Aatmglani - 1 in Hindi Short Stories by Ruchi Dixit books and stories PDF | आत्मग्लानि - भाग -1

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आत्मग्लानि - भाग -1

माई थब थाई दये !! तैं दंदी है | तै हमछे बात न कलिहै | आज यह स्वर कानो मे गूँज कर एक अपराध बोध के साथ हृदय को दृवित करे जा रहा है | बात उन दिनो की है जब हमारी काम वाली जो कि बहुत सालो से लगी थी, ने काम छोड़ दिया कारण उसके पति का बुलावा आ गया था, वैसे यह पहली बार न था , अक्सर ससुराल और मायके का चक्कर उससे कई सारी छुट्टियाँ करवा जाता, किन्तु हमने भी न जाने क्यों तमाम दिक्कतों के बावजूद कभी किसी और को उसकी जगह पर न रख्खा था | यदि उसे घर न जाना होता तो वह सप्ताह तो छोड़ो महीने मे एक भी छुट्टी न लेती थी, यही नही किसी अतिरिक्त कार्य को भी न मना करती | काम मे सफाई ने उसे सिर पर बैठा रखा था | हालांकि उसे इस बात का अभिमान भी था | वह अक्सर कहती "हमरन तरा कौउनो सफाई कइ कै देखाय देई तऊ जउन कहओ तउन सरत हारी !!" उसके बड़बोलेपन की यह आदत मन को चुभने के बावजूद भी उसकी उपयोगिता अनदेखा कर जाती | एक दिन सुबह रोज की अपेक्षा उसका जल्दी आना चेहरे पर मुस्कान समेटे सिर पर सिमटे बालो के बीच खूबसूरती से निकाली गई सीधी रेखा जिसे बोलचाल की भाषा मे माँग कहते हैं उपर मोटा सा सिदूर लगाये, एक नई साड़ी जो पिछले महीने मैने ही दी थी उसे, हाँलकि उसे मैने कई बार आने जाने मे पहना था किन्तु उसके तन पर पहली बार देखा वह आज कुछ अधिक ऊर्जावान लग रही थी | बिना कुछ बोले किचन का सारा काम समेट दिया | हालांकि हमारी दिनचर्या के हिसाब से उसका जल्दी आना हमारे लिए ज्यादा उपयोगी नही था, फिर भी हम उससे किसी प्रकार की बहस न करते इसका कारण हमारी उसपर अत्याधिक निर्भरता ही थी, जो उसके सारे नखरे झेल रहा था, फिर भी मन ने थोड़ा साहस को हिलाकर जगाने की कोशिश की परिणामतः एक शब्द मे पूँछ ही लिया | अरे कोमल आज इतनी जल्दी कैसे? थोड़ा झेपते हुये, दीदी मेरा घरवाला आया है!! यह सुनकर मन आकस्मिक आगामी चिन्ता मे डूब गया | फिर भी खुद को सहज करते हुये उससे पूछा "कितने दिनो के लिए जायेगी तू ?? सिर नीचे गड़ाये बर्तन साफ करती हुई हल्की मुस्कुराहट के साथ शर्मीले अन्दाज मे वह बोली "नही दीदी! अब नही आऊँगी | हमेशा के लिए जा रही हूँ | कोमल यदि चली गई तो इतनी जल्दी मै दूसरी काम वाली कैसे ढूँढूगी | आज से छः साल पहले वह मेरी सहेली के साथ आई थी जिसे मैने काम वाली बाई की तलाश मे लगाया था | उसके साथ एक सालभर बच्ची भी थी जिसके पैदा होने के कारण ही प्रतारणा और पारिवारिक क्लेश से तंग आकर उसने माईके मे शरण ली किन्तु यहाँ भी उसे चैन कहाँ मायका तभी तक मायका होता है जब तक माता पिता जीवित व स्नेही हों और घर पर उनका राज हो | पिता विवाह के छः महीने बाद अत्याधिक दारू पीने से लीवर सड़ने की वजह से परलोक सिधार गये | घर की स्थिति तो पहले ही खराब थी ले देकर समझौतेपूर्ण विवाह किया गया था | बाप के जीवित रहते गलीमत यह थी कि रोटी पानी को मोहताज न थे | घर पर शिक्षा का नामोनिशान न था | हालाकि छोटे भाई का दाखिला सरकारी स्कूल मे करवाया गया था जहाँ वह दूसरे दिन ही वह बालको के बीच मार पीटकर चला आया | तब से दुबारा न गया और न ही किसी ने स्कूल जाने का दबाव ही बनाया | बाप के रहते सारा दिन घर पर ही पड़ा रहता या गली मुहल्ले के नल्लों के साथ इधर- उधर घूमता | बाप के जाने के बाद पेट की आग बुझाने के लिए एक सर्विस सेन्टर मे गाड़ियों की धुलाई के काम मे लग गया | कुछ समय बाद न जाने कहाँ से एक लड़की को ब्याह लाया | शिक्षा संस्कार देती है इसके आभाव मे इसकी संभावना कल्पना मात्र ही तो है | ऐसा कोई दिन नही जब घर पर सास -बहु ,बेटे के बीच क्लेश न हो ऊपर से ससुराल से कोमल का आना | अपनी कहानी सुनाते कोमल रोने लगी | उसकी दशा और अपनी अवश्यता के चलते मैने उसे तुरन्त ही बिना किसी वेरीफिकेशन के काम पर रख लिया | इसका एक कारण सहेली की विश्वसनीयता भी थी |खैर ! कोमल ने भी कभी शिकायत का ऐसा कोई मौका न दिया | वह भले ही गरीब थी किन्तु इमानदार थी | यही कारण था कि समय के साथ उसके नखरे को हम नजर अंदाज कर देते थे |

क्रमश: