व्यंग्य
बुरे फंसे कार खरीदकर
यशवन्त कोठारी
पहले मैं बेकार था। अब बाकार हो गया हूंॅं। कार का रंग मेरे दिल के रंग की तरह ही काला हैं। कहते हैं कि काले रंग पर किसी की नजर नहीं लगती इसी कारण मैंने इस कार का रंग भी काला ही लिया हैं, मगर अफसोस कार खरीदते ही इस पर आयकर वालों की नजर लग गई।
आयकर वालों से नजर बचाई तो ट्ेफिक पुलिस वाले ने मुझ पर सीट बेल्ट नहीं बांधने पर जुर्माना ठोंक दिया जुर्माना भर कर आया तो कार को क्रेन उठाकर ले गई थी। वहां से निपटा तो पता चला कि जिस कम्पनी से कार लोन लिया था उसका दिवाला पिट गया है और वो अपने पुराने ग्राहकों से गाड़ियां वापस वसूल करना चाहती है। कार का किस्सा तो बस मत पूछिये मत। मेरी कार और पड़ोसियों का हाहाकार। पुरानी कार का मजा प्रोढ़ा नायिका सा आता है और नई नवेली दुल्हन की तरह सजी कार किसी मुग्धा नायिका या दुल्हन की तरह दिखती है। मगर जनाब मैं तो आपको अपनी काली कार क्र्र्रय करने का किस्सा शुरू से ही बयां करना चाहता हूं।
हुुुआ यों कि मेरा पुराना खटारा स्कूटर जब तब धोखा देने लग गया था। इधर कार लोन देने वाले रोज घर पर एक-दो फोन ठोंक देते थे। कॉल सेन्टर वाली गर्ल कार लोन लेने के लिए मुझे बार-बार फोन करती। मेरी अनुपस्थिति में मेरी धर्म पत्नी को कार लोन के फायदे समझाती, पत्नी को गहनों के बाद केवल कार की चिन्ता थी। अब वो अक्सर कहती -कार आ जाये तो मजा आये। मेरे भाईयों और देवरों के पास दो-दो कारे है, एक मैं ही अभागन हूं।
इस अभाग्य को सौभाग्य में बदलने में मेरे बच्चे भी मम्मी का साथ देते थे। लेकिन कार खरीदने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी क्योंकि अगर गरीब मास्टर कार खरीदे तेा फिर बड़े-बड़े डाक्टरों, इन्जीनियरों, उद्योगपतियों को तो हेलिकॉप्टर और हवाईजहाज खरीदना पड़ता। मैं उन्हें मुश्किल में नहीं डालना चाहता था। घर पर रोज एक लोकसभा जुड़ती और कार का प्रस्ताव पेश किया जाता। मुझे वोट देने तक का अधिकार नहीं था। मैं एक सामान्य श्रोता की तरह कार-पुराण का श्रवण करता।
इस लगातार किचकिच से तंग आकर एक दिन मैंने पूछा-
डाउन पेमेन्ट कहां से आयेगा।
धर्म पत्नी ने तुरन्त जवाब दिया-
तुम डाउन पेमेन्ट की चिन्ता छोड़ो। उसका जुगाड़ हम लोग कर लेंगे।
-लेकिन कहां से। मेरे इस प्रश्न पर सब हंस पड़े।
पापा जी डाउन पेमेन्ट हम अपनी पोकेट मनी, मम्मी की सेविंग और आपके लेखों की रायल्टी से करेंगे।
मैंने माथा ठोंक लिया मगर वे सब कब मानने वाले थे। इधर टीवी पर कारों के विज्ञापन लुभावने लगते थे। सुन्दर बालाएं सुन्दर सुन्दर कारों के मोडलों में बैठकर इठलाकर मुझे गुमराह करना चाहती थी।
कार लोन वालों ने एक दिन मुझे घर आकर घेर लिया और कई कागजों पर हस्ताक्षर करा कर ले गये। बाद में बच्चा, पत्नी और मैं शोरूम में गये तो पता चला कि कार का रंग भी काला ही मिलेगा। किश्त पांच हजार रूपया महीना लगेगी और कार भी चलाना हम में से किसी को भी नहीं आता था। ऐसी स्थिति में कम्पनी वालों ने बड़ी दया करके कार हमारे घर एक डाइवर के द्वारा छुड़वाने की व्यवस्था की । हम गणेशजी के मन्दिर तक गये। कार डाइवर और पुजारी की पूजा-अर्चना के बाद कार को घर ले आये।
घर में जो खुली जगह थी, वो कार के लिये कम थी और कार के लिए गेरेज बनाने की गुन्जाईश नहीं थी, अतः कार को खुले अहाते में ही रख देने का परिणाम ये हुआ कि पहली बारिश में ही कार पर ओले पड़े, मोचे पड़े और कार को डेन्टिंग, पेन्टिंग की जरूरत पड़ गई। इन्श्योरेंस वालों ने इस प्राकृतिक आपदा को कवर नहीं किया था इस कारण कार का यह खर्च भी मुझे ही वहन करना पड़ा।
अब मैंने कार सीखने की ओर ध्यान दिया। एक डाइविंग स्कूल में मैंने थ्योरी सिखी, एक अन्य स्कूल से प्रेक्टिकल तालीम ली। मैं क्लच दबाता तो ब्रेक दब जाता, ब्रेक दबाता तो एक्सीलेटर चल जाता। रोज सुबह पांच बजे उठकर मैं कार चलाने की असफल कोशिश करता।
लेकिन धीरे-धीरे अब मुझे भी मजा आने लग गया था। कार की सवारी करते समय मैं पूरी दुनिया को हिकारत की नजरों से देखता। मन मे कहता- दुनिया वालों देखेां हिन्दी का एक अदना लेखक भी कार वाला हो गया हैं। साहित्य में यह एक बड़ी घटना है, मगर अकादमी सुने तब ना। कार वाला साहित्यकार कोई मामूली साहित्यकार नहीं हो सकता।
कार अब मैं चलाने की स्थिति में आ गया था और एक रोज मैंने तय किया कि पूरे परिवार को बेैठाकर लोंग डाइव पर जाउ। सुबह से ही घर में उत्साह का वातावरण बन गया। नाश्ता, पानी की बोतलों, कोल्डडिंकस आदि की व्यवस्था का जिम्मा छोटे मियां के पास था। बजट की चिन्ता तो मेरी थी। सब ठीक-ठाक करके हम लोग चल दिये। नेशनल हाइवे पर पुलिस ने तुरन्त रेाका मेडम ने सीट बेल्ठ नहींे बांध रखा था, जुर्माना देकर आगे बढ़े तो किसी भी ट्रक वाले ने रास्ता देने से मना कर दिया। विशाल हाइवे पर हमारी कार बेचारी एक कोने में धीरे-धीरे रंेग रही थी। टक, डमपर, टेक्टर , बसों के सामने कार एक मक्खी सी लग रही थी। मगर मैं धीरे-धीरे कार चला रहा था। कार में हंसी मजाक था, कोल्ड डिंक था, नाश्ता था, हाईवे पर टेफिक था और मेरे दिल में कार का डर था।
जिधर से भी निकलता कार के कारण सर्वत्र पहचाना जाता। कार्यालय में मुझे काली कार और काले दिल वाले साहब के रूप में पहचाना जाने लगा। मोहल्लों में लोग मेरी कार देखकर एक तरफ हट जाते। समाज में मेरी कार एक हाहाकार थी जो कभी भी किसी को भी अस्पताल पहुंचाने की क्षमता रखती थी। एक-आध बार कार भिडी मगर कार का कुछ नहीं बिगड़ा। लोगों ने मुझे कार से उतारकर जुर्माना वसूल कर के छोड़ दिया।
मैं कार कम निकालता, मगर मेरा छोटा लड़का कार ही पर चलता। एक-दो महीनांे में ही मेरा घरेलू बजट गड़बड़ा गया। कार की किश्त, मकान की किश्त, आयकर कटौेती के बाद जो हाथ में आता उससे घर चलाना बड़ा मुश्किल था। कार से पेट की आग नहीं बुझ सकती थी। मैंने पत्नी से सलाह की और इस कार को आधी कीमत में बेचने का निश्चय किया। मगर ससुराल में कार से मेरी बढ़ी हुई इज्जत पत्नी खोना नहीं चाहती थी, इसलिए उसने कार बेचने के मेरे प्रस्ताव को विपक्षी नेता की तरह खारिज कर दिया।
कार धीरे-धीरे हमारे घर परिवार का सुख चैन छीन रही थी। कार की किश्त समय पर चुकाना मुश्किल होता जा रहा था।
एक दिन हम सब कार में बैठकर पिक्चर देखने गये। शो की समाप्ति पर वापस आये तो देखा, कार गायब थी। पता चला कि किश्त नहीं चुकाने के कारण फाइनेन्स कम्पनी के मुशन्डे कार उठाकर ले गये थे। हम टेम्पों में बैठकर घर आये। बहुत पछताये कार खरीद कर।
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