Bhaibandh in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | भाईबन्द

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भाईबन्द

’प्रभा जी हैं ?’ दरवाज़े की घंटी बजाने वाला रमेश मिश्र है । लड़की को पूछ रहा है । उसके पीछे एक ठेले पर पंजर में से एक फ्रि़ज झांक रहा है । *नहा रही है’, मैं खांसती हूं । दमे की पुरानी मरीज़ हूं मैं ।

’फ्रिज़ कहां रखवाएं ?’ ठेले वालों को जाना है...।

’रोक लो उन्हें । नहा कर उसे आ जाने दो । वही आकर बताएगी, फ्रिज़ उसे लेना है या नहीं । और अगर लेना है तो फिर रखवाना कहां है ।’ घर के माल-मते और उसके रख-रखाव में मेरी दखलन्दाज़ी लड़की को सख़्त नापसन्द है, अपने बाप की तरह । सच पूछें तो उसके बाप के घर छोड़ कर भाग जाने के बाद ही से लड़की की अपने बाप के साथ समानताएं बढ़ ली हैं । अकेली खाती-घूमती है । सजती-संवरती है । और मुझ पर उसी के अन्दाज़ में चिल्लाती भी है ।

ठेले वाले को बाहर इंतज़ार के लिए रोक कर रमेश मिश्र अन्दर आ बैठा है ।

’फ्रि़ज यह लोन पर है या सेकेण्ड हैण्ड है ।’ मेरे फेफड़ों की जकड़न बढ़ आयh है ।

इससे पहले रमेश मिश्र लड़की को एक सेकेण्ड-हैण्ड स्कूटी दिलवा चुका है और एक कूलर। लोन पर, नतीजा घर का खर्चा मुझे देते समय लड़की का हाथ तिरछा हुआ करता है। और मुझे जौ-जौ का हिसाब रखना पड़ता है ।

’सेकेण्ड-हैण्ड है मगर हालत इसकी नए फ्रि़ज जैसी है । प्रभा जी क्या देर लगाएंगी?’

रमेश मिश्र अधीर हो चला है ।

’नहाने में, वह देर लगाती ही है, ’धड़ा बांधने का अच्छा मौका मेरे हाथ आन लगा है । ’उसके पुराने दोस्त भी तुम्हारी तरह उचाट हो जाया करते हैं...।’

’पुराने दोस्त ?’ रमेश मिश्र उत्सुक हो आया है । छोटी उम्र है उसकी । यही कोई बाइस-तेइस बरस । जिस स्कूल के पुस्तकालय में लड़की पिछले पांच सालों में बतौर सहायक के रूप में नौकरी पाई है, रमेश मिश्र ने बतौर फ़ीस बाबू अपनी पहली नौकरी अभी आठ-दस माह पहले ही शुरू की है ।

’हां । एक मनोहर लाल था । उधर पुराने पड़ोस में । घंटों डेरा जमाए रहता ।’ मैं उसे नहीं बताती, मनोहर लाल लड़की से ज़्यादा लड़की के बाप के संग उठता-बैठता था ।

’एक मनोहर लाल को मैं भी जानता हूं । कविता लिखते हैं । मगर वह पैंतालीस साल से कम नहीं....’

’नए पड़ोस में आए तो तुम्हारे ही स्कूल का जवाहर वशिष्ट लड़की से प्रेम जताते आ बैठा ।’ लड़की के बाप के घर छोड़ कर पड़ोसिन के संग भाग जाने के बाद हमें बदनामी से बचने के लिए पुराना मकान छोड़ना पड़ा था, ’जवाहर वाला किस्सा तो स्कूल भर में चर्चा का विषय भी बन गया था.....’

लड़की के साथ दूसरा नाम जोड़ने की मुझे जल्दी है । रमेश मिश्र को डरा कर भगाना है मुझे । लड़की की ज़िन्दगी से बाहर करना है ।

’जवाहर वशिष्ठ भी तो कवि हैं,’ रमेश मिश्र की आवाज़ डगमगायी है, ’अच्छे नामी कवि हैं....’

’अच्छे कवि होना एक बात है और अच्छे गृहस्थ होना दूसरी बात, ’मर्मस्थल की मेरी चोट टीस उठती है और खांसी छिड़ लेती है ।

’विवाहित हैं वह ?’ सब कुछ जान लेने की अभिलाषा तीखी है उसमें ।

’तीन बच्चे हैं उसके,’ खांसी के बीच मैं आगे बढ़ती हूं, ’पत्नी उसकी आयी थी मेरे पास । हाथ पैर जोडी । रोई । गिड़गिड़ायी । बोली, ’मेरे परिवार को तहस-नहस होने से बचा लीजिए दीदी । मेरे पति का अपने घर आना-जाना रोक दीजिए ।’

’रोक दिया आपने ?’

’हां, ’मैं खांसती हूं । रमेश मिश्र को नहीं बताती, जवाहर वशिष्ठ की पत्नी मेरे पास नहीं आयी थी । मैं उसके पास गयी थी । हाथ-पैर मैंने उसके जोड़े थे, उसने मेरे नहीं । रोई-गिड़गिड़ायी मैं थी, वह नहीं । मुझे डर था लड़की मुझे छोड़ भागेगी । अपने बाप की तरह । जो हमें किनारे ढकेल कर उधर कानपुर जा बसा था । पांच साल पहले । पड़ोसिन, सुलोचना वत्स के साथ । घड़ी-घड़ी मुझे लूटने के बाद । सौ तहों के नीचे छिपाए गए मेरे बक्से के सभी रूपए-पैसे बटोर कर चलता बना था जो मैं घर-खर्च से बचा कर जमा करती रही थी । चुरा ले गया था मेरी मां की दी हुई सोने की बालियां और चांदी की पाज़ेब ।

’जवाहर वशिष्ठ के बारे में तो इन्होंने मुझे कभी कुछ नहीं बताया’, रमेश मिश्र तमतमाया है, ’हां, मदन के बारे में ज़रूर सब बताया है...।’

’मदन ? कौन मदन ?’ मैं चौंक ली हूं ।

मkनो भर रहे किसी घाव का अंगूर तड़का है । एक मदन वह भी था जो चोचलहाई उसी सुलोचना वत्स का भाई था जिसने मेरा घर फोड़ा था ।

’आपके पुराने पड़ोस में रहता था । आपके घर की कोई एक खिड़की उसके घर के चबूतरे का रूख रखे थी...।’

’हां । मुझे याद है । पिछले बरामदे में रही एक खिड़की । लेकिन मैं बेखबर रही थी । उन सालों में पति की सिगरेट-बीड़ी ने मेरा दमा उग्र कर रखा था और मुझे कुछ भी देखने-सुनने की फुरसत न रही थी । पति ने सुलोचना वत्स को कितनी बार निहारा-सराहा था या फिर लड़की को मदन ने उधर से कितनी बार टेरा-गोहरा था । पूरा मेरा समय तब अपनी सांस की हांफ को दबाने में निकल जाया करता ।

’लेकिन वह मदन तो बहुत बीमार रहा करता था ।’ मैं खासती हूं । मदन की सूरत मेरे सामने आन खड़ी हुई है : क्षीणकाय व निरीह । सौतेली मां रही उसकी और सुलोचना वत्स की । झगड़ालू व कलह-प्रिय । उसके संग सुलोचना वत्स का बत-बढ़ाव ज़रूर कानों तक मेरे पास पहुंचता रहा था किन्तु मदन का कतई नहीं । मानो कोई चुप्पी लगी थी उसे ।

’हां । उसे कैन्सर था । और यह रोज़ उस के लिए कोई न कोई फल ले जाया करतीं...।’

’फल ?’ मैं हैरान हूं । लड़की के पास तब इतने रूपए रहे ही कहां जो वह बाज़ार जा कर उसके लिए फल खरीद सके ? अपने बाप से लेती रही क्या ? जो सुलोचना वत्स की लिहाज़दारी में ज्योनार बिठलाने को तत्पर रहा ?

’हां,’ रमेश मिश्र की जुबान घुमावदार हो चली है, ’और जब मदन अपनी बहन के साथ इलाज के लिए कानपुर ले जाया जा रहा था तो भी प्रभा जी ने उन्हें ढेर से रूपए दिए । कुछ आपके जेवर बेच कर और कुछ आपके बक्से से चुरा कर...’

लड़की ने छीजा मुझे, उसके बाप ने नहीं ? या फिर उस लूट में बाप-बेटी दोनों की साठ-गांठ रही ? झमाझम ?

मैं भौंचक तो हुई ही हूं, भयभीत भी ।

लड़की का खून सफ़ेद है । जान ली हूं अब । वह मेरी संगी नहीं । संगी अपने बाप ही की है ।

’और विडम्बना देखिए’, रमेश मिश्र की जुबान ने एक ख़म और खाया है, ’मदन बचा भी नहीं...।’

’कब हुई उसकी मृत्यु ? कहां हुई उसकी मृत्यु ?’ दहल और कुतूहल के बीच झूल रही मेरी हांफ़ ने मेरी छाती का भारीपन बढ़ा दिया है ।

बतासा सा कैसे घुल गया बेचारा !

’चार साल पहले । उधर कानपुर में जब उसके कैन्सर के साथ डॉक्टरों की हार-जीत हार में बदली तो उसकी बहन उसे कानपुर से इधर लिवा लायी । उसके अन्तिम दिन यहीं बीते, कस्बापुर में । प्रभा जी के साथ । बहन के साथ...’

’बहन कानपुर छोड़ आयी थी क्या ? यहां है अब ?’ काल-धर्म की चपेट में आयी यह सुलोचना वत्स नयी है मेरे लिए । शामत की मारी । शिक्स्ता ।

’जी । यहीं है । प्रभा जी से पहले मैं उन्हीं से मिला था । मदन कविताएं लिखता था और उसकी बहन से मिल कर छपवायी थीं । और छपते ही वे कविताएं साहित्य जगत में तहलका मचा गयी थीं । मेरे तो शोध-ग्रन्थ का एक पूरा अध्याय मदन पर केन्द्रित है ।’

’शोध-ग्रन्थ ?’

’समकालीन कविता पर मेरा शोध चल रहा है, ’ रमेश मिश्र लाट बन बैठा है,’ छात्रवृत्ति भी पाता हूं । मेरे साथ प्रभा जी भी शोध कर रही हैं । मेरी ही गाइड के साथ...।’

’प्रभा को भी छात्रवृत्ति मिलती है क्या ?’ मेरी सांस मेरे गले में अटकी जा रही है ।

’नहीं । वह प्राइवेट कर रही हैं । छात्रवृत्ति मिले न मिले, नाम तो प्रभा जी को मिल ही रहा है । कविताएं प्रभाजी की चर्चा में रहती ही हैं....।’

’क्या यह कविता लिखती है ?’ मेरी हांफ लौट आयी है । छाती कसती जा रही है । सांस घुट रही है । घरघरा रही है ।

मेरे हाथ अपने पफ़्फ़र की ओर बढ़ते हैं । अपने मुंह में मुझे एरोसोल दवा छिड़कनी पड़ रही है ।

’खूब कविता लिखती हैं । बहुत अच्छी कविता लिखती हैं । कहती हैं, कविता लिखनी और जाननी इन्होंने मदन ही से सीखी है...।’

’झूठ बोल रही है । सरासर झूठ,’ मैं ताव खा गयी हूं । अपनी हांफ के बीच उचरती हूं,’ कविता उसे विरासत में मिली है । उसके खून में घुली-मिली है । श्यामाचरण का नाम तो सुना होगा ?’

लड़की के बाप से मुझे लाख शिकायत रही, सो रही लेकिन कविता की दुनिया में उसकी ऊंची साख की मुझे पहचान तो है ही ।

’श्यामाचरण ? वह धाकड़ कवि ? कानपुर-निवासी ? वह प्रभा जी के पिता हैं ? और प्रभा जी ने मुझे बताया ही नहीं...’ रमेश मिश्र का रंग सफेद पड़ रहा....

’तुम उन्हें मिले हो ?’ मेरी सांस, मेरी हांफ रूक ली है ।

’पहले मिलता था । अब नहीं । जब से मेरी बड़ी जीजी उनके घर जा बसी हैं, हम लोगों ने उनका संग-साथ छोड़ रखा है ।’

’जानते हो ?’ मेरी सांस मेरे काबू से बाहर जाने लगी है ।

एसोसोल फिर से छिड़कती हूं, मुंह के भीतर ।

’बताइए,’ मेरी सांस लौटती देखकर रमेश मिश्र अपनी टकटकी मेरे चेहरे से हटा रहा है। माथे पर आया पसीना पोंछता हुआ ।

’हमारे पास से तुम्हारा वह धाकड़ कवि तुम्हारे इसी मदन की बहन के संग घर बसाने कानपुर के लिए निकला था....।’

’सुलोचना जीजी के साथ ?’ भौंचक्का रमेश मिश्र मेरा मुंह फिर से ताकने लगा है ।

’हां,’ मेरी हांफ़ हंसी में बदल रही हैं, भाईबन्द हो तुम मदन के....’

रमेश मिश्र उठ भागता है । और भागते समय फ़िज समेत ठेले वालों को भी संग ले उड़ता है ।

’कोई आया था क्या ?’ प्रभा नहा कर जब मुझसे पूछती है तो मैं कहती हूं, ’कोई नहीं.’

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