Mumbai Mornings - Poonam A Chawla (Translation: Anand Krishna) in Hindi Book Reviews by राजीव तनेजा books and stories PDF | मुंबई मोर्निंग्स- पूनम ए चावला (अनुवाद- आनंद कृष्ण)

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मुंबई मोर्निंग्स- पूनम ए चावला (अनुवाद- आनंद कृष्ण)

ऊपरी तौर पर मानव बेशक़ खुद को जितना भी प्रगतिशील.. सभ्य समझता..मानता एवं दर्शाता रहे लेकिन अगर ध्यान से देखा.. सोचा एवं समझा जाए तो हम इन्सानों और जानवरों में दिमाग़ के अलावा रत्ती भर भी फ़र्क नहीं है। एक समान प्रजनन क्रिया के ज़रिए वे भी जन्म लेते हैं और हम भी। वे अपनी भाषा में और हम भी अपनी भाषा में एक दूसरे से बोलते बतियाते हैं। वे सब भी हमारी ही तरह अपनी अपनी भाषा में एक दूसरे का हालचाल लेते होंगे। ऐसे ही ईर्ष्या.. द्वेष..स्नेह और ममता जैसी भावनाएँ भी हम में और उनमें भी एक जैसी ही होती हैं।

जिस प्रकार एकांत हमें काटने को दौड़ता है ठीक उसी तरह एकांत में वे सब भी नहीं रह पाते होंगे।
जैसे वे झुण्डों में रहना पसंद करते हैं ठीक उसी प्रकार हम मानव भी कॉलोनियों..मोहल्लों और सोसाइटियों में मिलजुल कर रहते हैं। अब एक दूसरे के साथ रहने पर ये तो वाजिब हो जाता है कि किसी ना किसी ज़रिए से हम एक दूसरे की या दूसरे हमारी खोज ख़बर लेते एवं रखते रहें।

दोस्तों..आज मैं परस्पर आपसी बातचीत और खोज खबर को आधार बना कर रचे गए एक ऐसे उपन्यास के हिंदी अनुवाद की बात करने जा रहा हूँ जिसे मूलतःअँग्रेज़ी में 'मुम्बई मोर्निंग्स' के नाम से लेखिका 'पूनम ए चावला' ने लिखा है और 'मुम्बई मोर्निंग्स' (चुटकी भर नमक) के नाम से इसका हिंदी अनुवाद जाने माने लेखक आनंद कृष्ण ने किया है। जो कि स्वयं भी अनुवादक..भाषाविद होने के साथ साथ साहित्य एवं कला की विभिन्न विधाओं में ख़ासा दख़ल रखते हैं।

मुख्य रूप से इस किताब में अमेरिका से मुम्बई, अपनी माँ से मिलने आयी लेखिका और उनके बीच के वार्तालाप एवं संवादों को आधार बना कर इस पूरे उपन्यास का ताना बाना बुना गया है। जिसमें उनके संस्मरणों के ज़रिए शनै शनै..अलग अलग परतों में अलग अलग कहानियाँ निकल कर सामने आ..उपन्यास को आगे बढ़ाने में मददगार सिद्ध होती हैं।

इन्हीं संस्मरणों में ही कहीं माँ बेटी के बीच आपसी संवादों द्वारा जटिल मानवीय रिश्तों को अपनी अपनी समझ के हिसाब से समझने एवं समझाने की कवायद होती नज़र आती है। तो कहीं उपन्यास के विभिन्न पात्र समय समय पर स्वयं मुखर हो.. अपनी कहानी खुद बयां करते नज़र आते हैं।

इन्हीं कहानियों में कहीं कोई प्रतिष्ठित फ़िल्म अभिनेत्री किसी खूबसूरत बांके नौजवान को मुंबई आ कर हीरो बनने जैसे लुभावने ख़्वाब दिखा रही है। और वो बावला उसके चक्कर में अपनी सुद्धबुद्ध भूल महानगरी में धक्के खाता नज़र आता है। इसी किताब में कहीं कोई बेवा हर समय घर के बरामदे में तख़्त पे इस वजह से बैठी नज़र आती है कि कहीं उसकी गैरहाज़िरी में उसका बेटा-बहु मकान ना हड़प लें। इन्हीं संस्मरणों में कहीं अंगूरों के बाग नज़र आते हैं तो कहीं कोई जादूगरनी अपने जादू से सबको अपने वश में करने का प्रयास करती नज़र आती है। तो कहीं कोई दूरबीन से दूर तालाब पर नहाती निर्वस्त्र औरतों को देखने की ताक में बैठा दिखाई देता है।

इसी किताब में कहीं माँ, अपनी माँ याने के लेखिका की नानी के प्रसव के दौरान ही गुज़र जाने से ले कर सौतेली माँ के साथ अपने सम्बन्धों के बारे में बताती नज़र आती है। तो कहीं कोई फिल्मी चकाचौंध और ऐशोआराम का लालच दे किसी को बरगलाता भ्रमाता नज़र आता है। इसी किताब में कहीं कोई स्त्री , भोग विलास के तमाम साधनों को ठुकरा आश्रम में रह साध्वी बनती दिखाई देती है। तो इसी किताब के किसी अन्य संस्मरण में एक ऐसा बड़ा होता मंदबुद्धि बालक नज़र आता है जिसे संभालने एवं उसकी शारीरिक ज़रूरतें पूरी करने के मकसद से उसका ब्याह गरीब घर की एक ऐसी सुंदर युवती से करवा दिया जाता है जो स्वयं आठ साल की उम्र में हुए किसी हादसे की वजह से बोल नहीं सकती। अब समय के साथ उसकी आवाज़ तो वापिस आ जाती है मगर क्या उसके बाद अपने मंदबुद्धि पति के साथ उसके संबंध पहले की तरह सामान्य रह पाते हैं?

इसी किताब में कहीं नेपाली मूल के उस घरेलू नौकर भजन सिंह की बातें नज़र आती हैं जिसने अपने बचपन से ले कर बुढापे तक का सफर एक ही घर की स्वामिभक्ति में गुज़ार तो दिया मगर अपनी ही नेकनियती के चलते उसे बुढ़ापे में उस घर से दरबदर हो वापिस नेपाल लौटना पड़ा। इसी किताब में कहीं घर की जवान होती लड़कियों एवं महिलाओं को घर में आने वाले मेहमानों से दूर रहने की ताकीद की जाती दिखाई देती है। मगर तमाम नसीहतों और सावधानियों के बावजूद भी घर की एक युवती का घर में बतौर मेहमान रह रहे एक युवक से प्रेम पनप उठता है। क्या उनका प्रेम सफ़ल हो अपने मुकाम को प्राप्त कर पाएगा अथवा बड़ों की ज़िद्दी स्वभाव के चलते उन्हें हमेशा हमेशा के लिए अलग होना पड़ेगा?

इसी उपन्यास में कहीं कोई अधेड़ अध्यापक अपनी छात्रा को डराने धमकाने और बरगलाने के साथ साथ अच्छे नंबरों से पास करने की गारंटी दे कर उसका यौन शोषण करता नजर आता है। इन्हीं संस्मरणों में कहीं माँ के पिता याने के लेखिका के नाना के संघर्षों के बारे में पता चलता है कि किस तरह भारत-पाक विभाजन के बाद उसके पिता शरणार्थियों की भांति दिल्ली आ कर बसे। तो कहीं किसी अन्य पृष्ठ पर मायके से वापिस आयी बहु से उसके द्वारा लाए गए तोहफ़े.. उससे आते ही छीन लिए जाते दिखाई देते हैं। तो कहीं किसी अन्य जगह कोई शातिर बिल्डर मौके की ज़मीन हथियाने के लिए कभी विनम्रता का छद्म आवरण ओढ़े कभी बहलाता..फुसलाता तो कभी लालच देता अथवा धमकाता नज़र आता है। मगर जब ऐसी तमाम छिछोरी हरकतों से अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाता तो अपने जवान बेटे को भी चारा बना..परोसने से नहीं चूकता। इसी किताब में कहीं पति के दफ़्तर जाने के बाद दिन में फ्लैट में अकेली रह रही युवती को उसी के जानकार पैसे के लालच में जान से मार डालते नज़र आते हैं।

** अँग्रेज़ी या किसी भी अन्य भाषा में लिखे गए किसी वाक्य का अक्षरशः किसी अन्य भाषा में जस का तस अनुवाद कर देना कई बार उस वाक्य के सही अर्थ..सही मंतव्य को पाठकों तक सही से नहीं पहुँचा पाता है। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 5 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अपनी प्लेट के अंडे के टुकड़े करके मैं उसके पीले भाग को अपनी होंठों से ना चिपकने की सावधानी बरतते हुए मैंने जैसे अखबार को पढ़ने की आखिरी कोशिश की।'

इसी वाक्य को अगर थोड़ा फेरबदल कर के लिखा जाए तो वह अपने व्यापक अर्थ को ज़्यादा आसानी से पाठकों तक संप्रेषित कर सकता है जैसे कि..

'नाश्ता करते वक्त अख़बार पढ़ने की आखिरी कोशिश के दौरान मैंने सावधानी बरती कि प्लेट में किए अंडे के टुकड़ों में मौजूद पीले भाग से मेरे होंठ ना चिपकें।'

** कई बार किसी वाक्य में अगर सही शब्द का प्रयोग ना किया जाए तो वाक्य थोड़ा अजीब सा दिखाई देने लगता है जैसे कि पेज नंबर 21 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'तुम्हारी मौसी वीणा ने आज अपने घर पर तुम्हारा निमंत्रण किया है।'

यहाँ पर मेरे ख्याल से 'तुम्हारा निमंत्रण किया है' की जगह 'तुम्हें आमंत्रित किया है' आना चाहिए क्योंकि 'निमंत्रण' भेजा जाता है जबकि 'आमंत्रित' किया जाता है। या फिर अगर 'निमंत्रण' शब्द का इस्तेमाल ही ज़्यादा ज़रूरी हो तो यहाँ 'तुम्हें अपने घर आने का निमंत्रण दिया है' आएगा।

इसी तरह पेज नंबर 64 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'मैंने बिल पटाया।'

यहाँ 'बिल पटाया' के बजाय 'बिल चुकाया' आएगा क्योंकि लड़की या लड़के को पटाया जाता है जबकि बिल को चुकाया जाता है। हाँ.. यह और बात है कि इलाका बदलने से बोलचाल की भाषा में भी परिवर्तन होता दिखाई देता है मगर साहित्यिक भाषा के हिसाब से 'बिल पटाना' नहीं बल्कि 'बिल चुकाना' ही आएगा।

इस किताब को पढ़ते वक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर कुछ जगहों पर वर्तनी की ग़लतियाँ दिखाई दी जिन्हें आसानी से सुधारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त एक अहम बात ये कि आमतौर पर कुछ लोग/लेखक कई बार कुछ शब्दों में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग के बीच के अंतर का सही से आंकलन नहीं कर पाते हैं। इसी तरह की कुछ कमियाँ इस किताब में भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 64 पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'मैंने रेस्तरां से बाहर आ कर घर जाने के लिए एक कैब तय कर लिया।'

यहाँ 'कैब तय कर लिया' की जगह 'कैब तय कर ली' आएगा क्योंकि 'कैब' तय की जाती है जबकि 'ऑटो' या 'रिक्शा' तय किया जाएगा।

इसके आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'कैब तेज़ी से हमारे घर की तरफ दौड़ रहा था।'

यहाँ 'कैब तेज़ी से दौड़ रहा था' की जगह 'कैब तेज़ी से दौड़ रही थी' आएगा।

अगर आप अपने आसपास के माहौल से ली गयी कुछ खट्टी मीठी कहानियों को पढ़ने के शौकीन हैं तो यह उपन्यास आपके मतलब का है। हालांकि यह किताब मुझे उपहार स्वरूप मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 250 पृष्ठों के इस संस्मरणात्मक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है बुक स्ट्रीट पब्लिकेशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 400/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा।