Motorni ka Buddhu - 6 in Hindi Fiction Stories by सीमा बी. books and stories PDF | मॉटरनी का बुद्धु - (भाग-6)

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मॉटरनी का बुद्धु - (भाग-6)

मॉटरनी का बुद्धु...(भाग-6)

स्कूल से आ कर भूपेंद्र जी का अभी भी वही रूटीन है जो शुरू से ही था। फ्रेश हो कर संध्या और वो लेट कर पूरे दिन की बातें कर लेते थे। संध्या कुछ भी होने से पहले उनकी सबसे अच्छी दोस्त थी। संध्या पर अपना हाथ रख कुछ देर लेटे रहे। फिर ठीक 5:30 बजे बाहर आ कर हॉल में बैठ गए। संभव की नौकरी दिल्ली NCR में लगी थी तो उसके जाने की तैयारी भी करनी है, सोच कर उन्होंने दिल्ली में अपने ससुराल में फोन किया।" पापा संभव की जॉब लगी है HCL में वो दिल्ली आ रहा है, किसी को कह कर उसके लिए ऑफिस के आस पास किराए पर रहने की जगह देख लीजिएगा"। भूपेंद्र की बात सुन कर वो नाराज हो गए," कैसी बातें करते हो बेटा, नाना नानी के होते हुए वो और कहीं क्यों रहेगा? हमारे साथ रहेगा तुरंत भेज दो उसको"! " जी ठीक है पापा", इसके आगे वो कुछ कह नहीं पाए अपने ससुर जी से पर उन्हें पता था कि उनका बेटा वहाँ नहीं रहेगा।
सभ्यता ने चाय का कप उनके हाथ में पकड़ा दिया और खुद भी चाय ले कर उनके सामने बैठ गयी। " पापा आपको मॉम मॉटर जी क्यों कहती हैं"? इस बार सभ्यता ने थी बोलने से पहले अपने आप को रोक लिया। बेटी के सवाल ने फिर उन्हें पुराने दिनो के बीच ला कर खड़ा कर दिया," रतियापुर जहाँ मेरी पहली नौकरी थी यहाँ से 300-350कि.मी दूर, वहाँ आस पास के लोग मुझे मास्टर जी या गुरू जी बुलाते थे। उन्हीं दिनों पड़ोस में एक छोटी सी लड़की अपने परिवार के साथ रहने आयी तो अपने माँ बाप की तरह मुझे मास्टर जी बुलाने की कोशिश करती पर वो "मॉटर जी" कह पाती थी.....मैं हँस देता। जब तुम्हारी माँ आ गयी तो सब उसे मास्टरनी जी कहते ठीक वैसे ही जैसे धोबी की बीवी धोबिन कहलाती हैं न पर वो बच्ची "मॉटरनी जी" कहती तो बस मैं भी संधु को "मॉटरनी" कहता तो वो खूब गुस्सा होती पर मैं उसे मॉटरनी जी ही कहता तो वो मुझे मॉटर जी कहने लगी चिढाने के लिए, पर धीरे धीरे उसे आदत हो गयी। मैं उसे कहता कि तुम मॉटरनी हो तो मैं क्या हूँ ? तो वो बोलती मॉटरनी का बुद्धु", बताते हुए वो दिन याद कर मुस्कुरा दिए।" हाँ पापा फिर मॉम से मुझे भी आदत हो गयी", बेटी की बात सुन कर "हम्म" कह कर चुप हो गए। "बेटा जाओ तुम पढो और संभव को बोलो की सामान की लिस्ट बना ले, दिल्ली जाना है तो तैयारी करनी पड़ेगी न"! "भाई अपने दोस्तों से मिलने गए हैं, कह रहे थे कि डिनर से पहले आ वापिस आ जाऊँगा"! "ठीक है, अब तुम जाओ मैं अपने कमरे में जा रहा हूँ....काकी रात की तैयारी कर लेंगी" कह कर वो अपने कमरे में चले गए। लीला काकी कुछ ही दूर रहती हैं।उम्र में तो वो भूपेंद्र जी से छोटी हैं पर बच्चे काकी कहते हैं तो वो भी पीछे से काकी ही कहते हैं और लीला काकी उनके सामने जल्दी से आती भी नहीं। कुछ देर किताब ले कर बैठे रहे अपनी ईजी चेयर पर .... पढने उनका मन बिल्कुल नहीं लग रहा था। हर पल दिल पुराने टाइम में जाने की जिद करने लगता है और भूपेंद्र जी भी खुश रहते हैं अपनी बीते समय की यादों के साथ....गाड़ी आने के बाद भूपेंद्र जी ने कार चलाना सीख लिया जिसकी वजह से वो स्कूल कार से आने जाने लगे थे। भूपेंद्र जी की दोनो बहनो की शादी हो गयी थी और दोनो भाई ग्रेजुएट हो गए थे। भूपेंद्र चाहते थे कि दोनो भाई भी टीचिंग जॉब में रहने के लिए आगे पढाई करें पर रमेश पुलिस में चला गया और महेश पहले तो आनाकानी करता रहा, पर जब उसे संध्या ने भी समझाया कि टीचर जॉब अच्छी है बी.एड कर लो तो मान ही गया। सब पढाई में अच्छे थे तो भूपेंद्र को चिंता नहीं थी। संभव जब 6 महीने का हुआ तो भूपेंद्र के पापा ने कहा," बेटा तुम बहु को अपने साथ ले जाओ, तुम रोज इतनी दूर आते जाते हो, जब तक वापिस आ नहीं जाते दिल को चैन नहीं पड़ता। हर हफ्ते मिलते आते रहना"! भूपेंद्र को लगा कि संध्या ने कुछ कहा है तभी वो ऐसा कह रहे हैं, उसने संध्या से पूछा तो वो बोली कि मैंने कुछ नहीं कहा और न ही इस बारे में बात हुई पर फिर भी न जाने क्यों भूपेंद्र को यकीन नही हो रहा था क्योंकि माँ बाप हमेशा चाहते हैं कि उनके बेटा बहु, पोते पोतियाँ उनके पास रहें, फिर बाबा ने क्यों कहा"? वो बाबा से इस बात पर नाराज रहे कुछ दिन और संध्या से भी ठीक से बात नहीं की। संध्या जानती थी कि भूपेंद्र अपने परिवार से दूर रहना नहीं चाहते और उसे डर है कि संध्या परिवार से दूरी न बना ले....ऐसी कई फिल्में देख चुका था वो जिसमें बहु को गाँव जाना पसंद नहीं आता पर भूपेंद्र ज्यादा सोच रहे थे। भूपेंद्र ने स्कूल से कुछ दूर ही घर फाइनल कर लिया था किराए पर रहने के लिए। घर में जरूरत का सामान भी आ गया और माँ बाबा ने छोटी सी पूजा करवा कर गृह प्रवेश करा दिया। बाबा वापिस चले गए थे पर माँ को कुछ दिन के लिए छोड़ गए थे। बाबा का खाना तो पड़ोसियों के घर से आ ही जाता था तो माँ को ज्यादा चिंता नहीं थी, संध्या का घर संवरा कर वो भी वापिस चली गयीं। संभव को अकेला लगता था क्योंकि दादा दादी और चाचा लोग उसके आगे पीछे घूमते रहते थे। पड़ोस के बच्चे भी उसे गोद में उठाए रहते यहाँ उसे बस दो लोग ही दिखते थे तो चिड़चिड़ा सा हो गया था। आज भी याद है भूपेंद्र को जब वो एक दिन स्कूल से आया तो संध्या उसे चौखट पर बैठी रोती मिली तो वो बहुत घबरा गए, हड़बड़ा कर कमरे में गए तो देखा संभव आराम से सोया हुआ था तो चैन की साँस ली, वो वापिस संध्या के पास गए,"का हुआ मेरी झाँसी की रानी, रो काहे रही हो"? इतना कहने की देर थी की वो उनके सीने से चिपक कर खूब रोयी....भूपेंद्र की घबराहट बढती जा रही थी पर अपने आप को संभाल कर बोले," कछु बोलोगी या बिसूरती रहोगी"? ऐसे शब्द वो जानबूझकर बोलते थे क्योंकि संध्या उसे टोकती थी, "कायदे से बोला करो तुम हमारे बच्चे भी ऐसे ही बोला करेंगे"! उस दिन भी रोते रोते बोली," ये बिसूरना क्या होता है" ? वो हँस दिए और बोले "रोने को" कहते हैं। "अब तो बता दे क्या हुआ तुझे? सब ठीक है न"? "तुम्हारा बेटा मुझे बहुत तंग करता है मॉटर जी, इसे गली में घूमना है धूप में भी"....! उसकी बात सुन कर भूपेंद्र ने कहा," बस इत्तू सी बात पर मेरी रणचंडी रो दी? शाम को इसे बग्घी में घूमा लाँएगे तुम चिंता मत करो। घर के काम के लिए बात कर ली है, कल से वो सारा काम कर दिया करेगी बस तुम अपना और संभव का ध्यान रखो", उनकी बात सुन कर वो बोली," मुझे काम से दिक्कत नहीं है मॉटर जी पर संभव माँ बाबा को मिस करता है और अपने चाचू को भी"! "कोई बात नहीं संधु कुछ ही दिन हुए हैं हमें यहाँ आए हुए तुम आसपास जान पहचान बनाओ....ये भी ढल जाएगा नए माहौल में"..... उनकी बात संध्या के समझ आ गयी। हर छुट्टी गाँव में ही बीता कर आया करते थे। धीरे धीरे जब संध्या की दोस्ती आसपास के लोगो से हो गयी तो माँ बेटा दोनो खुश रहने लगे थे। यहाँ बच्चे से खेलने के लिए बच्चे मिल गए थे। संध्या शहरी लड़की थी और आसपास का माहौल गाँव का था....तो उनकी ठेठ भाषा कई बार समझ नहीं पाती थी, सो वो भूपेंद्र से पूछ लिया करती। समय बीत रहा था, संभव दो साल का हो गया और संध्या को एक काम मिल गया उसे पढाने का..... जैसे हर जगह होता है बच्चों को सीखाने की कवायद में माँ बाप जुटे रहते हैं, पर भूपेंद्र का मानना था कि जब वो 4 साल का होगा तभी कुछ पढाया जाए, पर संध्या तो संध्या थी वो संभव के साथ लगी रहती और साथ ही आस पास के छोटे छोटे बच्चों को भी सीखाती रहती। संध्या को जो जान ले वो इंप्रेस हो ही जाता था। जहाँ जाती कुछ सीखती और कुछ सीखाती....उसका यही ढंग उसे सबके करीब ले आता।
क्रमश: