Motorni ka Buddhu - 2 in Hindi Fiction Stories by सीमा बी. books and stories PDF | मॉटरनी का बुद्धु - (भाग-2)

Featured Books
Categories
Share

मॉटरनी का बुद्धु - (भाग-2)

मॉटरनी का बुद्धु (भाग-2)

भूपेंद्र का जवाब सुन वो खिलखिला कर हँस दी और वो उसे देखते ही रह गए। आजकल की भाषा में सोचे तो मैगी जैसे बाल थे हल्के भूरे रंग के, रंग कुछ ज्यादा ही सफेद था और आँखे सुंदर तो थी पर ज्यादा बड़ी नहीं थी। मुस्कुराते हुए दोनो गालो में पडने वाले गड्डे देखते ही बन रहे थे। अगर लड़की से पिटने का इरादा नहीं तो घूर क्यों रहे है, भूपेंद्र जी को अपनी और एकटक निहारते देख वो चिल्लाती हुई सी बोली और आगे चलने लगी, उसे जल्दी थी अपनी सहेलियों के पास जाने की.....पर शायद ज्यादा शॉपिंग करने की वजह से उससे सब संभल ही नहीं रहा था। भूपेंद्र जी अपनी पहली मुलाकात को याद करने में इतना खोए हुए थे कि कब संभव आ कर अपनी माँ के पैरो की तरफ बैठ गया, उन्हें पता ही नहीं चला।"मॉम कल मेरा इंटरव्यू है जल्दी उठा देना, दिल्ली का ट्रैफिक तो मालूम है न आपको, पापा को भी बता दिया है....आप भी याद रखना", कहते हुए उसकी आँखो में आँसू आ गए जिन्हें देख कर वो भी अपने आप को रोक नहीं पाए पर फिर भी बेटे के कंधे पर हाथ थपथपाते हुए बोले, "बेटा रोते नहीं हैं, तुम्हारी माँ हम सबको सुनती है, उसे भी तकलीफ होती है"। पापा के गले लग कर रोते हुए बोला," पापा हमारी मॉम के साथ भगवान ने ऐसा क्यों किया वो तो सबका ध्यान रखती थी न, अब चुपचाप हमें रोते हुए सुनती हैं बस, आँखे भी नहीं खोलती। आप उनको बोलो न जल्दी से ठीक हो जाएँ"! " वो जल्दी ठीक हो जाएगी, उसने बहुत काम किया है न बस थोड़ा आराम ज्यादा कर रही है पर जल्दी ही ठीक हो जाएगी, फिर हम सब घूमने जाँएगे"। भूपेंद्र जी ऐसे ही अपने आप को और बच्चों को सालों से संभालते आए हैं। कुछ देर बातों से मन बहलाया अपना भी और बेटे का भी....उसके बाद वो पलंग पर लेट गए। हमेशा की तरह अपना तकिया बीवी के तकिए के साथ लगा कर और एक हाथ उसके ऊपर रख आँखे बंद कर ली। ये जो यादें होती है न चाहे वो अच्छी हो या बुरी अकेले में बहुत परेशान करती हैं। जब भी भूपेंद्र जी को अपने काम से फुर्सत मिलती है, कुछ न कुछ याद आ ही जाता है। जैसे ही पलंग पर लेटे फिर यादों की रील वहीं से शुरू हो गयी जहाँ पर संभव के आने से रूके थे। उस लड़की को मुश्किल से सब सामान को ले कर चलते देख वो झट से उसके पास पहुँच गया। " सुनो झाँसी की रानी, अगर मदद लेने में शर्म न आती हो तो मैं आपका सामान पकड़ लूँ"। अंदाज अलग था तो लडकी को पसंद आया और बोली, " नेकी और पूछ पूछ", कह उसने सारा सामान उसके हाथ में पकड़ा दिया और वो मुस्कुरा कर उसके साथ साथ चलने लगा। अब क्योंकि लडकी की नजर में लड़का थोड़ा अलग था तो उसने बात करने के लिए पूछा, "मेरा नाम संध्या है, आपका नाम क्या है"? "मेरा नाम भूपेंद्र है। क्या करते हैं आप? मैं M.A कर रहा हूँ मैथ्स में और आप क्या करती हो संध्या"? "मैं ग्रेज्युएशन कर रही हूँ, 2nd year वो भी आर्टस स्ट्रीम"! दोनो की बातों का सिलसिला रूक ही नहीं रहा था। उसकी सहेलियाँ भी नहीं मिल रही थी तो दोनो एक जगह देख कर बैठ गए। "अगर आपको देर हो रही है तो आप जाओ", संध्या ने कहा तो वो बोला, "नहीं आप की दोस्त मिल जाएँ फिर चला जाऊँगा"। बातों ही बातों में पता चला की वो दिल्ली की रहने वाली है, बहुत अच्छे कॉलेज में पढती है। भूपेंद्र ने भी बताया कि वो BHU में पढता है और उसके पिता किसान हैं, यूपी के ही एक छोटे से गॉव का रहने वाला है। मोबाइल फोन तो हुआ नहीं करते थे तब और घर का फोन नि माँगने की हिम्मत उनमें थी नहीं सो सहेलियों के आते ही अपने अपने रास्ते चल दिए। दोनो के वापिस जाने का दिन एक ही था, वो लोग भी पहले दिल्ली जाने वाले थे और उसके बाद आगे। यानि एक ही ट्रैन से सफर करना था, बहुत सुंदर इतेफाक लगा भूपेंद्र को। कालका रेलवे स्टेशन इतना बड़ा नहीं था कि वो एक दूसरे से मिल न पाते।
लडकियों के झुंड में भी उसने पीछे से ही संध्या को पहचान लिया था उसके बालो की वजह से। "झाँसी की रानी", भूपेंद्र ने मौका देख कर आवाज लगायी बिल्कुल उसके पीछे जा कर हालंकि थोड़ी दूरी बना कर रखे हुए था। संध्या आवाज की डायरेक्शन ने मुड़ी तो वो पीछे ही खड़ा था। दोनो ने हाय हैलो किया और उनको हाय हैलो करते देख उसकी सहेलियों ने आँखो ही आँखो में न जाने क्या इशारा किया कि सब एक साथ हँसने लगीऔर भूपेंद्र को गहरी नजरों से देखने लगी तो वो सकपका गया। संध्या ने अपनी 2-3 खास सहेलियों से मिलवाया। 5'11"का लड़का सबके लिए कौतुहल का विषय था ऊपर से हरी और भूरी सी आँखे, लंबी नाक कुल मिला कर वो अच्छा दिखता था। कई लड़कियाँ उसके कॉलेज की उसे पसंद करती थीं, पर उसका पूरा ध्यान बस अपनी पढाई पर था। अपने ऊपर इतना कंट्रोल रखने के बाद भी भूपेंद्र का दिल संध्या के लिए धड़क ही गया था। रास्ते में दोनो ने ट्रेन में बातें करने का रास्ता बना ही लिया। काफी बातें हो गयी थी, सफर खत्म होने वाला था। जहाँ भूपेंद्र को उसकी खूबसूरती और हिम्मत भा गयी थी वहीं संध्या को उसकी हाजिर जवाबी अच्छी लगी। उसने दोस्ती का हाथ आगे बढाया तो भूपेंद्र ने वो हाथ खुशी खुशी थाम लिया। भूपेंद्र को उसने अपने घर का नं दिया और हर संडे को शाम को 4 बजे बात किया करेंगे तय कर लिया। भूपेंद्र फूला नहीं समाया क्योंकि ऐसे किसी से उसकी दोस्ती कभी नहीं हुई थी। भूपेंद्र का तो अपना नं था नहीं सो वो अपने दोस्त के घर से ही उसे फोन कर सकता था। अपनी अपनी जगह पहुँच कर दोनो अपने रूटीन में मस्त हो गए, हर रविवार को 5-10 मिनट ही चाहे बात करते पर हालचाल पूछ लेते। फिर जब पेपर आने वाले थे तो दोनो ने कुछ दिन बात करना बंद कर दिया।भूपेंद्र के दोस्त उसे समझाते कि, "दिल्ली की लड़कियाँ बहुत तेज होती हैं, फिर ये तो अमीर भी है, फ्यूचर के सपने मत देख, दोस्ती तक तो ठीक है पर प्यार मत करने लगना"। अब भूपेंद्र क्या कहता? उसे तो उससे प्यार पहली ही नजर में हो गया था, पर संध्या ने ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे वो समझता कि वो भी उसे प्यार करती है, इसलिए वो भी दोस्ती ही काफी है सोच कर खुश होता रहा......!!
क्रमश:
स्वरचित एवं मौलिक