Kalidasam Namami in Hindi Fiction Stories by Dr Mrs Lalit Kishori Sharma books and stories PDF | कालिदासम् नमामि

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कालिदासम् नमामि

शब्दों के दैवी संगीत और लय मैं संजोया ,वह मानव जीवन जो मानो विधाता ने शंख से खोद कर,मुक्ता से सींच कर, मृणाल तंतु से संवार कर, चंद्रमा के कुचूर्क से प्रक्षालित कर, सुधाकर चूर्ण से धोकर, रजत -रज से पोछकर, कुरज कुंद और सिंध वार पुष्पों की धवल कांति से सजा कर जिसका निर्माण किया वह कला और संस्कृति के रस में लीन होते हुए भी, रस सिद्ध कवि कालिदास की रसमयी वाणी के रस सागर में पूर्णतः सरावोर है।

कालिदास के काव्य में, साहित्य और कला का, संस्कति और सदाचार का एकत्र संयोग देखने को मिलता है। देश में जो कुछ समुन्नत था, संस्कृति में जो कुछ शालीन था, वह सारा कवि ने अपनी अनुपम कृतियों में उड़ेल दिया है। कवि के द्वारा राजा दिलीप के प्रति लिखी गई यह उक्ति-----
तम् वेधाविदके नूनम् महाभूत समाधिना
अर्थात् उसे ब्रह्मा ने असाधारण प्राकृतिक उपकरणों से सृजा था,-- स्वयं कालिदास के संबंध में अक्षरशः खरी उतरती है। गिरा की गरिमा, कथा का विन्यास, परंपरा की शालीनता, प्राकृतिक सुषमा का साहचर्य ,उनकी कृतित्व की अपनी विशेषता है। उन्होंने जो कुछ पाया, उसे अपनी लेखनी के स्पर्श से चमका दिया है। अनगढ़ को गढ़ कर संवार दिया है। कवि ने भारती की काया को अनजाने अलंकारों से सजाया और भारतीयों ने उस पर रीझ कर उसका असाधारण रूप से वरण किया है।

वह कौन था? कहां से आया था? और कहां विलीन हो गया? इतिहास चुप है। दिशाएं मूक है। वह कहां जन्मा? और कब जन्मा? इन प्रश्नों के उत्तर कुछ भी हो ,पर गुप्त काल के स्वर्णिम प्रभात के उस कवि ने, मध्य प्रदेश को अपना आवास प्रवास बनाया, इसमें संदेह नहीं है। उनके काव्य ---ऋतुसंहार, मेघदूत ,रघुवंश ,कुमारसंभव और नाटक--- मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीय ,अभिज्ञान शाकुंतलम्, --मध्यपदेश के अंचलों से,
उसके वन प्रांतों से, नगरों से उठते हैं और अपनी शालीनता में प्रकृति के प्राणियों के वैभव को, उनके सुख-दु:ख को समो लेते हैं। विशाला उज्जयिनी के प्रति कवि का विशेष मोह है। वह धिक्कारता है, भाग्यहीन बताता है उन्हें, ----जिन्होंने उस नगरी की ललनाओं की भ्रू- भंगिमाओं के भाव विलास को नहीं जाना, जो उनकी भृकुटी भंग से वंचित रह गए, जिन्होंने उनके नयनों की बंकिम मार को नहीं सहा।

कवि अभिजात भावों का धनी है। उसका विरही यक्ष,विरह से व्याकुल होकर अपनी प्रिया को पुकारता हुआ, उमड़ते आंसुओं को चुपचाप एकांत में पौछता हुआ विलप उठता है

त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागै: शिलायाम्।
आत्मानं ते चरण पतितम् यावदिच्छामि कर्तुम्।
असैतावन्मुहुरूपाचितैदृष्टिरालुप्यते मे।
क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते संगम नौ कृतांत।।


अभागा मैं गेरू से शिला पर तुम्हारे अंगाग को रचता हूं, रुपता हूं, और चाहता हूं कि प्रणय से कुपित तुम्हारे चरणों में अपने को डाल दूं, तुमसे मान भंग की याचना करू, कि जब तक वह बैरी देव, वह क्रूर यम, आड़े आ जाता है। मेरे नेत्र सजल हो जाते हैं, नयन पथरा जाते है, दृष्टि अवरुद्ध हो जाती है। विधाता को चित्र में भी हमारा संगम स्वीकार नहीं है।


अभिनय भारती का अनुपम सर्जक है कवि। मंदिर का उपासक है। उनकी वाणी श्रंगार की परत की परत खोलती जाती है एवं काया के लावण्य को सृजती है। अपराधी की भावना में वही मृदु गिरा, कितनी मार्मिक हो उठती है। प्रणयान्तर का संकट झेलने वाली प्रिया के प्रति व्यक्त किया गया,--- प्रिय का यह मधुर उपालंभ भी कितना हृदयस्पर्शी है---

अनेन कल्याणि मृणाल कोमलम्।
व्रतेंन गात्रम् ग्लपयास्यकारणम्।
प्रसादमाकाड्क्षति यस्तवोत्सुक:।
स किम् त्वया दास जन प्रसादयते।।


इस कोमल गात को, कमल-- कोमल काया को--- हे कल्याणी! पद्म -नाल सी, अरविंद की विसरेखा सी प्रदूषण को भला क्यों व्रत से गला रही हो? भला उसका प्रसाधन कैसा? जो स्वयं तुम्हारा दास है, तुम्हारे सामने करवद्ध खड़ा,-- जो स्वयं तुम्हारा प्रसाद मांगता है।


कवि की वह गिरा जो श्रृंगार से मृदुतम बन जाती है, जो दु:ख में दु:खित हो विलखने लगती है,-- वही गिरा--- क्रोध में कितनी कठोर, अभिव्यक्ति में कितनी तीव्र और कितनी वेगवती हो जाती है-----

क्रोध प्रभो संहर संहरेति,
यावद् गिर: विमरुतां चरन्ति।
तावत्स वह्निर् भव नेत्र जन्मा,
भस्मावशेषं मदनं चकार।।


आकाश में अटे देवताओं की भयभीत वाणी----" हे प्रभु शंकर! रोको रोको। अपने क्रोध को,"---- यह शब्द अभी दिशाओं में गूंज ही रहे थे कि शिव के तीसरे नेत्र से निकलती क्रोधाग्नि की लपटों ने मदन को जलाकर भस्म कर दिया।


ऐसा अनूठा कवि जिसने भारती का एक शब्द भी व्यर्थ नहीं लिखा। प्रत्येक शब्द, ---भाषा भावों के जादूगर के प्रयोग में आकर अपना नया संसार रच देता है -----विधाता की शक्ति से परे का संसार।--" वागर्थविव संपृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये, "----का सफल प्रमाण जितना कालिदास में मिलता है, अन्यत्र नहीं। कवि की लेखनी से निकला हुआ प्रत्येक शब्द, --"-अर्थ का मोती"-- बन गया है। उसने वह लिखा---", जो लिखा नहीं गया था"। जो लिखा गया था--- उसे उसने शालीनतर कर दिया। जो वह,--" वयम् "लिख गया, वह फिर नहीं लिखा जा सका।


ऐसा अनुपम कवि जो अपने द्वारा सृजित लाखों शब्दों की विशाल लेख पट्टिका पर,---" चार अक्षरों के अपने नाम को न जड़ सका"। ---निश्चय ही वह सूत्र कारों की भांति मात्रा बचा लेने वाला कवि, शब्द कृपण था। वरना क्या हम सदियों से उसकी कृतियों में, उसकी लिपियों-- प्रतिलिपियों में, हेरते होते, इस आशा से कि कहीं अनजाने ही वह लिख गया होता और हम पढ़ पाते----" कालिदास।" ्
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