KISMAT in Hindi Love Stories by kirti chaturvedi books and stories PDF | किस्मत

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किस्मत


सुहानी घर से निकली तो बाहर बदली सी छा रही थी। मौसम सुहाना लग रहा था। शीतल बयार के बीच दिल चाह रहा था कि आज ऑफिस न जाये और इस रूमानी मौसम का लुत्फ उठाया जाए। मगर अपनी मीटिंग और टेबिल पर रखी जरूरी फाइलों का ख्याल आया तो मन मसोस कर कार ऑफिस के रास्ते में मोड़ दी। ऑफिस आकर काम में व्यस्त हो गई। अचानक चपरासी ने एक पर्ची लाकर दी। जिस पर संदल तिवारी नाम लिखा था। नाम देखकर वह चौंक गई और चपरासी से आगंतुक को अंदर भेजने के लिए कहा। मे आई कम इन मैडम की आवाज के साथ सुहानी ने फाइल के बीच चेहरा उठाकर देखा तो सामने संदल खड़ा था। वही संदल जिसकी एक आवाज पर कभी वह पुलक उठती थी और उसके दिल के तार झनझना जाते थे। उसने चेहरे को सामान्य रखते हुए संदल को बैठने का इशारा किया। संदल के बैठने के बाद वह बोली कि बताए क्या काम है। वह बोला कि बस मैडम दरवाजे पर लगी नेमप्लेट में आपका नाम देखकर चौंका और मुझे लगा कि ये आप नहीं हो सकती। कोई आपकी हमनाम हो सकती है। इसलिए उत्सुकतावश चला आया और देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई कि ये तो आप ही हैं। सुहानी सहज भाव से बोली कि मेरी मीटिंग का टाईम हो रहा है। बेहतर होगा कि आप अपने आने का प्रयोजन बता दे ताकि दोनों का वक्त खराब न हो। अब संदल ने बताया कि बहुत दिनों से उसकी फाइल इसी कार्यलय में अटकी हुई है। उसी को निकलवाने के लिए वह चक्कर लगा रहा है मगर काम नहीं हो पा रहा। सुहानी ने अपने पीए को बुलाकर कहा कि साहब से डिटेल्स नोट कर चैक करवा लीजिए कि फाइल कहां रूकी हुई है। तभी सुहानी के लिए मीटिंग का बुलावा आ गया। सुहानी मीटिंग में जाने के लिए उठकर खड़ी हो गई। कहां वो कालेज में साथ पढ़ने वाली कमसिन उम्र की सुहानी और आज आत्मविश्वास से भरपूर आकर्षक सुहानी को देखकर संदल आश्चर्यचकित रह गया था।
उस दिन सुहानी का भी मन काम में नहीं लग सका। उसे रह रहकर पुराने दिनों की यादें अपनी ओर खींच रही थीं। दिन भर के काम के बाद सुहानी घर लौटी। पति ऑफिस के काम से बाहर गए हुए थे और घर पर कोई नहीं था। चाय का कप लेकर वह लॉन में लगे झूले में आकर बैठ गई। अब वह यादों के समंदर में गोते लगा रही थी। संदल से उसकी पहली मुलाकात तब हुई थी जब वह कॉलेज में पढ़ रही थी और अन्य युवतियों की तरह सुनहरे भविष्य के सपने बुनने में मग्न थी। उस दिन कॉलेज से लौटकर संदल से मिलकर सुहानी का मन बहुत खुश था। ऐसा लग रहा था कि जैसे कि उसके पर उग गए हो और वो आसमान में उड़ान भरने को तैयार हो। घर में रेडियो पर गाना बज रहा था- सोलह बरस की बाली उमर को सलाम। दरअसल जिस कॉलेज की वह स्टूडेंट थी, वहीं उसके सीनियर छात्र संदल को वह पहले से ही पसंद करती थी। वह बिना संदल की मर्जी जाने हुए अपना दिल उसे दे बैठी थी। उनके बीच बस परिचय नहीं हुआ था। एकतरफा चाहत का मामला था। उसे किसी सुयोग्य अवसर की तलाश थी और एक दिन वह अवसर भी आ गया। कॉलेज का स्थापना दिवस मनाए जाने के लिए नोटिस बोर्ड पर नोटिस लगा दिया गया था। उनकी मैडम पुनीता माथुर ने कॉलेज के कार्यक्रम के लिए कुछ स्टूडेंटस को ऑडिटोरियम बुलाया था। दो- तीन मैडम और वहां पहले से मौजूद थी। उन्होंने रोमियो और जूलियेट की स्क्रिप्ट दी और सबके ऑडीशन लिए। ऑडीशन के बाद उन्होंने खूबसूरत सुहानी को जूलियेट और आकर्षक संदल को रोमियो के रोल के लिए फाइनल किया।
बस अब क्या था रोज क्लास की हाजिरी के बाद लंच के बाद तक रिहर्सल का दौर शुरू हो गया। रिहर्सल करते हुए जब वह जूलियेट के डॉयलाग बोलती तो सब उसे मंत्रमुग्ध होकर देखते रह जाते। उधर रोमियो बने संदल को सुहानी से जैसे मतलब ही न था। वह इससे बेखबर अपनी क्लास और नाटक की रिहर्सल के बाद गायब हो जाता था। इधर सुहानी सही में दिल हार बैठी थी। खैर कार्यक्रम का दिन भी आ पहुंचा। चीफ गेस्ट नगर के शिक्षा मंत्री थे। औपचारिक स्वागत-वंदन के बाद कार्यक्रम सरस्वती वंदना से प्रारंभ हुआ। गीत, गज़ल डांस और मोनोप्ले के बाद जब नाटक के मंचन की बारी आई तो सभी किरदारों ने ऑडियंस का दिल जीत लिया। खासतौर पर रोमियो और जूलियेट को नाटक के बाद बेहतरीन किरदार निभाने के लिए दोबारा स्टेज पर बुलाया गया। हॉल देर तक तालियों की गूंज से बजता रहा। इतना ही नहीं दोनों को प्रथम पुरस्कार की ट्रॉफी से भी सम्मानित किया गया।
अगले दिन कॉलेज की कैंटीन में सुहानी अपनी दोस्तों के साथ मौजूद थी। तभी वहां संदल भी आ गया। सब लोग चीअरअप करने लगे। नाटक के दौरान संदल के दिल में भी हलचल हुई और वह सुहानी को नोट्स देने के बहाने तो कभी किसी ओर बात के लिए मिलने आने लगा। उन दिनों बंसत के मौसम की बहार थी। इधर दिल में उमंगे हिलोर मार रही थी। दोनों की दोस्ती गहराने लगी। कभी सिनेमा हॉल में पिक्चर तो कभी लंच के कार्यक्रम बनने लगे। कुछ समय बाद ही कॉलेज में एक्जाम का समय आ गया। प्रिपेशन लीव लग चुकी थी। दोनों के एग्जाम भी हो गए। सुहानी सैकंड इयर में आई और संदल को अब पीजी फाइनल के बाद कॉलेज छोड़ना था। दोनों उदास थे। मगर कॉलेज दोबारा खुलने पर मिलने के वादे के साथ दोनों ने विदा ली।
उस समय आज की तरह मोबाइल फोन का चलन नहीं था। न ही सबके घर में लैंडलाइन फोन हुआ करते थे। सुहानी ने बहुत बैचेनी के साथ यह वक्त गुजारा। कॉलेज दोबारा खुल चुके थे। मगर संदल का कहीं अता-पता ही नहीं था। वह एक बार भी सुहानी से मिलने नहीं आया। न जाने क्यूं सुहानी का दिल किसी अनजानी आशंका से धड़क रहा था। अचानक ही संदल के दोस्त से पता चला कि संदल की शादी पक्की हो गई। अब तो सुहानी का रो रोकर बुरा हाल था। संदल का पता नहीं चल पा रहा था कि वो कहां है। चंद मुलाकातों में ही सुहानी के दिल में संदल के लिए जगह बन चुकी थी। दोनों ने सुनहरे भविष्य के लिए ख्वाब भी बुन लिए थे। अचानक एक दिन संदल अपने दोस्त के साथ आकर सुहानी से मिला और अपनी रोनी सूरत दिखाई। पता चला कि संदल अपने घर चला गया था। वहां उसके पिता ने अपने जिगरी दोस्त की बेटी से उसका रिश्ता तय कर दिया था। दो माह बाद ही विवाह होना था। संदल ने अपने घरवालों को मनाने की बहुत कोशिश की मगर वो लोग नहीं माने। उन लोगों को एक तो गांव की सीधी सादी लड़की मिल रही थी। दूसरा तिलक में ही वह उन्हें चालीस हजार रूपए दे रहे थे। उस जमाने में चालीस हजार बहुत मायने रखते थे। खैर वक्त और हालात की आंधियों में प्यार में जुदाई की बेला आ चुकी थी। संदल का विवाह हो गया और सुहानी भी पढाई के बाद अपने घरवालों की मर्जी से विवाह कर ससुराल चली गई।
विवाह के बाद सुहानी अपने ससुराल में प्रसन्न थी। वहां सभी आत्मनिर्भर थे। पति सरल और मितभाषी मिले थे। प्रतियोगी परीक्षा की तैयारियों में देवर और ननदें सभी व्यस्त रहते। एक दिन अचानक सुहानी की सास ने फैसला किया कि पूरा समय घर को देने की जगह सुहानी भी प्रतियोगी परिक्षाओं दे। सुहानी प्रसन्नता से फूली ना समाई। उसने मन लगाकर तैयारी की और परीक्षा दी। लगभग दो साल की मेहनत के बाद उसका चयन केंद्र सरकार में प्रशासनिक राजपत्रित अधिकारी के पद पर हो गया। वह मन लगाकर काम करती रही। इस बीच उसके परिवार में भी एक बेटी का आगमन हो गया था। पुरानी बातें भूलकर वह अपना जीवन गुजार रही थी। आज अचानक ही संदल का सामने आकर मिलना उसे विचलित कर गया था। कुछ देर बात उसने सोचा कि संदल के मिलने के बाद वह बेवजह की चिंता में अपना समय खराब कर रही थी। ठीक है ना बाली उम्र के प्यार को भुलाना मुश्किल होता है। फिर भी उसके दिल में नाराजगी के ही भाव हमेशा बने रहे कि दोस्ती तो मुझसे की मगर निभाई नहीं जा सकी। अब इन बातों सोचने रहने से क्या हासिल होना था। इसके बाद फिर वही ऑफिस और घर के कामकाज में वह संदल को भूल गई।
थोड़े दिन बाद अचानक ही शॉपिंग मॉल में सामान खरीदते हुए उसका सामना संदल से हो गया। सुहानी दूसरी मुलाकात में भी असहज महसूस कर रही थी। औपचारिक हैलो के बाद वह आगे जा रही थी कि संदल ने उसे एक कप कॉफी साथ पीने का अनुरोध किया। पहले तो उसने मना किया पर संदल के बारबार के अनुरोध के बाद वह राजी हुई। वहीं मॉल के कॉफी हाउस में दोनों ने कोने की एक टेबिल तलाश की ओर ऑर्डर देकर बैठ गए। संदल ने उसे बहुत बहुत धन्यवाद दिया कि सुहानी के प्रयास के बाद उसकी फाइल उसे मिल गई और काम भी पूरा हो गया।

कॉफी पीने के दौरान बातचीत के सिलसिले में पता चला कि संदल के एक बेटा और एक बेटी है। उसकी पत्नी भी घर पर ही पेंटिग क्लासेस लेती है। इतने साल गुजर जाने के बाद हुई मुलाकात में दोनों के बीच कोई उत्साह नहीं था। केवल औपचारिकता भर ही बची थी। मगर बातचीत के दौरान संदल ने बताया कि उसने अपने घर में विवाह का विरोध भी किया और घर से भाग निकलने का प्रयास भी किया। मगर कॉर्ड छप चुके थे। अपने माता-पिता की मजबूरी देखकर संदल ने घुटने टेक दिए और विवाह कर लिया। उसने सुहानी से पूछा कि उसके पति क्या करते हैं, और परिवार में कौन साथ रहता है। जब सुहानी ने बताया कि उसके पति का रेडीमेट गारमेंट का स्थापित व्यापार है। तब संदल तपाक से बोला अरे भाई तुम भी तो इतनी अच्छी जगह पर राजपत्रित अधिकारी हो। फिर बहुत संजीदा स्वर में धीरे से बोला कि किस्मत में हमारा साथ नहीं लिखा था सुहानी। नहीं तो एक ही नगर में हम दोनों रह रहे हैं। नौकरी कर रहे हैं। कोई जाति बिरादरी की समस्या भी हमारे आगे नहीं आती। बस किस्मत का लेखा-जोखा हमारे साथ नहीं बदा था नहीं तो आज हम एकसाथ होते। अब तो इनता समय बीत गया और मेरी माताजी और पिताजी भी गुजर गए। तुमसे मिलकर प्रसन्नता हुई कि तुम अपने कर्मपथ की ओर अग्रसर हो। भाग्य भी तो उन्हीं का साथ देता है जो कर्म करते हैं। यह सुनकर सुहानी भी मुस्कुरा दी बोली तुमसे मिलने से पहले मेरे मन में एक बोझ था कि तुम मुझे ठुकरा कर चले गए थे। तब में खूब रोई और तड़पी मैंने महसूस किया कि पैसा बहुत कीमती चीज़ है। मगर आज तुम्हारी आपबीती सुनकर ये लगा कि ये नियति का लिखा हुआ था, जिसे कोई मिटा नहीं सकता। जो भी होता है वह अच्छे के लिए ही होता है। आज हम दोनों ही अपने-अपने घरों में परिवार के बीच प्रसन्न है। इसलिए जो बीत गया सो बात गई। अब हमें चलना चाहिए इतना कहकर सुहानी ने नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड दिए। संदल के दिल का बोझ भी अब जाकर कहीं 30 बरस बाद उतर पाया था। वापसी में अपनी कार ड्राइव करते हुए सुहानी को एफएम रेडियो पर वहीं गीत सुनने को मिला— सोलह बरस की बाली उमर को सलाम। गाना सुनते हुए वह मुस्कुरा दी उसे लगा कि टीनएज वाली उम्र के उस दौर में तो बिल्कुल दीवानों जैसा हाल होता है कि अगर बिछड़ गए तो अब किस तरह से जी पाएंगे। मगर ऐसा होता नहीं है क्योंकि वक्त अगर बहुत बड़ा सबक देता है तो मरहम लगाने का काम भी वही करता है। समय का पहिया किसी के लिए रूकता नहीं है और सब भूलकर आगे बढ़ जाने का नाम ही जीवनधारा है।
कीर्ति चतुर्वेदी