all is not wrong in Hindi Short Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | सब गलत तो नहीं

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सब गलत तो नहीं

मैंने नाश्ता करने के बाद निमंत्रण- पत्र एक बार फ़िर देखा। कार्यक्रम ग्यारह बजे से था। ग्यारह बजे स्वागत, ग्यारह दस पर सरस्वती वंदना,ग्यारह पंद्रह से अतिथि परिचय, ... आदि -आदि।
- चाय और लोगे? पत्नी की आवाज़ आई।- अरे नहीं, अभी- अभी तो नाश्ते के साथ ली है। इस बेरुखे से इंकार ने मानो पत्नी का अंतर खरोंच दिया। कुछ तेज़ आवाज़ में बोली- हां - हां वो तो मुझे भी पता है कि अभी पी है। मैं तो अपने लिए बना रही थी इसलिए पूछ लिया। अभी वहां प्रोग्राम में जाओगे तो झट से दोबारा पी लोगे। बस मेरा पूछना ही गुनाह हो गया।
- अरे बाबा, जब तुम्हें मालूम ही है कि वहां दोबारा पीनी पड़ेगी तो फ़िर ये तीसरा अटेम्प्ट करने की ज़रूरत ही क्या है?
- हां मैं ही सिरफिरी हूं जो तुम्हें चाय के लिए बार - बार पूछ कर खंजर भौंक रही हूं। वहां तो सब तुम्हारे चहेते पलक - पांवड़े बिछाए बैठे हैं तुम्हें चाय पिलाने को... तो पियोगे ही!
- अच्छा बाबा माफ़ कर दो, बना लो आधा कप और। लो मैं तो जा ही रहा हूं अब तुम्हारी सब उलझन दूर हुई। बुला लूं टैक्सी?
- ग्यारह बजे से प्रोग्राम है, अभी सवा दस भी नहीं बजे, क्यों उतावले हो रहे हो? ये क्यों नहीं कहते कि घर काट रहा है। पत्नी की आवाज़ आई।
सच में ये उम्र भी बड़ी अजीब होती है, चप्पल पहनकर जाने पर नई पीढ़ी ये समझती है कि आप उनके प्रोग्राम की गरिमा नहीं समझ रहे, जूते पहनने से पैर की नसों में चींटियां सी चलने लगती हैं, जैसे खून रुकने लगा हो धमनियों का। नई कमीज़ पहनी तो कफ के बटन मुश्किल से बंद होंगे। पत्नी से मदद मांगो तो फ़िर भगवान ही मालिक है। कहेगी- कहां बारात के लिए जाना है सज- धज के? ऐसे तो तब भी तैयार नहीं हुए थे जब मेरे घर की देहरी पर आए थे तोरण मारने!
- अरे बाबा, तू रहने दे, मैं अपने आप लगा लूंगा बटन।
बीस मिनट का रास्ता भी है। वहां पहुंच कर भी कौन से कैब से जंप मार कर मंच पर पहुंच जाना है। दो- चार मिनट तो लगेंगे ही उतर कर भीतर समारोह स्थल पर जाने में।
बाहर निकलते- निकलते भी पीछे से पत्नी द्वारा हड़काया जाता है - ये रुमाल यहीं पड़ा छोड़ जाने के लिए निकलवाया था क्या, इसे लेकर तो जाओ। हां- हां, अब इसकी ज़रूरत क्यों पड़ेगी, ये तो मेरे ही सामने पसीना पौंछने में काम आता है न? कार आगे बढ़ी तो झिकझिक पीछे छूटी।
अजीब बात है, डॉक्टर को कभी समझ में नहीं आया कि मेरा ब्लडप्रेशर क्यों बढ़ जाता है, वह कम करने की दवा ज़रूर दे देता था।पर मुझे पता चल जाता था कि ये क्यों बढ़ गया होगा। क्योंकि शहर से बाहर जाने पर मैं पत्नी से कहता कि स्टेशन चलें, सात बज गए।पत्नी तमक कर कहती- गाड़ी साढ़े नौ बजे की है, अभी से वहां जाकर क्या प्राणायाम करोगे स्टेशन पर?मैं समझाता- भागवान, पौन घंटे का तो रास्ता ही है, प्लेटफॉर्म पर पहुंचने में भी समय लगेगा। भागते- भागते गाड़ी में चढ़ोगे। फ़िर सामान की ठेला -ठाली करोगे, यात्रियों से उलझते फिरोगे। कभी रिक्शा वाले का छुट्टा नहीं है तो कभी कुली नहीं है। समय से जाकर चैन से बैठ लो। बेचारे खून को भी लड़ना पड़ता इन समय की पाबंदी के दुश्मनों से!
ये सब सोचने में प्रोग्राम की जगह आ भी गई। पता ही नहीं चला। चलो, अभी तो ग्यारह बजने में डेढ़ मिनट बाक़ी है। एक बार टॉयलेट और होकर आया जा सकता है। अच्छा है, बीच में उठना नहीं पड़ेगा। मैं वाशरूम से निकल कर रुमाल से हाथ पौंछता हुआ हॉल में दाख़िल हुआ।चेहरे पर एक मृदु मुस्कान है जो कार्यक्रम के माहौल को ख़ुशगवार बना रही है।ये युवक कौन है?शायद बिजली की फिटिंग वाला। माइक सेट कर रहा है। दो बच्चियां एक कौने में पड़ी मेज़ पर गुलदस्ते सजा रही हैं।एक ने नमस्ते की तो उसी से पूछ लिया- बशेशर जी नहीं आए?- जी, वो... वो क्या, उधर। लड़की बोली।- अच्छा- अच्छा, मेरा ध्यान नहीं गया। वो साइड में बैनर ठीक कर रहे हैं! मैंने एक मुस्कान उधर भी उछाली।बदले में उनकी अंगुली ने मुझे ख़ाली पड़े हॉल की उस कुर्सी पर बैठने का इशारा किया जिस पर "रिज़र्व" की तख्ती लगी है।ग्यारह बीस हो गए हैं...कोई नहीं आया? इक्का- दुक्का करके लोगों के आने की आहटें सुनाई देने लगी हैं।
रात को अपने कमरे में बैठे हुए सुबह के कार्यक्रम का निमंत्रण फिर मेरे हाथ में है। इसका रंग बहुत प्यारा है, डिजाइन भी सुन्दर है, पेपर क्वालिटी भी बढ़िया, ए वन। केवल इस पर छपे शब्दों में दम नहीं है, समय पर कोई ध्यान नहीं देता।लेकिन अगर छपे शब्द में ही दम नहीं तो फ़िर फ़ायदा ही क्या? क्या किया हमने ज़िन्दगी भर? छपे शब्द ही तो रचे? हम लिखते कुछ रहे, और करते कुछ और रहे?लिखा कि सच बोलो, बोला झूठ?लिखते रहे कि नशा बुरा है, पीते रहे खूब?लिखा कि रिश्वत बुरी है, लेते रहे घूस? तो फ़ायदा ही क्या,ऐसी बातें पढ़- लिख कर आंखें ख़राब करने से? क्यों न हम भी मैदानों में जाकर खेलें, बागों में घूमें, शादियों में दहेज लूटें? दो और दो पांच हमारा भी मंत्र हो!
मैंने निमंत्रण पत्र को बिखरा दिया टुकड़े- टुकड़े करके।सुबह मेरी पत्नी ने घूर कर देखा कि मैं कमरे में झाड़ू लगा रहा हूं तो वो दौड़ कर वाशरूम में गई और अपनी आंखों पर पानी के छींटे मारने लगी। कहीं नज़र कमज़ोर तो नहीं हो गई, उसने सोचा।
- प्रबोध कुमार गोविल