात्पर्य यही है कि इस देश में आज के दौर में भी मजदूर वर्ग या निम्न वर्ग के सामने रोजी-रोटी का सवाल बहुत बडा हैं।
देश की 80 प्रतिशत आबादी के सामने जो चुनौतियां है वे बुनियादी जरूरतों की है। ऐसे में उनके ब्रांडेड अण्डरवियर या अन्य उत्पादों जो अच्छी-खासी ब्रांड के या नामी-गिरामी ब्रांड के है उन्हें इस्तेमाल में लाने का तो सवाल ही पैदा नही होता। इन हालातो में यह साफ है कि देश का उच्चवर्ग और मुख्य रूप से मध्यम वर्ग ही इन विज्ञापनों का लक्ष्य हैं। तमाम विज्ञापन एजेंसियां इन्ही वर्गों को लुभाने की बेजोड़ कवायद में लगी हैं। यह समझना जरूरी है कि महिला वर्ग इससे पूरा जुड़ाव रखता है ।सवाल खड़ा होता है कि भूमंडलीकरण ने जिन महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया है वे करोड़ों महिलाओं में कितनी संख्या में हैं ?मास –मीडिया ने किसान और मजदूर या श्रमिकवर्ग की महिलाओं के जीवन से जुड़ी वास्तविक समस्याओं को प्रचारित करने का काम कभी नहीं किया ।
महिलाओं के प्रति पूरे विश्व का रवैया पितृसत्तात्मक ही है,मीडिया भी इन्ही पितृसत्तात्मक मूल्यों का पोषण करता है फिर चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया हो सब जगह पितृसत्तामकता और उसमें लिप्त बाजारू मूल्यों को ही परोसना मीडिया का असली चरित्र है । ऐसे में विज्ञापनों में महिला विरोधी मूल्य ही दिखायी देंगे लगभग हर विज्ञापन मुनाफा कमाने की प्रक्रिया की अटूट कड़ी से ग्रसित है।इस तरह के विज्ञापनों पर (जो पुरूषो उत्पादों के हैं), नजर डालें तो देश और दुनियाभर में महिलाओं के विरूद्ध खड़े पितृसत्ता, शासक वर्ग और बाजार के नजरिये का पता लगाना बहुत ही आसान बात है। बाइक के विज्ञापन तथा ऐसे तमाम विज्ञापनों को जो इस समय टी.वी. पर प्रसारित किये जा रहे हैं।इनका आशय केवल इतना है कि महिला सिर्फ आनंद, आराम और संतुष्टि देने की वस्तु मात्र है।पुरूषवादी सोच महिलाओं को सिर्फ इसी रूप में देखती है। इसलिए बाजार भी महिलाओं को अपने मुनाफे के लिए इसी रूप में दिखाता है और इससे अधिक दिखाकर प्रचारित करने से वह अनावश्यक माँग भी पैदा करता है ।
यह तो मानना ही होगा बाजार की अपनी अर्थशास्त्रीय सोच एवं रणनीति होती है। बाजार केवल वर्तमान एवं मुनाफे में जीता है। वे दिन गए जब जनता या उपभोक्ता की मांग के अनुसार उत्पादन किया जाता था। आज यह सिद्धांत बदल गया है। आज बाजार नारी देह को भी अपना प्रोडक्ट यानी एक तो नग्नता और दूसरा उसका उत्पाद, देकर भ्रम में डालकर लुभाना चाहता है। अपने माल की बिक्री के लिए वस्त्रहीन नारी देह को प्रदर्शन या विज्ञापन द्वारा वह "कैश" करने में जुटा है। बाजार बड़ा निर्मोही और निर्दय भी होता है। आज के बाजार के माल की उम्र भी बहुत ज्यादा नहीं होती। बाजार को नये-नये खूबसूरत एवं "सेलिब्रिटी" चेहरे चाहिए।
आज बाजार ही आयोजकों, उत्पादकों, विक्रेताओं एवं खरीददारों को उकसा रहा है। सवाल यह है कि बाजार चाहता है कि उसका खरीददार यानी उपभोक्ता विवेकशून्य हो जाए और आंख मूंदकर उसका माल खरीद ले।बाजार को आज पूरे समाज या शालीनता की चिंता नहीं है। आज का बाजार तो सम्पन्न वर्ग, खासकर नवधनाढ्य एवं उनके मौजमस्ती, खुली जिंदगी में मनमर्जी की छूट में खोए समृद्ध खरीददारों की भीड़ जुटाने में लगा है, जिसके लिए अश्लील विज्ञापन, प्रचार, मंचों पर नग्न नृत्य आकर्षण का काम करते हैं। यह प्रदर्शन आम जनता की मांग नहीं होती, जो रोजमर्रा की जिंदगी में उलझी है। बाजार तो इसे कला की मांग और नारी की देह मुक्ति जैसे तर्कों से जोड़ने की कोशिश करता है। कला और "पापुलर कल्चर" के नाम पर ऐसे ग्राहकों की भीड़ जुटाना उसका उद्देश्य होता है, जिस ग्राहक को माल की कीमत की चिंता नहीं होती। वह तो प्रदर्शन और फैशन का ऐसे प्रदर्शनों एवं विज्ञापनों से दीवाना हो जाता है। आज के बाजार को ऐसे ही उपभोक्ता चाहिए। आज बाजारवाद प्रचार, प्रदर्शन, विज्ञापन, नग्नता के हथकंडों से हमें निर्देशित करना चाहता है-हम क्या खाएं? क्या पीएं? क्या पहनें, कैसा पहनें?
आज स्त्री विमर्श को सबसे बड़ा खतरा बाजार से है |बाजार स्त्री को उसके सौंदर्य की महत्ता याद दिलाकर अनायास की जगह सायास बाजार में उतार रहा है| स्त्री विमर्श तभी सार्थक होगा ,जब स्त्री बाजार के खिलाफ खड़ी हो|