वर्तमान समाज में यदि कोई सबसे दयनीय प्राणी है तो वह है अध्यापक |और अगर वह किसी निजी स्कूल का हुआ तो और भी |वह इतना दबाव झेलता है कि क्या कहें ?एक तो स्कूल प्रबंधन का दबाव ,दूसरे अभिभावकों का ,ऊपर से आज के अनुशासन हीन बच्चे !इतना ही क्यों वर्तमान सरकार भी अध्यापकों पर निरंतर दबाव बनाती जा रही है |बच्चों के पक्ष में बने क़ानूनों ने बच्चों की स्थिति जितनी मजबूत की है ,अध्यापकों की उतनी ही कमजोर |बिगड़ैल बच्चे अपने पक्ष में बने क़ानूनों का बेजा फायदा उठाने में उस्ताद होते जा रहे हैं |वे कक्षा में पढे न पढे ,अनुशासन में रहे न रहें ,कोई अध्यापक उनसे कुछ नहीं कह सकता ,सजा देना तो दूर की बात है |बच्चों को शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से तकलीफ पहुंचाना भी अध्यापक को जेल पहुंचा सकता है और इस ‘तकलीफ’शब्द की अर्थव्यापकता बच्चों के कान उमेठने ,ज़ोर से बोलने या डाँटने तक है]
इसमें कोई शक नहीं कि बच्चों की सुरक्षा की दृष्टि से बने कानून जरूरी हैं पर अध्यापकों पर लगाए गए आरोपों की जांच के बिना उनके विरूद्ध कदम उठाना कहाँ का न्याय है ?
अभी कुछ दिन पूर्व एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल में पढ़ने वाले कक्षा पाँच के विद्यार्थी ने जहर खा लिया था ,जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गयी थी |मरने से पहले उसने एक चिट्ठी लिखी थी कि वह अपनी क्लासटीचर के द्वारा लगातार दी जा रही सजा के कारण ऐसा कर रहा है |पत्र के अंत में उसने रिक्वेस्ट किया था कि टीचर को सजा जरूर दिलाई जाय ताकि फिर कोई बच्चा उनका शिकार न हो |पाँचवी में पढ़ने वाले बच्चे की चिट्ठी मुझे प्रायोजित लगी थी पर पुलिस ,सोशल मीडिया ,अखबारों और जनता में उस अध्यापिका के प्रति आक्रोश उमड़ पड़ा |पूरी शिक्षक बिरादरी को ही निर्मम,हृदय-हीन,हरामखोर ,राक्षस,जल्लाद कहा जाने लगा |अध्यापिका न केवल गिरफ्तार की गयी बल्कि महिला थाने में उससे दुर्व्यवहार भी किया गया | टीचर गर्भ से थी इसके पहले उसका दो मिस कैरिज भी हो चुका था |अच्छी छवि वाली ममतामयी टीचर थी |वह इस घटना से शाक्ड थी |उसने उस दिन बच्चे को लगातार काम पूरा न करने के कारण [न तो उसे मारा-पीटा था ,न मानसिक पीड़ा ही पहुंचाई थी ,बस उसे बेंच पर खड़ा किया था |] क्या यह सजा इतनी बड़ी थी कि कोई बच्चा [इतना छोटा बच्चा ]आत्महत्या कर ले और वह भी बाकायदा चिट्ठी लिखकर |कुछ दिन की हाय-तौबा के बाद रहस्य से पर्दा उठा | बच्चा अपनी किशोर बहन के साथ उस दिन घर में अकेला था |माँ-बाप गाँव गए हुए थे |स्कूल से लौटने के बाद ऐसा क्या हुआ कि बच्चे ने जहर खा लिया |जहर कहाँ मिला उसे ?उसे तत्काल अस्पताल क्यों नहीं ले जाया गया ?कई अनुत्तरित प्रश्न थे जिसका उत्तर ढूंढा जा रहा था |आत्महत्या के रहस्य से पर्दा उठा तो पता चला कि बच्चे ने ‘ब्लू व्हेल गेम’ के चक्कर में सुसाइड किया था और सुसाइड नोट उसकी बड़ी बहन ने उसके मरने के बाद लिखा था |अध्यापिका बरी होकर घर तो आ गयी पर चुप हो गयी |उसे नौकरी से निकाल दिया गया |समाज में थू -थू हुई |इतनी जिल्लत ...बदनामी और तनाव का उसके गर्भस्थ शिशु पर कैसा प्रभाव पड़ा होगा ?कल अगर वह किसी विकलांग बच्चे को जन्म दे तो इसका जिम्मेदार कौन होगा ?आखिर क्या अपराध था उसका ?
इस घटना से अध्यापकों में डर,रोष व चिंता व्याप्त है |अब उन्होंने बच्चों को उनके हाल पर छोड़ देने का फैसला कर लिया है |वे पढे न पढ़ें ,काम करे न करें ...भाड़ में जाए उनका रिजल्ट ...उनका ज्ञान और कैरियर |अध्यापक बस अपनी ड्यूटी करेगा पर क्या उसे ऐसा करने दिया जाएगा और वह खुद ऐसा अधिक समय तक कर पाएगा ?उसकी नैतिकता क्या इस बात की गवाही देगी ?
आखिर क्यों अध्यापकों की पीड़ा कोई नहीं समझता ?उसकी समस्याओं की ओर समाज का ध्यान क्यों नहीं जाता ?
निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापकों की समस्याएँ अनंत हैं |एक तो उन्हें सरकारी अध्यापक के बराबर वेतन नहीं मिलता ,ऊपर से उन्हें ट्यूशन या कोचिग की भी मनाही हो गयी है |कम वेतन में वह किसी तरह अपने परिवार की ज़िम्मेदारी उठाता है यानि हमेशा आर्थिक दबाव में रहता है |
दूसरे उनसे उनकी सामर्थ्य से अधिक काम लिया जाता है |प्रतिदिन छह से सात पीरियड्स उसे पढ़ाना पड़ता है |हर पीरियड 45 से 50 मिनट का होता है |और प्रत्येक कक्षा में 50 से 60 बच्चे होते हैं |बच्चों में भी हर तरह के बच्चे होते हैं |कुछ तो पढ़ाई में बिलकुल भी रूचि नहीं लेते और कक्षा में कुछ न कुछ उत्पात करते रहते हैं |कापी-किताब तक नहीं लाते और न ही अपना काम पूरा करते हैं |उधर प्रिंसिपल की हिदायत कि हर बच्चे का कार्य पूरा होना ही चाहिए ,कक्षा में अनुशासन दिखना ही चाहिए |ऊपर से बच्चों को डाँटना ....मारना या किसी भी तरह की सजा की सख्त मनाही|अध्यापक समझ नहीं पाता कि इन बिगड़े बच्चों को कैसे पढ़ाए ...समझाए या राह पर लाए ?अगर किसी एक बच्चे के साथ प्राबलम हो तो वह भी ‘तारे जमीन का’ नायक बन जाए ,पर हर कक्षा में बीसेक बच्चे समस्या-ग्रस्त होते हैं |उनकी देखा-देखी अच्छे बच्चे भी शरारतें करते रहते हैं |उसकी शिक्षाओं का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता |
फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥
(बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं तो भी बेंत फूलता-फलता नहीं। ठीक इसी प्रकार ब्रह्मा के समान ज्ञानी गुरु भी मिलें तो भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान नहीं होता।
गुरु का अर्थ ही होता है-बड़ा, यानी जो हर मायने में बड़ा है। और इसे और ज्यादा गहरे अर्थो में कहें, तो गुरु का अर्थ है, जो हमें गुर या कोई गुण सिखाते हैं। इसलिए शास्त्रों में लिखा है -
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय ।
साधु (शिष्य) को गुरु के आज्ञानुसार ही आना जाना चाहिए।
पर आज बच्चों की नजरों में अध्यापकों के प्रति सम्मान निरंतर कम हो रहा है |इसका कारण अभिभावकों की अध्यापकों के प्रति नकरात्मक मानसिकता है |वे अध्यापक को ‘दो कौड़ी का मास्टर’ से ज्यादा नहीं समझते |महंगी फीस अदा करने वाला अभिभावक खुद को अध्यापक से ‘बड़ा ‘आदमी मानता है |घर में बच्चों के सामने अध्यापक की खिल्ली उड़ाता है |बच्चों की शिकायत पर अध्यापक से लड़ने पहुँच जाता है और उसकी औकात बताने लगता है | एक दिन एक बच्चा अध्यापक से उलझ पड़ा और शेख़ी से बोला –‘हमारी फीस से आपको वेतन मिलता है |’ कई बच्चे तो अध्यापक से गाली-गलौज भी कर लेते हैं |बड़े घरों के बिगड़े बच्चे अध्यापकों का बिलकुल भी सम्मान नहीं करते |
सामान्य मध्यवर्ग के लोग भी अध्यापक को पहले जैसा सम्मान नहीं देते |वे कहते हैं प्राचीन गुरूकुलों में अध्यापक बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसे नहीं लेता था | इसलिए समाज उसका सम्मान करता था |अब तो वह पैसे ले रहा है |अध्यापन बिजनेस हो गया है फिर कैसा गुरू और उसका कैसा सम्मान ?वे लोग एक बार भी नहीं सोचते कि अध्यापक मुफ़्त में पढ़ाएगा तो खाएगा क्या?परिवार कैसे चलाएगा ?गुरूकुल में तो गुरू आर्थिक चिंताओं से मुक्त रहते थे ,कारण समाज के लोग उनकी जरूरतों को अपने-आप पूरी कर देते थे |वैसे भी तब गुरू का वानप्रस्थ होता था|सारी चिंताओं /दायित्वों से मुक्त |उम्र भी पचास से पचहत्तर के बीच | आज का अध्यापक तो युवा है ...जिम्मेदारियों से युक्त ....फिर बिना पैसों के वह कैसे जिंदा रहेगा ?
आज बच्चे अध्यापक की नैतिक शिक्षाओं का मज़ाक बनाते हैं |पाश्चात्य आँधी में उड़ रहे बच्चों को नैतिकता की बातें पिछड़ी व पुरानी लगती है |वे उस शिक्षक को पसंद करते हैं,जो उन्हें पढ़ाए नहीं ...बस उनकी इच्छानुसार बातें करें ...उनका मनोरंजन करें |मौज-मस्ती और आधुनिकता आज के बच्चों की प्राथमिकता बनती जा रही है |पढ़ाई को लेकर गंभीर अध्यापक की शिकायतें लेकर बच्चे प्रिंसिपल तक पहुँच जाते हैं |जिस भी अध्यापक से वे चिढ़ जाते हैं ,उन्हें स्कूल से ‘बाहर’करवाने के लिए उस पर उल्टे-सीधे आरोप भी लगा देते हैं | चरित्र-हनन भी इन आरोपों में शामिल है |फिल्मी प्रभाव में बच्चे झूठी कहानियाँ गढ़ने में माहिर हो गए हैं |मैनेजमेंट भी उनकी ही बात सुनता है और अभिभावक भी और इन दो पाटों के बीच अध्यापक घुन की तरह पीसता रहता है |डर-डरकर जीता है |नौकरी से निकाले जाने का खतरा अलग से उसकी नींद उड़ाए रहता है |वह फूँक-फूँक कर कदम रखता है फिर भी उसके हिस्से अपयश ही ज्यादा आता है |विद्यार्थी भी उसे छकाते रहते हैं |उसका हृदय हिमाचल की तरह अडिग कैसे रह सकता है ?आखिर वह भी एक इंसान है |उस पर दुहरा दबाव न हो तो वह भी बच्चों को खुला छोड़ दे |वे पढ़ना चाहे तो पढे या न पढ़ें पर यह भी संभव नहीं होता |किसी भी बच्चे का काम पूरा न हो या उसकी कापी चेक न हो या वो फेल हो जाए तो प्रिंसिपल और अभिभावकों की दृष्टि में एक मात्र दोषी अध्यापक ही होता है |बच्चे की असफलता उसकी अयोग्यता का प्रमाण माना जाता है |
यही कारण है कि वह बच्चों को छोटी-मोटी सजा देकर उन्हें सुधारने की कोशिश करता है ,पर इसकी भी सख्ती से मनाही हो गयी है |जिसका फायदा बच्चे उठाते हैं |हमारे शास्त्रों में विद्यार्थियों को छोटे-मोटे दंड देने का विधान सदा ही रहा है –‘पञ्च वर्षेण लालयेत दश वषेण ताडयेत’| ‘कबीरदास भी कहते हैं –‘अंदर हाथि सहारि दे बाहर बाहै चोट.....|’ गुरू कुम्हार है शिष्य मिट्टी के कच्चे घड़े के समान है। जिस तरह घड़े को सुन्दर बनाने के लिए अन्दर हाथ डालकर बाहर से थाप मारते हैं ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अन्तर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराइयों को दूर करके संसार में सम्माननीय बनाता है। कोई अध्यापक इतना क्रूर नहीं हो सकता कि किसी बच्चे को गंभीर चोट पहुंचाएँ |अगर एक-दो ऐसे केस आते हैं तो वह मात्र दुर्घटनाएँ होती हैं |असावधानी की वजह से ही बच्चे को गंभीर चोट लग जाती है |पर सारा दोष अध्यापक के सिर आ जाता है |अब स्कूल प्रबंधन व अभिभावक दोनों को अध्यापक इस तरह भी झेले और उस तरह भी |रात भर इन्टरनेट चलाने वाले बच्चे कक्षा में सोएँ तो अध्यापक पर यह आरोप लगता है –‘रूचिकर ढंग से नहीं पढ़ते होंगे |’बच्चे फेल हो जाएँ तो-‘कैसे अध्यापक हैं...किस तरह पढाते हैं कि बच्चे फेल हो जाते हैं |’मोबाइल युग ने बच्चों को इतना शातिर बना दिया है कि वे अपनी कमियों का सारा ठीकरा अध्यापक के सिर पर ही फोड़ देते हैं |
अध्यापक के मुंह से ‘गधा’ शब्द निकल जाए तो ‘एब्यूजिम मी’ कहते हैं जबकि गुरू-शिष्य परंपरा में गधा शब्द कभी गाली नहीं समझा गया था |बच्चों को डाँटने से उनका ‘हार्ट-ब्रेकिंग‘ हो जाता है | बुद्धू कहना भी मानसिक उत्पीड़न हो जाता है जबकि बच्चे आपस में जिस तरह की भाषा इस्तेमाल करते हैं ...जो कुछ देखते हैं ....सुनते हैं या करते हैं ...वह नैतिकता की सारी हदें पार कर रहा है |मोबाइल फोन का इस्तेमाल पढ़ाई की अपेक्षा वे दोस्ती करने ...चैटिंग करने या अश्लील चीजों को देखने के लिए करने लगे हैं |किशोर उम्र में ही वे सेक्स अनुभवों को जी लेने को आतुर हैं | नशा ,चोरी,छिनैती,रेप ,हत्या जैसे अपराधों में उनका नाम उछल रहा है ?
क्या इसके पीछे भी अध्यापक है?क्या कोई अध्यापक उन्हें इन गलत कार्यों के लिए प्रोत्साहित करेगा ?इन सबके पीछे बहुत सारे कारण हैं पर उन कारणों तक पहुंचने की कोशिश करने के ब जाय पूरा समाज और प्रशासन अध्यापक के पीछे पड़ा रहता है |
गुडगांव के रेयान स्कूल के चर्चित प्रद्युमन हत्याकांड केस में सीबीआई ने प्रद्युमन के स्कूल के ही 11वीं कक्षा के छात्र को गिरफ्तार किया जबकि गुड़गांव पुलिस ने स्कूल बस कंडक्टर को अरेस्ट किया था |
सीबीआई का जांच कहना है कि स्टूडेंट ने एग्जाम टलवाने के लिए प्रद्युम्न को मार दिया। इसी स्टूडेंट ने सबसे पहले टीचर,माली को सूचना दी थी।
इस समाचार पर प्रबुद्ध वर्ग की टिपपड़ी देखिए - परीक्षा के कितने दबाव में रहा होगा वह छात्र जिसे परीक्षा टलवाने के लिए हत्या का विकल्प चुनना पड़ा।
धिक्कार है ऐसी शिक्षा पर जो एक मासूम को हत्यारे में बदल दे रही है। सिर्फ दो विकल्प दे रही है- मार डालो या मर जाओ।
कोई भी स्टूडेंट चाहे कितने ही दबाव क्यों ना हो क्या उसे हत्या का विकल्प चुनने की आजादी है ?निश्चित रूप से वह लड़का आपराधिक प्रवृत्ति के साथ किसी कुंठा से ग्रसित मनोवृत्ति का इंसान है। उसे कॉउंसलिंग की जरूरत है पर नहीं सबसे आसान है शिक्षा ..और .शिक्षक को कोसना |
यह भी सच है कि स्कूलों में बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न की घटनाएँ भी घटी हैं और उसमें से कई मामलों में अध्यापक भी फंसा है |पर निजी शहरी स्कूलों में ऐसी घटना शायद ही दिखे क्योंकि हर जगह सी सी कैमरे लगे होते हैं दूसरे अध्यापक काम के बोझ से इतना हलकान रहता है कि इस तरह की बात सोच भी नहीं सकता |नौकरी जाने का खतरा भी सिर पर होता है |वैसे भी एकाध मनोरोगियों को छोड़ दें तो अध्यापक की नैतिकता अभी इतनी गिरी नहीं है |पर ऐसी घटनाएँ नहीं होतीं ,ऐसा भी नहीं कहा जा सकता पर सभी अध्यापकों को इसमें ‘सानना’ भी तो अमानवीय है |जैसे ‘बच्चे’ शब्द में ‘सभी बच्चे’ शामिल नहीं हैं |वैसे अध्यापक शब्द में ‘सारे अध्यापक’शामिल नहीं है |वैसे भी विश्वविद्यालयों,महाविद्यालयों और सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को निजी स्कूलों के अध्यापकों से अलग देखना जरूरी है |मोटी तनख्वाह पाने वाले इन अध्यापकों पर कार्य-भार भी कम होता है |साथ ही बच्चों के बनने-बिगड़ने व असफलता का सारा दोष उनपर नहीं मढ़ा जाता |उनमें से अधिकांश तो निष्ठापूर्क अपना शिक्षण कार्य भी नहीं करते |अवकाश के बाद पेंशन,भविष्य निधि ,ग्रैजुएटी व अन्य लाभ उन्हें भविष्य की चिंता से भी मुक्त रखते हैं |जबकि निजी स्कूलों के अध्यापकों को क्षमता से अधिक कार्य करने के बाद भी न तो सरकारी वेतन मिलता है न अवकाश के बाद पेंशन या अन्य आर्थिक सुरक्षा ही |ऊपर से स्कूल प्रबंधन परिश्रमी व युवा काबिल अध्यापक ही काम पर रखते हैं उनका उद्देश्य अपने स्कूल को ‘टाप’ पर रखकर अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है |बेरोजगार युवा अध्यापक इनके आसान शिकार हैं |ये अध्यापक मेहनत से पढ़ते हैं |उनकी हर कार्यविधि पर कैमरे की सख्त निगाह लगी रहती है |वे सुकून की सांस भी ले लें तो उनकी शिकायत हो जाती है |पढ़ाने के अलावा विभिन्न प्रतियोगिताओं में भी उन्हें अतिरिक्त समय और ऊर्जा देनी पड़ती है ,जिसका कोई मुआवजा उन्हें नहीं मिलता |उनसे बेहतर तो सरकारी चपरासी होते हैं ,जिन्हें उनसे बेहतर वेतन व अतिरिक्त कार्य के अलग से पैसे मिलते हैं |
इतने दबावों में जीने वाला अध्यापक खुद ही एक दयनीय प्राणी है जिस पर कोई रहम नहीं करता |देश के किसी भी स्कूल में बच्चों के साथ कोई भी दुर्व्यवहार होता है ,समाज और मीडिया दोनों अध्यापकों को गरियाने में लग जाते हैं |काश अध्यापकों की पीड़ा की ओर भी समाज और मीडिया का ध्यान जाता |