Rajsinhasan - 2 in Hindi Fiction Stories by Harshit Ranjan books and stories PDF | राजसिंहासन - 2

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राजसिंहासन - 2

अबतक के सफ़र में हमने जाना कि राजा की आज्ञा मानकर तीनों राजकुमार राज्य से रवाना हो गए । राजकुमार रविसिंह और राजकुमार केशवसिंह ने सिंहगढ़
नरेश चित्ररसेन के साथ मिलकर अपने चाचा शरणनाथ के राज्य पर आक्रमण करने की योजना बनाा और उसे अंजाम दिया किंतु शरणनाथ के सैन्य बल को देखकर राजा चित्रसेन युद्धभूमि से भाग घड़े हुए । और अंंतत:
दोनों राजकुमारों की पराजय हो गई और शरणनाथ ने उन्हें अपमानित करके भगा दिया । जब राजकुमारों ने महल लौटकर महाराज जयसिंह को सारा वृृतांत सुनाया तब महाराज ने कुछ नहीं कहा और अपने कक्ष में लौट गए । एक वर्ष पूरा होने में जब कुछ ही समय शेष था तब राजकुमार माधोसिंह को राजा शरणनाथ के साथ उन्हीं के रथ पर बैठकर राजमहल की ओर आते हुए देखा गया ।
उनके साथ शरणनाथ की एक अक्षौहिणी सेना भी थी ।
जब महाराज जयसिंह को यह खबर मिली तब उन्होंने सोचा कि कहीं राजकुमार माधोसिंह ने उन्हें धोखा देकर शरणनाथ के साथ संधी तो नहीं कर ली । और तब उन्होंने अपनी सेना को तथा अपने दोनों पुत्रों को युद्ध के लिए सजज हो जाने का आदेश भिजवाया और खुद भी युद्ध के लिए तैयार हो गए । दोनों सेनाएँ आमने सामने खड़ीं हो गई । महाराज जयसिंह राजकुमार केशवसिंह और राजकुमार रविसिंह के साथ अपनी सेना के आगे खड़े थे ।
और दूसरी ओर राजा शरणनाथ राजकुमार माधोसिंह को साथ लिए अपनी सेना के आगे खड़े थे । युद्ध का माहौल बनने ही वाला था तब तक राजा शरणनाथ अपने रथ से उतर गए । उन्होंने अपनी तलवार ज़मीन पर रख दी और महाराज जयसिंह की ओर बढ़ने लगे । शरणनाथ को अपनी ओर आता देखकर महाराज जयसिंह भी अपने रथ पर से उतर गए । राजा शरणनाथ महाराज जयसिंह के सामने आकर खड़े हो गए । उन दोनों ने कुछ समय तक एक दूसरे की आँखों में देखा तभी अचानक से राजा शरणनाथ ने महाराज जयसिंह के पौर पकड़ लिए और उनसे क्षमा माँगने लगे । यह देखकर महाराज भी कुछ समय के लिए अचंभित हो गए । उन्होंने यह सोंचा कि जो भाई हमेशा उनसे शत्रुता रखता था वह अचानक से उनसे क्षमा क्यों माँग रहा है । तब राजकुमार माधोसिंह वहाँ पर आए और उन्होंने महाराज जयसिंह को यह बताया कि चाचा शरणनाथ के मन में आपके प्रति जो द्वेष था वह समाप्त हो गया है और अब वह कभी भी आपका विरोध नहीं करेंगे । शरणनाथ ने भी इस बात का समर्थन किया ।
महाराज जयसिंह ने राजकुमार माधोसिंह से पूछा कि तुमने हम दोनों भाईयों के बीच की शत्रुता को समाप्त कैसे किया?
माधोसिंह: महाराज आपकी दी हुई एक वर्ष की अवधि में मैंने अपना सारा समय सोंचने और विचारने में ही लगा दिया । इस मसले में मैंने कई सलाहकारों से विचार-विमर्श किया लेकिन किसी ने भी उचित सलाह नहीं दी । मैं कभी इस राज्य में जाता तो कभी उस राज्य में जाता । ऐसे करते-करते 11 महीने बीत गए । जब वर्ष का अंतिम माह प्रारंभ हुआ तब मैंने सोचा कि अब अपने राज्य लौट चलते हैं । रथ पर सवार होकर मैं जब राज्य की ओर आ रहा था तब मैंने देखा कि कुछ लुटेरे एक व्यक्ति को बंदी बनाकर ले जा रहे हैं । वह व्यक्ति वस्त्रों से राजा प्रतीत हो रहा था।
मैंने सारथी से कहकर अपना रथ उनके काफिले के आगे
लाकर खड़ा करवा दिया । रथ से उतरकर मैंने उनसे पूछा कि तुम लोग इस आदमी को कहाँ लेकर जा रहे हो । उन लोगों ने मुझे बताया कि ये शक्स कोई ऐरा-गैरा आदमी नहीं खुद इस राज्य का राजा है । इसने हमारे सरदार को बंदी बना लिया है और अगर इसकी सेना हमारे सरदार को रिहा नहीं करती है तो हम इसे मौत के घाट उतार देंगे । तब मैंने उनसे उस राजा को रिहा करने के लिए कहा ।
उन लुटेरों ने मेरी बात नहीं मानी और इसलिए मुझे शक्ति का प्रयोग करना पड़ा । मेरी तलवार ने सभी लुटेरों को मृत्यु शैया पर लेटा दिया । उन सबके मारे जाने के बाद मैंने उस राजा को बंधन से आज़ाद किया ।