moon splints in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | चाँद की किरचें

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चाँद की किरचें

बरसों पहले की याद उसे कुछ ऐसे आने लगी जैसे कोई गड़गड़ाता बड़ा सा बादल का भयंकर शोर मचाता टुकड़ा मन के आँगन में टूटने की तैयारी में हो | दो निस्तब्ध सूनी आँखों में न जाने क्या भरा था ? वेदना ? असहजता ? भय ? या किसी अनहोनी को सहने की तैयारी करती बेचारगी ?

वह जीवन के सत्य से परिचित थी, बड़ी शिद्द्त से स्वीकारती भी थी बहुत पहले से | किंतु सोचने और स्वीकारने में इतना बड़ा फ़र्क है जैसे समतल और पर्वत की ऊँचाई में ! उसने ऐसे तो कभी सोचा ही नहीं था या ऐसे वह कभी सोच ही नहीं पाई थी या शायद मुख छिपा लेना किसी भी कष्ट का सामना करने से अधिक सरल उपाय है |

कभी लगता है ये रहा सामने पर्वत -- अभी इसकी चोटी पर चढ़कर पताका फहरा देंगे लेकिन जैसे-जैसे मोड़ों से गुज़रती चलती है ज़िंदगी, वैसे-वैसे मन की सीढ़ी टूटने की कगार पर आकर बुरने लगती है | संभवत: ऊपर चढ़ने के प्रयास में साहस की ऑक्सीज़न धोखा देने लगती है और बेहद भयंकर सुर में पगडंडी चीख़ने, चरमराने लगती है |

सूनी आँखों से एकटक एक ही दिशा में घूरते हुए पलक झपकना भूल, न जाने कहाँ घूरती रही वह | प्रश्न था वह थी कहाँ ? कौनसा अनजाना देश था ? कौन सा परिवेश था ? कौनसी ज़मीन थी ? और था कौन सा दयार ?

यह एक शाश्वत सत्य था जिससे वह जूझ रही थी, पहले भी जूझी है, कई औरों के लिए, आज स्वयं के लिए | इस दुनिया में जन्म लेने वाला हर आदमी जूझता है, वह कोई अनोखी नहीं | आदमी जूझता है, लड़खड़ाता है और फिर से टूटकर जुड़ने की कोशिश करता जुड़ ही जाता है, बेशक़ दिली ज़मीन पर जुड़ने की खरोंच ताउम्र साथ-साथ घिसटती रहें |

पति-पत्नी का दोनों का एक साथ अस्पताल में दाख़िल होना, एक की हिलती हुई जिस्म की दीवार का अचानक न जाने कौन से सीमेंट से जुड़ जाना और जो ताउम्र हँसता, खिलखिलाता रहा हो जिसकी जिस्मानी दीवार से लोग ईर्ष्या करते हों !उसका अचानक ढह जाना --!!

न, इसमें उम्र की बात बीच में नहीं आती | इसमें बात है समय की ! यह समय ही तो है जो न जाने आदमी को कहाँ से कहाँ खींच लाता है ! अच्छा-भला खिलखिलाता आदमी मिनटों में न जाने कौन सी दुनिया का वासी बन जाता है |

जब उसे अस्पताल से घर ले जाने की छुट्टी दे दी गई और दे क्या दी गई डॉक्टर्स उसकी बेटी को कई दिनों से उसे घर ले जाने की बात कर रहे थे | उन महाकाय मशीनों को देखकर वह उलझन में थी, कैसे छोड़कर जाए एक साँस लेते हुए आदमी को ? एक ऐसे जिस्म को, मन को -- जिसके साथ उसने जीवन का सभी कुछ तो साँझा किया था |

उसे समझ आना ही था कि कुछ असमान्य तो है ही लेकिन मौत कहाँ असमान्य है ? जैसे जन्मती है, वैसे ही मृत भी हो जाती है | जानती थी उसका वहाँ से ले जाना दरसल उसको धोखे में रखने के लिए था लेकिन कितने दिनों के लिए ? यह कुछ पक्का न था | शायद उसके ख़ुद के शरीर की हिफ़ाज़त के लिए डॉक्टर्स उसे उस वातावरण से बाहर निकालना चाहते थे |

वह गूँगी हो गई थी, शिथिल भी | मुख पर शायद कोई गोंद, या शायद फ़ैवीकोल जैसी चीज़ चिपकाना ज़रूरी था | हाय -तौबा मचाने से कुछ हासिल कहाँ होने वाला था ? ऐसे ही थोड़े ही कहा जाता है;

वही होता है जो मंज़ूरे-ख़ुदा होता है ---अब ख़ुद को तीसमारखाँ समझें तो बेशक समझते रहें |

उसकी कगार ढह गई थी और वह बरसों पीछे किसी अनजान देश की धरती पर जा खड़ी हुई थी जो उसके सामने आज भी कुछ यूँ ही बोलती सी लगने लगी थी | और पल भर में चाँद के टूटने की ख़बर आ गई थी|

वह निस्पंद थी, निर्विकार भी ! वह कोई साध्वी नहीं थी, आम इंसान थी, सारे अँधेरे-उजालों के बीच से गुजरने वाला एक आम इंसान ! जिसे इस घड़ी में भी वर्षों पूर्व की याद ने किसी और शिला पर घसीटकर पटक दिया था जैसे कोई धोबी ज़ोर-ज़ोर से मोटे, ढीठ कपड़ों को नदी किनारे पटक-पटककर नहीं धो देता ? कुछ ऐसे ही ! लेकिन कपड़ा फट जाता है कभी-कभी, साफ़ ही नहीं होता | उसे नहीं पता, वह कितनी मैली थी, कितनी साफ़ !! किंतु वह भीतर से चीथड़े-चीथड़े हुई जा रही थी | बिना दम का ऐसा कपड़ा जो ज़रा सा हाथ लगते ही कत्तर बन सकता था |

आज अचानक उसे क्यों याद हो आया वह दिन जब अपने अस्तित्व से बेख़बर कोने में ज़मीन के एक टुकड़े पर बैठी वह जैसे किसी अनजान लोक में थी | आँधियों की आवाज़ को दूर से अपने पास आते हुए सुनती हुई, एक अजीब सी स्थिति में अपने ही दिल की धड़कन सुनती हुई | जैसे कभी कोई धौंकनी शोर मचाने लगे या फिर अचानक नीरव स्तब्धता दिमाग़ की नसों को चीरती हुई गुज़रने लगे |

पल भर में अस्तित्व के टुकड़े होते देखता है मन ! भीगी बारिशों से निकलकर सूखे की निस्तब्ध चपेट में आ बिसुरना बड़ी आम बात है जैसे --!

"ये, थोड़ी सी कॉफ़ी पी लीजिए ---" सामने सुहास था |

"टेक इट इज़ी ---प्लीज़ --हैव सम सिप ----"

उसने सुहास के हाथ से डिस्पोज़ेबल ग्लास पकड़ लिया | उस दिन उसके हाथ काँप भी नहीं रहे थे | दो-चार घूँट में ही उसने कॉफ़ी हलक के नीचे उतार ली, पाँचवी मंज़िल पर नीचे से आते-आते कॉफ़ी पानी हो गई थी |

सुहास को महसूस हो गया शायद वह कोई पूजा सी कर रही थी मन ही मन लेकिन वह जानती थी, उसके मन में बोले जाने वाले श्लोक एक दूसरे में गड्डमड्ड होकर कुछ और ही बन रहे थे, अर्थहीन !

कहते हैं, श्लोक व मंत्रों का पाठ शुद्ध होना चाहिए, उसने मुख में जपने वाले मंत्रों या श्लोकों पर एक विराम लगाने का व्यर्थ सा प्रयत्न किया और महसूसा कि मुख में तो नहीं, मस्तिष्क में कुछ वैसी ही कैसेट सी चल रही थी जिसका बजना बंद ही नहीं हो रहा था |

प्रेम, उसका देवर आई.सी.यू में था और वह उसकी कुशलता के लिए कुछ पाठ करना चाहती थी लेकिन घबराहट या उत्सुकता या यों कहें कि घबराहट भरी बेचैनी उसे कुछ भी करने नहीं दे रही थी | उसकी देवरानी भी साथ ही थी लेकिन अपनी ननद के साथ वह उसको उस 'सूट' में छोड़ आई थी जो उन्होंने वहाँ ठहरने के लिए लिया था |

ननद के बेटे सुहास के साथ वह अस्पताल में थी, उसे परिवार में सबसे बहादुर समझा जाता था लेकिन इस तथ्य से केवल उसके पति ही परिचित थे कि कोई भी अनहोनी घटना के बारे में सुनकर उनकी पत्नी सबसे पहले 'वॉशरुम' भागती थी फिर कहीं वह पूरी बात सुन, समझ पाती थी | हाँ, रक्तदान में वह सबसे आगे थी | जहाँ किसीको रक्त देना होता, वह किसी भी परिस्थिति में वहाँ पहुँचने का प्रयास अवश्य करती | कल, यहाँ भी 'ब्लड डोनेट' करके आज इस कोने में बैठी थी, उस अँधियारी, भयभीत कर देने वाली रात में ! जबकि उसकी ननद और देवरानी मारे घबराहट के काँपती रह गईं थीऔर उनका रक्त लेने की मनाही हो गई थी |

बेचारा सुहास बोर होने लगा तो डस्टबिन के पास जाकर सिगरेट पीने लगा, उसकी ओर से चेहरा घुमाकर ! उससे कुछ वर्ष ही छोटा था लेकिन रिश्ते में तो उसका बेटा ही था | खिड़की के स्लाइडिंग शीशे को खोलकर उसने रात के अँधेरे में कुछ खोजने की कोशिश भी की, शायद कोई किरण ! मगर घुप्प अँधेरे में उसे काले बादलों के मंडराते गोल छल्लों के अतिरिक्त कुछ भी न दिखाई दिया | उसने देखा, सुहास उस बड़े हॉल से खुले स्थान में चहलकदमी करने लगा था |

अचानक उसकी दृष्टि उस हॉल के दरवाज़े पर गई जो आई.सी.यू की लॉबी में से बाहर की ओर खुलता था | कोई लंबी, खूबसूरत मद्रासी सभ्रांत युवा महिला उस दरवाज़े को ठेलकर अपने आँसू पोंछते हुए उसके सामने से गुज़रते हुए सामने दूरी पर बने 'वॉशरुम'की ओर जा रही थी |

उसका दिल धड़कने लगा, शिथिल पैरों से खड़ी होकर वह भी वाशरुम की ओर बढ़ी | कितनी सुंदर और युवा थी वह महिला ! वॉशबेसिन पर आईने के सामने खड़ी वह अपने चेहरे पर चुल्लू से पानी के छींटे उछाल रही थी किन्तु आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे | गोरी-चिट्टी होने के साथ ही उसके चेहरे की प्राकृतिक ललाई ने उसे यह सोचने के लिए मज़बूर कर दिया कि काश्मीर की ख़ूबसूरती का ठहराव उसके चेहरे पर कैसे होगा ? क्षण भर के लिए वह अपने देवर के बारे में सोचना भूल गई |

"क्या हुआ?" उस अजनबी से पूछे बिना उससे रहा नहीं गया |

वह चुप बनी रही, उस रोती हुई ख़ूबसूरत महिला की सुबकियाँ और तेज़ हो गईं थीं और वह अपने आपको बेहद पस्त महसूस करने लगी थी | कैसे रोके उसकी खूबसूरत आँखों से फिसलते आँसुओं को ? वह एकदम अजनबी थी और उसे लग रहा था कि वह युवा स्त्री अकेली है |

"क्यों परेशान हैं आप?" उससे फिर न रहा गया |

"माय हज़्बेंड इज़ डाईंग एन्ड दे से ही इज़ सर्वाइविंग ---आइ नो--ही इज़ फ़ाइटिंग --" कहकर वह उसका मुख ऐसे ही आश्चर्य में खुला छोड़कर तेज़ी से वॉशरुम से बाहर निकल गई, तब उसे याद आया था कि वह भी तो ऎसी ही स्थिति में थी |

उस दिन सुहास ने उससे पूछा भी था कि क्या बात है ? और यह भी कि क्या हम उस अकेली स्त्री की कोई सहायता कर सकते हैं ? लेकिन वह मौन बनी रही थी | उसने अपने देवर को मोटी पाईपों के घेरे में देखा था और उसका मन तेज़ी से धक -धक कर रहा था |

कुछ ही देर बाद उस स्त्री को एक सफ़ेद कपड़ा ढके स्ट्रेचर के साथ अपने सामने से गुज़रते देखा था जिसे अस्पताल के दो सफ़ेदपोश कर्मचारी उस हॉलनुमा कमरे से बाहर ले जा रहे थे | स्त्री सधे हुए पैरों से स्ट्रेचर के साथ चल रही थी, शायद वह अनहोनी की होनी स्वीकार चुकी थी | अब उसके बारे में बात करने का कोई औचित्य नहीं था | उसकी एक मुट्ठी कसकर बंद थी न जाने उसमें क्या था ? शायद टूटा हुआ चाँद !

प्रेम को स्वस्थ्य, सकुशल घर लाकर सब बड़े प्रसन्न थे किन्तु वह उस स्त्री को बरसों नहीं भूल पाई थी | उसने किसी से ज़िक्र भी नहीं किया था, बस--कभी भी वह आकर उसकी स्मृति में ठिठक जाती थी जैसे कोई दरवाज़ा ठेलकर बाहर आए या शायद जैसे वह उस दिन आई.सी. यू का दरवाज़ा धकेलकर आई थी |

समय-चक्र की इस घुमावदार पहाड़ी पर आज वह गुम सी होकर खड़ी थी | उसके हाथ ही नहीं, आज उसका सारा अस्तित्व ही बुरी तरह काँप रहा था | उसके लिए एक अलग सा दिन उग आया था | भीतर से टूटे पायदान पर खड़ी वह शायद भविष्य की दहलीज़ तलाशने का व्यर्थ सा उपक्रम कर रही थी | आज उसे बरसों पुरानी घुप्प रात की वह युवा, खूबसूरत स्त्री फिर से क्यों याद आने लगी थी ? शायद इसलिए कि आज उसकी भी मुट्ठी कसकर भिंची हुई थी | अचानक उसके हाथ में चाँद की किरचें चुभने लगीं थीं |

डॉ. प्रणव भारती