तुषार सिद्धार्थ का एकमेव दोस्त जो उसे समझता है, जानता है।
तुषार क्रिष्णा स्वामी का बेटा और बालन स्वामी का पोता था किसी जमाने में बालन स्वामी के पास १२ एकर जमींन थी।
दो बेटे राजन स्वामी और कृष्णा स्वामी, राजन स्वामी को पढाई लिखाई में कुछ ज्यादा रूचि नहीं थी फिर भी दाँट-दपट के बालन ने उसे १० तक पढाई करवाई।
राजन मन का भोला पंडित अपने छोटे भाई कृष्णा से बेहद प्यार करने वाला।
राजन को भले ही रूची न हो पर कृष्णा को पढाई में रूचि होने के कारण १० के बाद गाव के बाहर जाकर चेन्नई विश्वविद्यालय से उसने सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की पढाई की और आईटी कंपनी में छोटीशी नौकरी से आज वो
डाटा एनालिस्ट की पोस्ट पर जाकर बैठ गया।
उसी बिच उसने मेघना नाम की अपनी को वर्कर के साथ शादी करली ये बात बालन स्वामी को पसंद नहीं आयी।
पर वो करते भी क्या? उन्होंने बेटा पढ़ा-लिखा है और समझदार भी यह सोचकर बात को वही टाल दिया।
राजन को कृष्णा से कोई मलाल नहीं था पर नाराजगी जरूर थी की वो शहर की चकाचौंध में गाव की मिट्टी को भूल रहा है।
शिक्षा आपको बुद्दि प्रदान कर सकती है, अनुभव नही।
राजन के पास अनुभव था कि लोगों के साथ कैसे व्यवहार किया जाता है कृष्णा के पास अनुभव था कि मशीन से कैसे व्यवहार किया जाता है। उसके पास भावनाओ की बजाय बौद्धिकक्षमता ज्यादा थी।
राजन को मर्द का स्वाभिमान ऐसा कुछ महसूस हो सकता था लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
शादी के दो साल बाद कृष्णा गाव मिलने आया।
शिवांगी राजन की पत्नी तुषार के प्यार में पड गयी।
राजन को कोई संतान नहीं हुई। इसलिए उनके लिए तुषार उनके बेटे से कम नहीं था। यही एक कारण था दो भाइयो में कभी मलाल या बंटवारे की बात नहीं हुई।
तुषार ने जब इंजीनियरिंग की जगह नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ फोटोग्राफ से स्नातक किया यह बात पता चलते ही क्रिष्णा ने उसे घर से खदेड़ दिया तब
उसकी मदत राजन ने ही की घर से निकाले जाने पर शरण देने के लिये।
वही से तुषार की जर्नी शुरू हुई। तुषार ट्रेवल एजेंसी को जाके मिला पार्ट टाइम जॉब के लिये। वही उसे सिद्धार्थ मिला और बस दोनों चाय में शक्कर की तरह घूल गये। तुषार ने सिद्धार्थ का उस वक्त भी साथ दिया जब सिद्धार्थ को लगा यह सब मुश्किल है। यहाँ तक की सिद्धार्थ की मेन्टल कंडीशन को समझते हुए भी उसे आखिर तक पहुचाने वाला एक अजनबी कब उसका राजदार बन गया पता ही नही चला।
सिद्धार्थ को कभी कोई दोस्त नहीं मिले जब हम अकेले हो तो भगवान किसी ऐसे को अपने लिए बनता है जो हमे पूरी तरह पुरा करदे।
वो हमेशा प्यार ही हो ऐसा नहीं है वो दोस्ती भी हो सकती है। बशर्ते दोस्ती की हदे पता हो।
अगर एक रिश्ता अंदर तक धस्ता गया तो उस रिश्ते की खामिया हमे एक बार फिर उस रिश्ते पर रौशनी डालने पर मजबूर कर देती है।
ऐसा ही कुछ हुआ चित्रा और सिद्धार्थ के साथ।
इसलिए सिद्धार्थ और तुषार ने पहले ही अपनी जगह दोस्ती में तय करली कब तक और क्यों?
इसलिए उनकी दोस्ती में खराश पैदा ही नहीं हुई।
आज कल की युवा भाषा में कहा जाए तो "पर्सनल स्पेस।" जो काफी हद तक जरुरी है।
आम तौर पर सिद्धार्थ जैसे लोगो के लिए।
वाचक का यही कहना होगा की कहानी अगर सिद्धार्थ की है तो तुषार की कहानी बताने का क्या मतलब?
जब कोई भी शख्स कामियाब होता है तो वो अकेला जीत नही हासिल कर पाता, उसके पीछे वो तमाम शख्श होते है, जो उसे जाने-अनजाने आगे तक पोहचता है।
आज सिद्धार्थ जहा है, उसका श्रेय जितना उसके माता पिता और चित्रा को है उससे भी कही ज्यादा श्रेय तुषार को जाता है।
सिद्धार्थ बाथरूम से बाहर आया।
चित्रा अपने फ़ोन में कुछ देखकर मुस्कुरा रही थी।
तभी सिद्धार्थ उसका ध्यान खीचते हुए बोला।
हमे यह रूम खाली करना है। अरे ऐसे कैसे अभी तो हम उठे है और अभीभी चलना है।
" कंजूस सिर्फ एक ही रात के पैसे भरे थे?"
"4000" सिद्धार्थ दांत कड़काते हुए फुसफुसाया पर रागिनी ने सब सुन लया।
"चार हजार!"
"एक रात का 4000?"
"जब मन करे यहा से निकल जाना, मै अभी जाता हूं।"
सिद्धार्थ कुछ नही बोला।
"चला गया, मुझे भी निकलना होगा।"
सिद्धार्थ सीढ़ियों से नीचे उतरा रागिनी भी उसके पीछे-पीछे नीचे उतरी।
काउंटर पर मालिक बैठा था। पान का लाल पीक उसके ओठो के किनारे से बाहर निकलने की कोशिश कर रही था।
सिद्धार्थ को देखते ही मालिक ने पीकदान में पीक थूक सिद्धार्थ पर सवाल दागे।
"अरे क्या साहब कैसी बीती रात? पैकेट का बराबर से इस्तेमाल तो किया ही होगा?"
"और चादर वादर की बिल्कुल परवाह मत कीजिए हमारा छोटू सब मे माहिर है।"
सिद्धार्थ एक टक मालिक को घूरे जा रहा था। जिस क्रोध से उसे वो देखे जा रहा था जैसे अभी धरती के छह और मन करे तो बारा फिट नीचे गाड़ देता।
"चार हजार दिए ना, अब मुह बंद करो अपना।"
"कहा sign करनी है वो बताओ?"
सिद्धार्थ ने अपने गुस्से को काबू में रखते हुए पूछा।
मालिक बुक आगे करते हुए
"लगता है कॉर्पेराशन बराबर नही हुआ है?"
रागिनी को कुछ समझ मे नही आ रहा था लेकिन अब धीरे धीरे आयने की तरह सब साफ होने लगा था।
"लडकिया होती ही ऐसी है, पहले मूड बनाना फिर एन मौके पर मूड ऑफ कर देना।"
मालिक उन्हें सस्ते से होटेल में अपने प्रेम की तृष्णा बुझाने वाले आशिको में से एक समझ रहा था।
अब रागिनी का माथा उसी तरह से ठनका जिस तरह से कुछ देर पहले सिद्धार्थ ठनका था।
"अरे साहब क्या हुआ? गुस्सा क्यों हो रहे है?"
"नहाने के लिए शावरजेल भी तो रखे थे, ताकि सुगंद में रात बीते।"
"गुड मॉर्निंग बेबी, कैसे हो?"
सिद्धार्थ के अचानक रोंगटे खड़े हो गए, वो असमंज में था कि रागिनी को आखिर क्या हुआ है।
"शादी के पाँच सालो बाद पहली बार कितनी अच्छी रात बीती है।"
"हा शादी!" मालिक और सिद्धार्थ को एक ही प्रश्न सताया लेकिन मन मे ही।
उसके बाहों से अपना हाथ छुड़ाते ही मानो सिद्धार्थ के साँस में सास आयी।
"क्या बताऊ भाई साहब, हम दोनों लंदन में रहते हैं।
शादी को तीन साल हो गए पर एक भी बच्चा नही इसलिए मेरे मामा विरेंद्र वर्मा आईपीएस ऑफिसर ऑफ उत्तरप्रदेश आप तो जानते ही होगे उन्हें, सुझाव दिया की इंडिया में वेकेशन पर आकर देखो।"
"इसलिए अभी फिलहाल मामा के घर ही रुके है। कल ऐसे ही गंगा आरती के लिए निकले तो इन्होंने कहा, यहा ठंड को कम करने वाली बियर पास में मिले या ना मिले गम भुलाने वाली भांग जरूर मिल जाएगी। ("मैंने कहा!", सिद्धार्थ ने मन में ही सवाल किया।) बस क्या एक के जगह दो पी लिए फिर क्या मामा के घर ऐसे जाते तो लोग क्या कहते भला इसलिए बेबी मुझे यहाँ लेकर आया लेकिन....."
"लेकिन?" मालिक ने जिज्ञासा एवं घबराहट से पुछा।
"लेकिन अभी मामा को बुलाना ही पड़ेगा यहां, ताकि में मामा की जीप से घर जा सकू।"
"चार हजार तो बहोत होते है ना..." रागिनी ने रुआँसे शब्द में कहा।
"अरे भाभी जी आप क्यो परेशान होती है, एक रात के कोई 4000 रुपया लेता है सिर्फ 800 रुपया लगा है। भैया ने अगर बताया होता कि आप पतिपत्नी हो तो मामाश्री को तकलीफ लेने की जरूरत नही पड़ती।"
"ड्रावर से 3200 रुपए निकालते हुए यह लीजिए भाभी बिंदास से टैक्सी लेकर जाईये कहे तो छोटू से टैक्सी बुलवा दु।"
"नही भैया हम चले जायेंगे, मामा को फोन भी तो करना होगा ना, वरना यहा पोहच गए तो बस 100 सवालो की लडिया छोड़ देंगे।"
"हा... हा... फिर आइएगा।"
"हा क्यो नही भैया, जरूर आयेगे।"
दोनों के वहा से निकलते ही...
"पुलिस की बला टली सब भोलेबाबा की ही कृपा है।"
रागिनी और सिद्धार्थ बाहर आते ही...
"कैसी लगी एक्टिंग?"
सिद्धार्थ अपनी वही सड़ी- फटी शक्ल बनाते हुए
"माइंडब्लोइंग!" शब्द कहने के लिए कहा जाए तो प्रशंसक लेकिन सिद्धार्थ के मुँह से मानो वो व्यंग लग रहा था।
रागिनी का एकाएक गर्व चूर-चूर हो गया अपने मुँह का पाउट बनाते हुए दबे आवाज में फुसफुसाई "खड़ूस।"
"चलो मै तुम्हे घर छोड़ देता हूं।"
"नो थैंक्स।" रागिनी बचकानी गुस्से में बोल उठी।
लेकिन सिद्धार्थ तो मानो पत्थर का दिल थोड़ा भी नहीं पिघला और वहां से जाने लगा।
यह देख रागिनी की आंखें बड़ी हो गई, "रुको मेरे लिए, अरे गांधीजी के अनुयाई कितना तेज चल रहे हो।"
आखिरकार रागिनी ने सिद्धार्थ की पेस पकड़ ही ली दोनों साथ-साथ घर की तरफ चलने लगे।