श्राप दंड - 6
" एक महीना बीत गया है। इन 1 महीनों में मैंने न जाने कितने दृश्यों को देखा उसे बोलकर नहीं बता सकता। केदारनाथ में मैं 3 सालों तक था। वहां पर रहते वक्त कई लोगों के साथ मेरा परिचय हो गया था। उसी वक्त एक पहाड़ी बुढ़िया के साथ मेरा परिचय हुआ। मैं तांत्रिक व साधु - सन्यासी हूं इसी लिए वो मुझे बाबा कह कर बुलाती थी। लेकिन वह बुढ़िया उम्र में मुझसे बहुत ही बड़ी थी। मैं उन्हें माताजी कहकर बुलाता था। वहां रहते वक्त उन्होंने एक दिन मुझे एक शीत पोशाक उपहार दिया था। वह पोशाक शायद किसी जानवर की खाल से बना था। भगवान की कृपा मुझ पर थी इसीलिए उन्होंने वह पोशाक मुझे दिया था आज मेरे शरीर पर वही पोशाक है। इस शीत पोशाक से भी यहां की ठंडी दूर नहीं होती। उस ठंडी को काबू करने के लिए मुझे योग मुद्रा का सहायता लेना पड़ा था। उस योग का नाम अग्नि मुद्रा है। इस मुद्रा को अगर सही तरीके से किया जाए तो शरीर में अग्नि हुआ सूर्य का प्रभाव बढ़ने लगता है। हमारे सीने से थोड़ा सा नीचे व नाभि से थोड़ा ऊपर एक चक्र है , जिसे मणिपुर चक्र कहा जाता है। हमारा शारीरिक स्वस्थ इसी चक्र पर निर्धारित है। जब यह चक्र दुर्बल हो जाता है तभी हम कई प्रकार की बीमारियों से घिर जाते हैं और यह योग मुद्रा इसी मणिपुर चक्र को दृढ़ बनाता है।
हिमालय में बर्फ से ढके इन पर्वतों के बीच में बहुत सारे योगी व साधु कई साल तक अपने शरीर में बिना कुछ ग्रहण किए साधना में लगे हुए हैं। यह केवल इसी अग्नि मुद्रा के द्वारा ही सम्भव है। यह मुद्रा शरीर में इतनी गर्मी उत्पन्न करता है कि ठंड से ठंड इलाकों में भी पसीना छूट जाए। लेकिन बहुत ही सोच समझकर इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए।
यहां पहुंचने के लगभग 10 दिन पहले, एक जगह मैं दो रात के लिए रुका था। उस वक्त बहुत जोरों की थकान और नींद ने मुझे घेर लिया था। असल बात यह है कि यहां पर सांस लेना बहुत ही कठिन है। योग बल के द्वारा किसी तरह मैं अब तक टिका हुआ था। जिस जगह पर रात बिता रहा था वह जगह इन पहाड़ी इलाकों के जैसा ऊंचा - नीचा नहीं है। वह जगह लगभग समतल ही था तथा उस जगह के पश्चिम का स्थल जंगली पौधों व झाड़ियों से भरा हुआ था। वो सभी जंगली पौधे दूर-दूर तक फैले हुए थे। वहां से एक अद्भुत भीनी - भीनी सुगंध भी आ रही थी। उस अद्भुत सुगंध से मेरे थके हुए शरीर को थोड़ा आराम मिलने लगा। पथरीले मिट्टी के ऊपर में बैठ गया था। उस सुगंध की वजह से मुझे लेटने का मन कर रहा था। बहुत सारी थकान के बाद ऐसी सुगंध से सभी कष्ट दूर हो रहे थे। आंख बंद होने लगा तथा नींद भी जोरो से आने लगी। मुझे यह सुगंध थोड़ा जाना पहचाना लगा। किसी तरह मैं शरीर की पूरी ऊर्जा से उठ कर खड़ा हुआ और उन जंगली पौधों की ओर गया। वो सभी जंगली पौधों ऊंचाई में ज्यादा बड़े नहीं थे। ऊंचाई में शायद मेरे सीने के बराबर होगा।
पास जाते ही समझ आया कि इस सुगंध से मैं परिचित क्यों हूं। देखकर पहचाना। वो सभी असल में भांग के पौधे थे। "
मैं बोल पड़ा ,
" भांग अर्थात गांजा का पौधा। लेकिन उस जगह पर ऐसा पौधा कैसे हुआ? और वो भी इतने सारे ? वैसे स्वर्गीय जगह पर ऐसी बेकार नशीली पौधे क्यों हैं ? "
तांत्रिक बोलते रहे,
" अरे हिमालय ही तो इन सभी दुर्लभ पौधों का घर है। और इस पौधे को तुम बेकार कह रहे हो, क्या तुम्हें पता है इसका असल नाम क्या है? इसका असल नाम विजया है। ऐसा नामकरण क्यों हुआ है इसका कारण शायद तुम नहीं जानते। देवादिदेव महादेव की पूजा सही प्रकार से करने हेतु कितनी सारी वस्तुएँ लगती है , क्या तुम्हे पता है? सब कुछ जानना तुम्हारे लिए सम्भव नहीं है। जितनी वस्तुएँ साधारण मनुष्य जानते हैं वो सभी हैं,, दूध, गंगाजल, बेलपत्र , धतूरा , बेल , कनेर का फूल इत्यादि। लेकिन इस भांग के पौधे का एक पूर्ण पत्ता अगर महादेव के उद्देश्य से सटीक पूजा पद्धति द्वारा अर्पण किया जाए तो इतनी सारी वस्तुओं की जरूरत नहीं पड़ती। केवल यही नहीं चिकित्सा शास्त्र में भी इसके कई गुण बताए गए हैं। अगर इस बारे ज्यादा जानना है तो कभी चरक संहिता पढ़ लेना। उसी में इस पेड़ को विजया नाम से उल्लेख किया गया है। कभी विजया शब्द का अर्थ किसी कीताब में खोजना और जो भी उत्तर मिले मुझे बताना। जो भी हो इसके बाद क्या हुआ बताता हूं।...
मैंने कुछ जंगली पौधों को उखाड़कर पत्थर पर बिस्तर जैसा गद्दा बना लिया। उसी रात मैंने उस अद्भुत दृश्य को देखा जिसने मुझे समझा दिया कि हिमालय कोई ऐसी वैसी जगह नहीं है। यहाँ के प्रत्येक कोने में कौन सा रहस्य छुपा है यह जानना अगर इतना सहज होता तो यह हिमालय नहीं होता। लगभग एक घंटा अग्नि मुद्रा योग करने के बाद ज़ब मैं लेटा उस वक्त आकाश में गोल चाँद चमक रहा था। चारों तरफ के छोटे - बड़े पहाड़ पर्वत चाँद की रोशनी से सराबोर हो गए हैं। यहाँ से बहुत दूर एक बर्फ से ढका एक बड़ा सा पर्वत दिखाई दे रहा है। बाद में मुझे उसका नाम पता चला था कि वह गुरला मंधाता पर्वत है। चारों तरफ कोई भी आवाज सुनाई नहीं दे रहा। मैं जहाँ पर लेटा हुआ हूं वहां से कुछ ही दूरी पर एक जलधारा बह रहा है। उसी की कल - कल करती आवाज मेरे कानों तक पहुंच रहा था। अचानक उधर देखते ही मैं आश्चर्य से पत्थर हो गया। पता है मैंने वहां क्या देखा ? यह केवल मैंने चित्रों में देखा था। मैंने देखा कि एक सफ़ेद जानवर उस बहते जल स्रोत के ऊपर सिर झुकाकर पानी पी रहा है। उसका शरीर किसी घोड़े के जैसा है। अचानक ही उस जानवर ने सिर उठाकर मेरे तरफ देखा। उसके नीले आँख इस चाँद की रोशनी में चमक रहे थे लेकिन उसके पीठ पर उभरा हुआ कुछ था। वह जानवर एकटक मेरे तरफ ही देख रहा था। मैं धीरे - धीरे उठकर बैठ गया। इतना सुंदर एक जानवर अपने जीवन में पहली बार देखने बाद खुद को संभाल नहीं पाया। मन कर रहा था कि उसके रेशम जैसे शरीर पर हाथ फेरकर थोड़ा प्यार दूँ। अपने स्थान से खड़े होकट मैंने जैसे ही उसके तरफ एक पैर बढ़ाया उसी वक्त वह जानवर भी अपने स्थान से थोड़ा पीछे चला गया। अब मुझे पता चला कि उसके पीठ पर आखिर उभरा हुआ क्या है। उस जानवर के पीठ के दोनों तरफ से एक जोड़ी बड़े पँख खुलने लगा। मेरे मुँह से अपने आप निकल गया।
' उड़ने वाला घोड़ा ' । इसके बाद अपने पंखो को फैलाकर वह जमीन से ऊपर आसमान की ओर उड़ गया, उसी तरफ ही जिधर मुझे जाना है अर्थात कैलाश की ओर।...
क्रमशः...