मॉटरनी का बुद्धु---(भाग-12)
संध्या के साथ अपने सफर को रात में दोहराते हुए भूपेंद्र जी सो गए। सुबह अलार्म बजते ही उठ गए। रोज के टाइम से थोड़ा जल्दी आ गए। सभ्यता को पता नहीं था कि पापा जल्दी आने वाले हैं तो वो अपने रूम से बाहर नहीं आयी थी। भूपेंद्र जी न्यूज पेपर पढने बैठ गए, पर मन नहीं लगा तो किचन में जा कर दो कप चाय का पानी रख दिया। चाय बनते तक सभ्यता भी आ गयी। पापा को हॉल में भेज चाय छान कर ले आयी। जब भी उन्हें डॉ. संध्या के टेस्टस के लिए कहते वो ऐसे ही किसी काम में फोकस नहीं कर पाते। रिपोर्ट का रिजल्ट क्या होगा ये ख्याल उन्हें बेचैन कर देता। आज भी यही हाल था, जल्दी से एक बिस्किट खा कर चाय पी वो खड़े हो गए, पहले तो वो सुबह उठते ही सिर्फ चाय पी लिया करते थे पर संध्या ने कई बार टोका कि," खाली पेट चाय गैस बनाती है, पहले कुछ खा लिया करो", तब से एक बिस्किट खा कर चाय पीने की आदत बना ली है। "पापा क्या हुआ? आज आपको जल्दी जाना है क्या स्कूल"?" हाँ बेटा, थोड़ा जल्दी निकलूँगा पर लंच मत देना हॉफ डे में आ जाऊँगा, तुम्हारी मॉम को हॉस्पिटल ले जाना है "!" ठीक है पापा, आप तैयार हो जाओ मैं नाश्ते की तैयारी करती हूँ क्योंकि काकी अभी आयी नही है"। "नहीं बिटिया तुम चिंता मत करो, काकी आ गयी तो ठीक नहीं तो मैं आज तुम लोगो का अँग्रेजी नाश्ता कर लूँगा, कार्न फ्लेक्स और म्यूजली"!" ठीक है पापा, आप तैयार हो जाओ", कह कर सभ्यता अपनी किताब खोल कर बैठ गयी। नाश्ता करके भूपेंद्र ने सभ्यता को याद दिलाया, "बेटा लैब से 9 बजे लड़का आएगा माँ के टैस्ट के लिए ब्लड सैंपल लेने तुम माँ को सुनीता या काकी की हेल्प से नहला कर तैयार कर देना"। "ठीक है पापा", बेटी के जवाब से संतुष्ट हो कर वो बाहर निकल गए। टाइम पर लैब से आ कर सैंपल ले कर चला गया रिपोर्ट शाम तक या अगली सुबह तक आ जाने वाली थी ईमेल पर और हार्ड कॉपी लैब से कलैक्ट करने को भी बता गया। भूपेंद्र जी भी हॉफ डे में आ गए। संभव भी तैयार बैठा था, नर्स और सभ्यता ने संध्या को उठा को व्हील चेयर पर बिठाया और बाहर ले आयीं। भूपेंद्र जी ने उसे अपनी गोद में उठा पीछे बिठा दिया। आगे नर्स को बिठा खुद वो संध्या को पकड़ कर बैठ गए। वो एक पल नहीं गँवाना चाहते थे संध्या के साथ को.... शायद यही सच्चा प्यार होता है। संभव शीशे से अपने माँ पापा को देख रहा था। भूपेंद्र जी ने अपने कंधे पर संध्या का सिर टिका रखा था। दूसरी बाँह से उसको आगे से संभाले बैठे थे। आँखे बंद करके भगवान शिव के मंत्र का जाप कर रहे थे और मन ही मन प्रार्थना कर रहे थे अपनी मॉटरनी के ठीक होने की....
"हे भगवान संधु का ध्यान रखना, उसे मुझसे दूर मत करना भगवन"!बरेली में इतने सालों से रहते हैं तो अधिकतर लोग उन्हें जानते हैं और उनका पत्नी प्रेम भी जग जाहिर है। कई लोग उनका उदाहरण देते हैं तो पहले कुछ लोग पीछे से मजाक बनाते थे। पुरूष प्रधान समाज में वो भी 80-90 के दशक में किसी अजूबे से कम नहीं था उनका खुलेआम अपने प्रेम का यूँ सबके सामने स्वीकार करना हालंकि संध्या के लिए ये काफी ऑकवर्ड सिचुएशन हो जाती थी ,जब पति के दोस्त और उनकी बीवियाँ दोनो को छेड़ते थे। हमेशा कम बोलने वाले भूपेंद्र इन बातों से सहज रहते थे। गाड़ी रूकी तो भूपेंद्र जी ने आँखे खोल कर देखा...वो लोग हॉस्पिटल के सामने थे। डिक्की से व्हील चेयर निकाल कर संध्या को बिठाया और बेल्ट लगा दी। न्यूरोलोजिस्ट का पर्सनल इंट्रेस्ट भी था संध्या की कंडीशन जानने का क्योंकि उनके करियर में ये पहली उनकी पैशेंट थी जो इतने सालों से कोमा में थी और उसके परिवार वालों की कायम है उसके ठीक होने की। डॉ. ने देखा था कि जब ऐसी हालत किसी की होती है तो अक्सर परिवार वाले दवाइयाँ, इलाज और देखभाल के खर्चों से उकताए होते हैं, पर ये परिवार भी अलग था और मरीज की इच्छा शक्ति गजब की थी, तभी वो इतने सालों से स्टेबल कंडीशन में हैं। इन्ही के जूनिर भूपेंद्र जी के घर से कुछ ही दूरी पर रहते हैं तो वो जरूरत पड़ने पर फौरन आ जाते हैं। MRI हो गया...रिपोर्ट सीधा डॉ. के पास पहुँच जाएगी , ऐसा उन्हें बताया गया। डॉ. से फोन पर भूपेंद्र जी ने बात की और उन्होंने अगली शाम को हॉस्पिटल में ही आने को कह दिया। भूपेंद्र जी के लिए एक रात और काटना मुश्किल हो रहा था, पर क्या कर सकते थे! MRI करने वाले डॉ. ने बताया," सर आप परेशान न हो, डिस्क तो आपको तुरंत मिल सकती है पर डॉ. ही बेहतर बता सकते हैं"! वापिस लौटते वक्त नर्स को रास्ते में छोड़ते हुए घर आए। घर आकर देखा तो सभ्यता ने भी खाना नहीं खाया था। संध्या को कमरे में लिटा कर उसके हाथ मुँह गीले तौलिए से साफ करके खुद फ्रेश होने चले गए। बाहर आए तो संभव माँ को खाना खिला रहा था। फूड नली से जाता हुआ खाना , कई बार भूपेंद्र को कचोट जाता है पर क्या करें वो? ये नहीं समझ पाते। तीनों ने खाना खाया और भूपेंद्र जी आराम करने अपने कमरे में चले गए और संभव कुछ दोस्तों से मिलने चल दिया। "संधु आज तो तुम बाहर घूम आयी थक गयी हो न! चल दोनो जन आराम कर लेते हैं", कह कर आँखे मूँदे लेट गए। दिल पुराने घर में घूमने चल दिया। संध्या को ट्रांसफर के चक्कप में कई बार घर बदलने पड़े, वो हर खर्च में कटौती करने को तैयार रहती पर घर लेने में कोई कटौती बर्दाश्त नहीं करती थी। हर घर उसने बड़ा और हवादार ही पसंद किया। "संधु तुझे बड़े घरों का शौक है न, हम एक अच्छा सा बड़ा घर बनाएँगे अपना फिर मजे से रहना और दिनभर हाथ में झाड़ू पौछा पकडे रहना"। " मॉटर जी ले लेगे घर पर साफ सफाई में मदद तुम्हें भी करनी पड़ेगी"!"मॉटरनी, पर मैं सोचता हूँ, मैं दूसरी शादी कर लूँगा तो मेरी जगह उससे काम करवा लेना", संध्या की बात को कभी कभार उलटा जवाब भी दिया करते थे और वो बिना किसी गुस्से या जलन दिखाए झट कहती," हाँ कर लो एक काहे दो और करो, पर तुम्हारा का होगा"? "पगलिया मेरे तो मजे आ जाएँगे कभी तेरे कमरे में तो कभी दूसरी के तो कभी तीसरी के"!!! ये जवाब जानबूझ कर दिया करते थे भूपेंद्र जी, क्योंकि इस बात से वो बहुत चिढती थी। " मेरे कमरे में काहे आओगे तुम? मैं तो पुरानी हो गयी....मैं तो चली जाँऊगी तुम्हें छोड़ कर",खुद ही बोलती और इतना कहते ही उसकी आँखो में आँसू आ जाते"। उसकी बात सुन कहते," संधु तू मजाक करने पर ही रो देती है, तू तो मेरी धड़कन है पागल और मेरे जीने की वजह, मैं तो कभी सपने में भी किसी और को नहीं देखता मेरी पगलिया", और ये सुन वो हंस देती," ऐसे ही तुम्हें बुद्धु नहीं कहती मैं तुम्हें...ये तो प्यार वाले आँसू होते हैं क्योंकि मुझे पता है मेरा बुद्धु अपनी मॉटरनी के बिना नहीं रह सकता"। भूपेंद्र जी की आँखो से उन बातों को याद करते हुए आँसू बहने लगे, आँसुओ को साफ करते हुए बुदबुदाए," जब तुझे सब पता है तो फिर मुझे क्यों परेशान कर रही है, जल्दी से ठीक हो जा और देख तेरे बुद्धु ने कैसे मैनेज किया है घर? कुछ गलतियाँ तो निकाल संधु, तू तो मेरे बिना 2 दिन नहीं रहती और अब इतने सालों से आँखे बंद किए अपने बुद्धु को और बच्चों को रोते देख सुन रही है, एक बार फिर मेरे लिए जी ले संधु बहुत मिस करता हूँ तेरी आवाज को""!!
क्रमश: