Motorni ka Buddhu - 9 in Hindi Fiction Stories by सीमा बी. books and stories PDF | मॉटरनी का बुद्धु - (भाग-9)

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मॉटरनी का बुद्धु - (भाग-9)

मॉटरनी का बुद्धु--(भाग-9)

सभ्यता ने चाय टाइम देखा और चाय बना ली पर पापा वॉक से नहीं आए सोच कर वो चाय पीने बैठ गयी। वो रोज रात को 11 बजे सो कर सुबह 4:30-5-00 बजे उठ जाती है पढने के लिए। चाय खत्म होने तक पापा नही आए सोच कर वो उनके कमरे की तरफ चल दी। दरवाजा खोलने लगी तो अंदर से बंद था, मतलब पापा वॉक पर नहीं गए। उसने दरवाजा खटखटा दिया। भूपेंद्र जी अलसाए से उठे और दरवाजा खोल कर फिर से पलंग पर बैठ गए....." क्या हुआ मॉटर जी आज वॉक का बंक मार लिया? काहे नहीं गए आप"? बेटी का माँ के स्टाइल को कॉपी करना अच्छा लगता था उन्हें सो मुस्कुरा कर बोले," मॉटरनी की बिटिया रानी आज आलस आ गया , इसलिए नहीं गया"! "पापा आप रात को ठीक से सोते नहीं और कई बार तो मुझे लगता है कि रातभर सोते ही नहीं, पापा ये गलत है, आप की तबियत खराब हो जाएगी तो मॉटरनी की बिटिया कैसे आप दोनो को संभालेगी ? आप मॉम और हमारे लिए अपना ध्यान रखा कीजिए पापा ", कह कर वो पापा के गले में अपनी बाँहे डाल दी। " "सॉरी बेटा आज से टाइम से सोया करूँगा तुम दोनो परेशान न हो मैं ठीक हूँ, बस कई बार तेरी मॉम इतनी बातें करती है कि सोने नहीं देती और सुबह होते ही खुद मजे से सो जाती है, देख कैसे अभी भी सो रही है, आँखो में नमी तैर आयी जिसे उन्होंने बड़ी मुश्किल से पलको में समेट लिया और बेटी का गाल थपथपा कर बाथरूम में चले गए"। अपने पापा को बाथरूम जाते देख वो बुदबुदाई," मॉम आपके मॉटर जी अकेले हैं हमारे होते हुए भी, आप उनके लिए ही ठीक हो जाओ", आँखो में आँसू लिए वो बाहर आ गयी। लीला काकी को नाश्ता बनाने को कह वो जल्दी से पापा के लिए सेब और सलाद काट कर टिफिन में रखने लगी। उधर जल्दी से नहा कर और मंदिर में दिया जला कर तैयार हो गए। नाश्ता करते हुए सभ्यता से बातें भी करते जा रहे थे। वो जानते हैं कि वक्त ने बच्चों को जल्दी समझदार और जिम्मेदार बना दिया है। कहाँ संभव हमेशा नयी नयी जिद ले कर बैठ जाता था और सभ्यता के खाने को लेकर कितने नखरे थे...सब बंद हो गए हैं। ना कोई फरमाइश न ही जिद वो तो खुद ही भूपेंद्र जी याद रखते हैं कि दोनो को का क्या पसंद है तो टाइम टाइम पर लाते रहते हैं। लंच बॉक्स उठा सीधे अपने कमरे में गए, संध्या का माथा सहला कर उसके माथे पर किस कर स्कूल चल दिए। स्कूल जाने से पहले माथे पर किस तो वो पहले दिन से करते आ रहे हैं। तब तो फोन भी कम ही हुआ करते थे और गाँवो में तो और भी मुश्किल था, नहीं तो संध्या का वश चलता तो उसे वीडियों कॉल करके खाना खिला कर ही दम लेती। भूपेंद्र जी स्कूल पहुँच कर काम में बिजी हो गए तो दिल बहल गया उनका। सब की प्रॉब्लम्स सुनते और सुलझा भी देते। हर कोई उनकी तारीफ करता था स्कूल में भी और स्कूल के बाहर भी। आज जब प्रिंसीपल हैं तब भी और जब टीचर थे तब भी किसी से कोई लड़ाई झगड़ा नहीं किया था। बस बोलने की आदत ज्यादा थी नहीं तो नापसंद करने वाले भी थे ही...। स्कूल का राउंड लगा कर अपने ऑफिस में आ कर बैठे ही थे कि संभव का फोन आ गया," पापा जल्दी आओ, मॉम की तबियत ठीक नहीं लग रही है, मैंने डॉक्टर को भी फोन कर दिया है, बहुत घबराया हुआ था संभव"! " बेटा नर्स है न उससे बात कराओ", अपनी घबराहट बेटे पर जाहिर न करते हुए संयत हो कर कहा तो अगली आवाज नर्स की थी...." जी सर मैं सुनीता बोल रही हूँ, पैंशट को सांस लेने में दिक्कत हो रही है, डॉक्टर आ रहे हैं, ऑक्सीजन लगा दिया है", बिना पूछे ही नर्स ने सब हाल बता दिया, ठीक है, मैं भी बस पहुँच रहा हूँ। वाइस प्रिंसीपल को सिचुएशन बता कर घर की तरफ चल दिए....बस बार बार एक ही बात दोहरा रहे थे," संधु हिम्मत मत हारना, अभी तो हमारी जिंदगी सही मायनों में शुरू होनी है जब हम दोनो एक दूसरे के लिए जिएँगे, अपना प्रॉमिस याद रखना, कुछ भी हो जाए अपने बुद्धु को छोड़ कर नहीं जाओगी"! न जाने वो हिम्मत खुद को दे रहे थे या संध्या को पर यही दोहराते दोहराते घर पहुँच गए। डॉक्टर भी ज्यादा दूर नहीं रहते थे तो वो भी आ गए थे। भूपेंद्र जी लगभग भागते से कमरे में पहुँचे, डॉ. साहब नर्स से बात कर रहे थे। संभव और सभ्यता की आँखो से आँसू बहे जा रहे थे, पापा को देखते ही उनके गले लग गए। "अरे बच्चों तुम इतना रो क्यों रहे हो? कुछ नहीं हुआ है मॉटरनी को, ऐसी नौंटकी तो करती रहती है हमें परेशान करने को... तुम लोग चुप हो जाओ", उन्हें तुम चुप करा दिया था पर खुद के दिल का हाल उन्हें ही पता था। बच्चे पापा को देख थोड़ी हिम्मत पा गए थे। "क्या हुआ संध्या को डॉ. साहब"? आप चिंता मत कीजिए वो ठीक हैं पर फिर भी कुछ टेस्ट करवाने होंगे तभी पता चलेगा कि Anxiety का क्या कारण था। ब्ल्ड टेस्ट के लिए सैंपल लेने भेज दूँगा लड़के को पर एक बार MRI करवा ली जाए तो ठीक रहेगा उसके लिए इन्हें हॉस्पिटल ले कर जाना पड़ेगा"! "जी आप कह रहे हैं तो हम कल ही MRI करवा लेते हैं", डॉ. साहब चले गए और भूपेंद्र जी अपनी स्टडी टेबल के साथ रखी कुर्सी पर बैठ गए।"सर आप परेशान न हो, डॉ. ने बताया न कि मैडम ठीक हैं......आप जा कर लंच कर लीजिए, मैडम के लिए भी उनका लंच तैयार कर रही हूँ", भूपेंद्र जी ने जैसे बिल्कुल सुना ही नहीं," संधु जाना नहीं अभी बहुत सारे काम करने हैं जो हमने एक साथ करने हैं", नर्स को अपनी बात का जवाब मिलता न देख वो संध्या को नली के सहारे जूस पिलाने लगी। संभव के कमरे में बैठे दोनो भाई बहन रोते चले जा रहे थे, पर पापा को अपने आँसू दिखा कर कमजोर भी तो नहीं बना सकते। यही सोच कर सभ्यता ने हाथ मुँह धोया और बोली," चल भाई लंच करते हैं, पापा ने भी कुछ खाया नहीं होगा"। लीला काकी को फुल्के सेंकने को कह वो पापा को बुलाने चली गयी। भूपेंद्र जी भी अपने आप को संभाल चुके थे क्योंकि बच्चों के सामने कैसे कमजोर पड़ जाते! तीनो ने चुपचाप खाना खाया और अपने अपने कमरे में चल दिए। संभव माँ की तबियत देख कर दिल्ली जा कर नौकरी करने का ख्याल दिमाग से निकालना चाहा रहा था पर ये भी जानता था कि पापा ऐसा करने नहीं देंगे। सभ्यता का मन नहीं लग रहा था पढने में पर उसे फर्स्ट आना था.....तो किताबें ले कर ध्यान लगाने की कोशिश करने लगी। उधर भूपेंद्र जी ने नर्स को जल्दी घर जाने को कह दिया और संध्या के पास जा कर बैठ गए, " संधु क्या हो जाता है तुझे? क्यों मुझे डराती रहती है"? उसके माथे पर हाथ रख कर बैठ गए और आँखे बंद कर ली.....सुबह जहाँ यादों से फिर मिलने का वादा किया था। जब से द्ददा घर आए थे वो आस पास के बच्चों से भी घिरे रहते उन्हें कहानियाँ सुनाते और बच्चे उनकी देखरेख में खेलते रहते। द्ददा जी की नजर कमजोर थी तो एक दिन संध्या उनको डॉक्टर के पास ले गयी और चश्मा बनवा लायी। तकरीबन दो महीने के बाद भूपेंद्र के माँ बाबा भी आ गए। द्ददा का वक्त अच्छे से कटने लगा। धीरे धीरे वो उनका चेहरा और शरीर भर रहा था और आँखो में जीने की चाह बढ रही थी, उन्हें तो पता ही नहीं था कि बेटा बहु संध्या और भूपेंद्र के जैसे भी हो सकते हैं। बहुत दिन हो गए थे संध्या को मायके गए तो भूपेंद्र से बात करके उसने एक हफ्ते के लिए जाने का प्रोग्राम बना लिया। इस बार संध्या माँ बाबा और द्ददा का ध्यान रखने के लिए भूपेंद्र को छोड़ गयी थी। शादी के बाद वो पहली बार था जब संध्या उनके बिना गयी थी। बच्चों के नाना ने गाड़ी भेज दी और संध्या घर पहुँच गयी। तब बच्चो को स्कूल में 5-6 साल पर ही डाला जाता था, पर धीरे धीरे Nursery, l.k.g और u.k.g का trend बढ़ रहा था। शहरो में ये इसकी शुरूआत 84-85 के बाद हो ही गयी थी। संध्या के बिना 7 दिन उन्होंने बेचैनी में ही काटे।उस बार संध्या एक फैसला करके वापिस आयी थी, उसे अपने बच्चों को नए जमाने के साथ चलाना था, शहर और गाँव की पढाई का फासला कम करना था।
क्रमश: